Thursday, August 11, 2011

लोकपाल मसौदाः विश्लेषण

केंद्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने लोकपाल बिल पर आखिरकार अन्ना हजारे सहित पूरे देश को अजीब से दोराहे पर ला खड़ा किया है| भ्रष्टाचार को मिटाने हेतु मजबूत लोकपाल बिल अवश्यंभावी था मगर सरकार में बैठे नीति-निर्धारण तत्वों ने इसे नकार कर अप्रत्यक्ष रूप से जनता को यह जताने की कोशिश की है कि जो सरकार चाहेगी वही होगा| कैबिनेट ने सरकारी लोकपाल विधेयक के मसौदे पर मंजूरी दे दी है और अब इसे एक अगस्त से शुरू हो संसद के मानसून सत्र में एक-दो दिन के भीतर ही पेश कर दिया जाएगा| हजारे पक्ष की ओर से सरकार को सुझाए गए 40 बिन्दुओं में से 34 को सरकार ने इस मसौदे में शामिल करने का दावा किया है| मगर इस विधेयक में तीन मुद्दों पर सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच गंभीर मतभेद हैं|

मसलन, लोकपाल विधेयक 2011 के मसौदे के तहत प्रधानमंत्री, उच्च न्यायपालिका और संसद के भीतर सांसदों के आचरण को प्रस्तावित भ्रष्टाचार निरोधी निकाय के दायरे से बाहर रखा गया है और यही वे तीन मुद्दे है जिनपर अन्ना और सरकार के बीच मतभेद हैं|अन्ना टीम यह भी चाहती थी कि सी.बी.आई को भी लोकपाल के अधीन रखा जाए ताकि इसके काम में पारदर्शिता लायी जाए मगर सरकार शायद इसे भी अपने अधीन रखना चाहती है; इसलिए उसने अन्ना की यह मांग भी ठुकरा दी| कहने का लब्बो-लुबाव यह है की इस तरह सरकारी मसौदे के विधेयक ने भारत में हुए अधिकाँश बड़े घोटालों की जांच को स्वतः ही समाप्त कर दिया है और यह इस तरह यह विधेयक भी मात्र कागज़ी पुलिंदा बनकर रह जाएगा|

हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में स्वयं को लोकपाल के दायरे में रखने की पेशकश की थी मगर कैबिनेट के अन्य सहयोगियों ने इसके नफे-नुकसान पर लम्बी चर्चा के बाद इस पद को प्रस्तावित भ्रष्टाचार निरोधी निकाय के दायरे से बाहर रखने का फैसला किया| अब इसमें पूर्व प्रधानमंत्रियों और वर्तमान प्रधानमंत्री के पद से हटने के बाद वह इसके दायरे में होंगे| वहीँ, प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई भी शिकायत सात साल तक मान्य रहेगी और इस अवधि में उनके पद से हटने पर उनके विरुद्ध लोकपाल के तहत जांच शुरू की जा सकेगी| राज्य सरकारों का भ्रष्टाचार भी लोकपाल के दायरे के बाहर होगा यानी मुख्यमंत्रियों से लेकर राज्यों के मंत्री सहित नगर निगम, पंचायत विकास प्राधिकरणों का भ्रष्टाचार इसके अधिकार क्षेत्र से बाहर होगा|

सरकारी लोकपाल में एक अध्यक्ष और आठ अन्य सदस्य होंगे और इनमे से आधे सदस्य न्यायपालिका से होंगे| इनमे से पांच सदस्यों की नियुक्ति प्रधानमंत्री करेंगे| लोकपाल की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति करेगी| इस समिति में लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा के सभापति, लोकसभा और राज्य सभा में विपक्ष के नेता, कैबिनेट के एक सदस्य और सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्ट के एक-एक सेवारत न्यायाधीश शामिल रहेंगे|अध्यक्ष पद पर सुप्रीम कोर्ट के किसी सेवारत या सेवानिवृत प्रधान न्यायाधीश या जज को नियुक्त किया जा सकता है| लोकपाल में गैर-न्यायिक पृष्ठभूमि वाले उन्हीं सदस्यों को शामिल किया जाएगा पूर्ण रूप से ईमानदार और असाधारण क्षमता वाले होंगे और जिन्हें भ्रष्टाचार विरोधी क्षेत्र और अन्य जिम्मेदारी वाले पदों पर काम करने का कम से कम २५ वर्ष का अनुभव हो| लोकपाल को पद्चुत करने का अधिकार राष्ट्रपति के पास होगा| लोकपाल की अपनी जांच इकाई और अभियोजन इकाई होगी मगर लोकपाल को अभियोजन चलाने के अधिकार नहीं होंगे| अभियोजन चलाने का अधिकार न्यायपालिका के पास ही रहेगा|

अन्ना हजारे और उनकी टीम ने खुले तौर पर सरकारी लोकपाल बिल के मसौदे को देश की जनता के साथ धोखा करार दिया है| इससे अन्ना के 16 अगस्त से दोबारा आंदोलन पर जाने का रास्ता भी साफ़ हो गया है| देखा जाए तो भ्रष्टाचार निरोधी लोकपाल को इतने अधिकार तो देने ही चाहिए थे कि वो मात्र सरकार का नुमाइंदा न बन जाए| फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब स्वयं प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं तब उनकी कैबिनेट के सहयोगियों का विरोधी रवैया कई शंकाओं को जन्म देता है|आखिर सरकार प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर क्यूँ रखना चाहती है?

1989 में बोफोर्स दलाली मामले में राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए ही उनके खिलाफ जांच हुई थी वहीँ पी.वी. नरसिंहमा राव पर भी प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए उनके खिलाफ जांच होती रही थी| राजनीति में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब प्रधानमंत्री पर पद पर रहते हुए जांच होती रही है तब सरकार का यह कहना कि प्रधानमंत्री का पद संवेदनशील है इसलिए उसे लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए; कहाँ तक उचित है?

यही हाल न्यायपालिका का भी है| हालांकि न्यायपालिका में अभी भ्रष्टाचार का स्तर राजनीति के बराबर तो नहीं है परन्तु इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कई जज भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं| सरकार ने लोकपाल विधेयक में सिर्फ उच्च स्तर के अधिकारियों के खिलाफ जांच को ही मंजूरी दिए जाने की वकालत की है| इस हेतु सरकार का तर्क है कि यदि लोकपाल को निचले स्तर के कर्मचारियों के लिए भी प्रासंगिक किया जाता है तो उससे एक बड़ा ढांचा खड़ा करना पड़ेगा जो किसी भी नज़रिए से संभव नहीं है| यानी लोकपाल सिर्फ ए-क्लास कर्मचारियों द्वारा किए गए घोटालों और घपलों की जांच कर सकेगा जबकि देखा जाए तो निचले स्तर पर कमोबेश अधिक भ्रष्टाचार है| इससे तो साफ़ है कि सरकार का प्रस्तावित लोकपाल विधेयक मात्र जनता को दिलासा देता दस्तावेज़ ही है|

कैबिनेट ने जिस लोकपाल बिल को मंजूरी दी है उससे साफ़ दिखता है कि उसमे राजनेताओं के हितों का भरपूर ध्यान रखा गया है| विधेयक के अनुसार शिकायत सुनने के लिए न तो कोई अलग सेल होगा; न ही भ्रष्टाचार की शिकायत करने वालों को किसी तरह की सुरक्षा प्रदान की जाएगी| अब सोचिए, इस तरह की परिस्थितियों में कौन भ्रष्टाचार की शिकायत करना चाहेगा? फिर लोकपाल किसी भी भ्रष्ट व्यक्ति या नौकरशाह को सज़ा नहीं सुना सकता| वह मामले की जांच कर मुद्दे को कोर्ट में ले जा सकता है| हालांकि लोकपाल के पास इतना अधिकार तो होगा ही कि वह भ्रष्ट नौकरशाहों की संपत्ति जब्त कर सके; पर वर्तमान राजनीतिक व्यवस्थाओं को देखकर इसमें भी संशय होता है|

ज़ाहिर है नेता और सरकारें कभी नहीं चाहेंगी कि एक मजबूत लोकपाल बने क्योंकि इससे उन्हीं का नुकसान है| यदि भारत में सख्त लोकपाल अस्तित्व में आता है तो देश के अधिकाँश नेताओं का असली चरित्र जनता के समक्ष उजागर हो जाएगा जिससे उनकी राजनीति पर ही प्रश्न-चिन्ह लग जाएगा और वे जेल की हवा खाने को बाध्य होंगे| सरकार ने जिस लोकपाल बिल के मसौदे को मंजूरी दी है उससे यह तो साबित हो गया है कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जिस इच्छा-शक्ति की आवश्यकता होती है; वह मौजूदा सरकार में तो कदापि नहीं है| अब तो ऐसा लगने लगा है मानो हमें जीवन-पर्यंत भ्रष्टाचार के इसी दलदल में अपना जीवन गुजारना पड़ेगा| सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने भी भ्रष्टाचार को अपनी मूक सहमति दे दी है| किसी ने भी अब तक लोकपाल पर अपना स्टैंड जनता-जनार्दन के समक्ष उजागर नहीं किया है| वैसे भी जब हमाम में सभी नंगे हों तो उम्मीद ही क्या की जा सकती है? सभी दल अपने-अपने राजनीतिक हितों को सर्वोपरि रखते हुए मात्र दोषारोपण की राजनीति कर रहे हैं मगर मजबूत लोकपाल के पक्ष में किसी की जुबान नहीं खुल रही|

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की लाचारी और बेबसी भी देखिये कि सरकार का मुखिया जो स्वयं लोकपाल जांच के दायरे में शामिल होना चाहता है किन्तु उसकी सरकार उसके सुझाव को दरकिनार करते हुए अपनी मनमानी कर रही है| यह तो सरासर लोकतंत्र की पराजय है| इससे दुनिया में निश्चित ही भारत की छवि धूमिल होगी| सरकार का एक ईमानदार मुखिया ही यदि भ्रष्टाचार से नहीं लड़ पाए; इससे बड़ी विडंबना देश के लिए क्या होगी|

अब जबकि सरकार ने लोकपाल को लेकर अपने पत्ते खोल दिए हैं और अन्ना भी १६ अगस्त से दोबारा आन्दोलनरत होने जा रहे हैं; देखना दिलचस्प होगा की आम आदमी किसका साथ देता है? वैसे अपने पहले आंदोलन में अन्ना को युवाओं का जो समर्थन मिला था और जिस तरह से आम आदमी भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर रुख अपनाने लगा है, इस बात की कम ही सम्भावना है कि अन्ना का भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने का आंदोलन कमज़ोर पड़ेगा| फिर भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि क़ानून हमेशा संसद में बनते हैं; सड़कों पर नहीं| अन्ना अपना आंदोलन शुरू कर भी लें तो बिना राजनीतिक दलों की सहमति के मजबूत लोकपाल का अस्तित्व में आना असंभव ही है| लोकपाल बिल पर अपने दोहरे चरित्र की वजह से केंद्र सरकार सहित सभी राजनीतिक दल पूरी तरह नाकारा ही साबित हुए है|

साभार :-दैनिक भास्कर

http://www.bhaskar.com/article/ABH-janlokpal-bill-analysis-2308759.html

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