Saturday, July 16, 2011

आपातकाल लगाने का दोषी इंदिरा गांधी वंश



36 वर्ष पूर्व थोपे गए आपातकाल का संबंध आप नई पीढ़ी से कैसे जोड़ते हैं? मुझसे यह सवाल अनेक बार पूछा गया है। जब तक आपातकाल लगाने का दोषी इंदिरा गांधी वंश सत्ता में है, कांग्रेस सरकार इस बारे में बात नहीं करेगी। भाजपा ने भी निरंकुश सत्ता का उत्पीड़न तब झेला था। हालांकि पार्टी की धार्मिक पहचान उस वैशिष्ट्य की विरोधी है, जो भारत की विशेषता है। इंदिरा गांधी की किलेबंदी के विश्लेषक सत्य को अभिव्यक्त करने के मामले में पर्याप्त उद्देश्यपरक नहीं हो पाते। कुछ विश्लेषक आपातकाल की व्याख्या वाम चिंतन विरोधी ताकतों से निपटने के लिए उठाए गए एक कदम के तौर पर करते हैं। ऐसे लोग कम हैं जो उन दिनों हुई ज्यादतियों की ओर इंगित करने का साहस जुटा पाते हैं। जब आप ऐसा करेंगे तो आप पर कांग्रेस विरोधी होने का लेबल चस्पा हो जाएगा और आप शासकों की नजरों से उतर जाएंगे। पूरी कहानी अभी सामने आनी है। दरअसल, उन दिनों के दस्तावेजों को सार्वजनिक किए जाने की मांग बार-बार उठाई जाती है, किंतु उस पर कोई कान नहीं धरता। जून 1975 से जनवरी 1977 तक जारी आपातकाल के दौरान जो कुछ हुआ वह एक प्रधानमंत्री द्वारा अपनी सत्ता और खाल बचाने के लिए अपनाई गई हठधर्मिता की एक लज्जाजनक कहानी है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान को निलंबित कर दिया था, प्रेस का गला घोंट दिया था और संसद की सदस्यता के अयोग्य ठहराए जाने की बाधा पर पार पाने के लिए निजी शासन थोप दिया था। न्यायालय ने उन्हें चुनाव में सरकारी मशीनरी के उपयोग के आरोप में लोकसभा की सदस्यता से वंचित कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के वामपंथी न्यायाधीश कृष्ण अय्यर ने उन्हें उच्च न्यायालय के निर्णय पर स्थगनादेश के माध्यम से राहत उपलब्ध कराई थी। एक बार उन्हें राहत मिली तो उन्होंने अपने हाथ दिखाए और उस लोकतंत्र के प्रकाश को तिरोहित कर दिया जो विकासशील जगत के अन्य देशों से भारत की पृथक पहचान दर्शाता था। इंदिरा गांधी ने संविधानेतर अधिसत्ता के रूप में उभरे अपने पुत्र संजय गांधी की मदद से कानूनों को बदल दिया और उन संस्थानों को नष्ट कर दिया, जिन्हें बनाने में उनके पिता जवाहर लाल नेहरू को वर्षो लग गए थे। वह अपने आप में कानून बन बैठीं। उन्होंने सारी सत्ता को अपने पद में समेट लिया और अपने पुत्र को मनमानी की खुली छूट दी। पहले इंदिरा गांधी ने बिना अभियोग चलाए एक लाख से अधिक लोगों को हिरासत में ले लिया। फिर सिविल सर्विस के ढांचे को ध्वस्त किया। उन्होंने लोगों को इतना भयाक्रांत कर दिया कि सही और गलत तथा नैतिक और अनैतिक के बीच अंतर ही खत्म हो गया। किसी ने जीवन मूल्यों के बारे में चर्चा तक नहीं की। अपने मकसद के लिए इंदिरा गांधी ने तमाम हदों को पार किया। इससे भी बुरा यह हुआ कि उन्होंने राजनीति से नैतिकता का ही सफाया कर दिया। देश भयाक्रांत हो उठा-इतना अधिक कि न्यायपालिका ने भी ऐसा कोई फैसला सुनाने का साहस नहीं किया कि जो सरकार को नहीं सुहाए। आपातकाल के बाद जो शासक आए उन्होंने इंदिरा गांधी द्वारा की गई गलतियों को सुधारने पर अपना ज्यादा ध्यान केंद्रित करने की अपेक्षा उनके क्रिया कलापों को उजागर करने में ही व्यस्तता दर्शायी। संस्थानों को अपनी पुरानी गरिमा प्राप्त नहीं हो पाई। तब से अभागी सिविल सर्विस और पिलपिली सी हुई पुलिस ने जो भी सत्ता में आए उसी का हुकुम बजाना सीख लिया। नीचे की न्यायपालिका आपातकाल के उस संताप से अभी भी मुक्त नहीं हो पाई। नई पीढ़ी को यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि आज का कुशासन इंदिरा गांधी ने स्थापित व्यवस्था को विध्वंसित करने का जो कृत्य किया था उसी का यह स्वाभाविक प्रतिफल है। बोफोर्स तोप सौदे में घोटाले से लेकर 2 जी-स्पेक्ट्रम घोटाले तक तो पर्वत की तुलना में राई के समान है। और भी अधिक घोटाले अभी सामने आने वाले हैं। 36 वर्ष बाद वही स्थिति लौट आई है। देश के समक्ष सारी बहस भ्रष्टाचार को लेकर है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार इसके उन्मूलन के लिए कुछ भी करना नहीं चाहती-खास तौर पर तब जब एक के बाद दूसरा मंत्री या तो 2जी-स्पेक्ट्रम घोटाले में संलिप्त प्रतीत होता है अथवा कृष्णा-गोदावरी बेसिन गैस जैसे घोटाले में। कैग ने केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय पर रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड को उपकृत करने के लिए अनियमितताओं पर उंगली उठाई है, जिसके फलस्वरूप राजकोष को भारी घाटा उठाना पड़ा है। इससे यह जाहिर होता है कि कारपोरेट क्षेत्र राजनीतिक तौर पर कितना सशक्त हो गया है। लोग अधिक से अधिक पारदर्शिता चाहते हैं, जबकि सरकार यह चाहती है कि सार्वजनिक जानकारी के अवसर कम से कम हों। जयप्रकाश को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए मैं पटना गया। पांच जून वह तारीख है, जिस दिन उन्होंने संपूर्ण क्रांति का आ ान किया था। जयप्रकाश के घर पर मुट्ठी भर लोग ही जमा हुए। इसी घर में जय प्रकाश रहे और यहीं उनका निधन हुआ। यह स्थान उजाड़ सा लगा। कभी यह स्थान उन राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र रहा था, जिनके फलस्वरूप 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी पराजित हुई थीं। जिस बात ने मुझे निराश किया वह थी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अनुपस्थिति, जो जेपी के आंदोलन से ही उभरे थे। सरकार ने संपूर्ण क्रांति अथवा पारदर्शिता के लिए हुए संघर्ष के बारे में चर्चा करने के लिए एक मीटिंग तक नही बुलाई। कार्ल मा‌र्क्स ने सही ही कहा था- दार्शनिकों ने तो विश्व का विश्लेषण भर किया है, मगर मुद्दा तो उसे बदलने का है।a

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