Thursday, August 4, 2011

महंगाई पर निरर्थक बहस

संसद में महंगाई को लेकर जैसी चर्चा हुई उसे देखते हुए इस नतीजे पर आसानी से पहुंचा जा सकता है कि इस तरह की कथित गंभीर चर्चा से देश को कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। यदि संसद में भाषण देने से महंगाई काबू में आ सकती होती तो ऐसा न जाने कब हो जाता। पिछले कुछ वर्षो से संसद के प्रत्येक सत्र में महंगाई पर चर्चा हो रही है, लेकिन नतीजा शून्य है। सच तो यह है कि महंगाई कम होने के बजाय बेलगाम है। यह तब है जब केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व उन हाथों में है जिनकी पहचान अर्थशास्त्र के ज्ञाता के रूप में है। हालांकि महंगाई के मुद्दे पर संसद में जारी चर्चा का समापन होना शेष है, लेकिन विपक्ष के आरोपों पर केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने जिस तरह सफाई दी उससे यह साफ हो गया कि सरकार अभी भी अपनी जिम्मेदारी समझने के लिए तैयार नहीं है। यह न केवल क्षोभजनक, बल्कि आपत्तिजनक है कि सरकार ने एक बार फिर महंगाई के लिए पेट्रोलियम उत्पादों की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में वृद्धि को जिम्मेदार ठहरा दिया। कुछ समय पहले तक वह कमजोर मानसून को कसूरवार बताया करती थी और कभी-कभी अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को भी। संप्रग सरकार 2008 से महंगाई पर लगाम लगाने के खोखले आश्वासन देती आ रही है। जब भी महंगाई का सवाल सरकार को परेशान करता है वह उस पर काबू पाने के लिए एक नई तिथि की घोषणा कर देती है। अब इसमें संदेह नहीं कि केंद्रीय सत्ता उन कारणों की जानबूझकर अनदेखी करने पर तुल गई है जो मूल्यवृद्धि के लिए जिम्मेदार हैं। इससे इंकार नहीं कि महंगाई का एक कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थो के बढ़ते मूल्य भी हैं, लेकिन केवल वही महंगाई नहीं बढ़ा रहे। महंगाई बढ़ने का एक अन्य प्रमुख कारण कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दुर्दशा है। भारत कृषि प्रधान देश है और उसकी 70 प्रतिशत आबादी अभी भी गांवों में रहती है, लेकिन वैसी आर्थिक नीतियों का अभाव है जो कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर सकें। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दुर्दशा के लिए केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारें भी जिम्मेदार हैं। वे न तो केंद्रीय शासन पर कृषि क्षेत्र के उत्थान में सहायक बनने वाली नीतियों का निर्माण करने के लिए दबाव बनाने में सक्षम हैं और न ही अपने स्तर पर ऐसे कदम उठा पा रही हैं जिससे किसान आत्मनिर्भर हो सकें। भले ही सभी राजनीतिक दल खुद को किसानों और गांव-गरीबों का हितैषी बताते हों, लेकिन सच्चाई यह है कि वे ग्रामीण आबादी को महज एक वोट बैंक के रूप में देखते हैं। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र के उत्थान के लिए जो नीतियां बनती भी हैं उन पर सही ढंग से अमल नहीं होता। तमाम विपरीत स्थितियों से दो-चार होने के बावजूद यदि कभी किसान अन्न की पैदावार बढ़ाने में समर्थ हो जाते हैं तो उन्हें अपनी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता। उनकी मेहनत का लाभ बिचौलिये उठाते हैं। एक शर्मनाक तथ्य यह भी है कि भंडारण के अभाव में हर वर्ष लाखों टन अनाज सड़ जाता है। ऐसा आगे भी होगा, क्योंकि बार-बार की चेतावनी के बावजूद उपयुक्त नीतियों का निर्माण करने से बचा जा रहा है। जब महंगाई के मूल कारणों से ही मुंह चुराया जा रहा हो तब फिर उस पर लगाम लगने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717919774064984

No comments: