Wednesday, August 24, 2011

धोखाधड़ी का नतीजा

अन्ना हजारे की गिरफ्तारी पर संसद के दोनों सदनों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान निराश और चिंतित करने वाला है। उनके बयान से यह स्पष्ट हो गया कि वह देश की जमीनी हकीकत से बेखबर तो हैं ही, उन्हें यह भी अहसास नहीं कि उनकी सरकार से कितनी बड़ी भूल हुई है? यह हास्यास्पद है कि उनकी सरकार एक के बाद एक गलतियां करती जा रही है और फिर भी वह ऐसा प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सब कुछ विधिसम्मत तरीके से हो रहा है। आखिर कितनी और बदनामी के बाद केंद्रीय सत्ता को यह आभास होगा कि उसकी प्रतिष्ठा धूल में मिलती जा रही है और वह देश-दुनिया में उपहास का पात्र बन गई है? अन्ना हजारे की गिरफ्तारी की चौतरफा भ‌र्त्सना होने के बावजूद प्रधानमंत्री ने जिस तरह दिल्ली पुलिस की कार्रवाई को जायज ठहराने की कोशिश की उससे केंद्रीय सत्ता की हठधर्मिता का ही पता चलता है। क्या इससे बुरी बात और कोई हो सकती है कि खुद प्रधानमंत्री पुलिस की उन शर्तो को सही बताएं जो हर लिहाज से तानाशाही व्यवस्था का सूचक हैं? इस पर आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री ने जन लोकपाल विधेयक का विरोध किया, लेकिन आखिर वह सरकारी लोकपाल विधेयक का समर्थन कैसे कर सकते हैं? यह न केवल एक कमजोर विधेयक है, बल्कि जनता के साथ किए जाने वाले छल का प्रतीक है। इस नख-शिख-दंतहीन विधेयक के कारण ही आम जनता इस नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश है कि केंद्र सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाले किसी सक्षम तंत्र का निर्माण करने से जानबूझकर बच रही है। क्या केंद्र सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब है कि भ्रष्टाचार से लड़ने की बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद लोकपाल विधेयक का ऐसा मरियल मसौदा क्यों तैयार किया गया? इस धोखाधड़ी के कारण ही आज देश सड़कों पर है। केंद्र सरकार खुद को भ्रष्टाचार से लड़ने के प्रति चाहे जितना प्रतिबद्ध बताए, सच्चाई यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा जिससे आम जनता को यह भरोसा हो कि सरकार बढ़ते भ्रष्टाचार से चिंतित है। चूंकि कानून बनाने का काम संसद का है इसलिए सिविल सोसाइटी को भी अपनी सीमाओं को समझना होगा। जिस तरह सिविल सोसाइटी को यह स्वीकार नहीं कि एक कमजोर और निरर्थक लोकपाल उस पर थोपा जाए उसी तरह उसे भी जन लोकपाल संसद पर थोपने का अधिकार नहीं मिल सकता। लोकतंत्र के अपने कुछ कायदे हैं और उनके दायरे में रहकर ही समस्याओं का समाधान निकल सकता है। अब जब अन्ना हजारे के नेतृत्व में सिविल सोसाइटी ने अहंकारी केंद्रीय सत्ता को घुटनों के बल ला दिया है और इसमें संदेह नहीं कि वह श्रीहीन हो चुकी है तब फिर कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि एक सक्षम लोकपाल व्यवस्था के निर्माण का रास्ता कैसे निकले? नि:संदेह रास्ता निकालने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की है, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि विपक्ष केवल सरकार को लांछित करने तक सीमित रहे। यदि सत्तापक्ष की तरह वह भी यह कह कर कर्तव्य की इतिश्री करेगा कि उसे भी जन लोकपाल स्वीकार नहीं तो फिर गतिरोध कैसे टूटेगा? यह आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि राजनीतिक नेतृत्व और सिविल सोसाइटी के बीच नए सिरे से संवाद हो और इस बार उसका उद्देश्य देश को धोखा देना न हो।
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