वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का यह कथन विचलित करने वाला है कि महंगाई को लेकर बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं। हो सकता है कि सत्ता में बैठे लोगों के लिए बेलगाम महंगाई परेशानी का कारण न बन पा रही हो, लेकिन कम से कम उन्हें उन लोगों की तो परवाह करनी चाहिए जो आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों को सहन नहीं कर पा रहे हैं। यह ठीक नहीं कि जब बढ़ती महंगाई के कारण आम आदमी के लिए जीवन-यापन करना मुश्किल होता जा रहा है तब उसे परेशान न होने की नसीहत दी जा रही है। यदि केंद्रीय सत्ता महंगाई पर लगाम नहीं लगा सकती तो फिर उसे आम जनता को नसीहत देने के मामले में तो संवेदनशीलता का परिचय देना ही चाहिए। यह आश्चर्यजनक है कि बढ़ती महंगाई को एक तरह से सही ठहराते हुए वित्तमंत्री ने यह भी याद दिलाया कि एक समय मुद्रास्फीति की दर 16 और 20 प्रतिशत थी। आखिर क्या मतलब है इस उदाहरण का? क्या वह यह कहना चाहते हैं कि जनता को मुद्रास्फीति की इस दर का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए? वित्त मंत्री ने महंगाई को विकास का पूरक बताते हुए जिस तरह यह कहा कि विकास होगा तो महंगाई भी होगी उससे तो यही लगता है कि आम जनता को मूल्यवृद्धि से छुटकारा मिलने वाला नहीं है। यह सही है कि विकास के क्रम में कभी-कभी मुद्रास्फीति को थामना मुश्किल हो जाता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि यह सिद्ध करने की कोशिश की जाए कि यदि महंगाई पर काबू पाने की कोशिश होगी तो फिर विकास नहीं हो सकेगा। वित्तमंत्री की मानें तो महंगाई का कारण कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विगत में सरकार की ओर से महंगाई के लिए अन्य कारणों का भी उल्लेख किया जा चुका है। कभी कमजोर मानसून को महंगाई के लिए दोषी ठहराया गया तो कभी अन्न की पैदावार को। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्य किसी न किसी स्तर पर मुद्रास्फीति की दर बढ़ने का कारण बनते हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या सरकार के नीति-नियंताओं के पास ऐसे उपाय नहीं जिससे मूल्यवृद्धि के इस कारण का निवारण किया जा सके? चिंताजनक केवल यह नहीं है कि महंगाई बढ़ती जा रही है और सरकार उस पर रोक लगाने में हर तरह से असफल है, बल्कि यह भी है कि वह लीक से हटकर कुछ करने के लिए तैयार नहीं। जब भी मुद्रास्फीति की दर बढ़ती है, रिजर्व बैंक ब्याज दरों में इजाफा कर देता है। पिछले डेढ़ वर्ष में 11 बार ब्याज दरों में वृद्धि की जा चुकी है। ऐसा लगता है कि आर्थिक मामलों के नीति-नियंता यह बुनियादी बात भी समझने के लिए तैयार नहीं कि महंगाई और विशेष रूप से खाद्य महंगाई बढ़ने का कारण खाने-पीने की वस्तुओं की आपूर्ति प्रभावित होना है। ये आपूर्ति कभी कम उत्पादन के कारण प्रभावित होती है और कभी भंडारण और वितरण व्यवस्था में गड़बड़ी के कारण। आर्थिक मामलों के नीति-नियंताओं को इस तथ्य से भी परिचित होना चाहिए कि कोई भी कर्ज लेकर खाने-पीने की वस्तुएं नहीं खरीदता। स्पष्ट है कि केवल ब्याज दरों में वृद्धि कर महंगाई पर काबू नहीं पाया जा सकता। यदि महंगाई के आगे सरकार का कोई जोर नहीं चल रहा तो फिर रह-रहकर ऐसे आश्वासन क्यों दिए जाते हैं कि अमुक माह तक उस पर काबू पा लिया जाएगा?
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111718538571958080
Friday, August 12, 2011
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