Friday, August 12, 2011

जश्न की वजहें भी कम तो नहीं

पत्रकार प्रशिक्षित रूप से मीन-मेख निकालने वाले होते हैं। वे आधे भरे गिलास को आधा खाली गिलास कहना पसंद करते हैं। लेकिन यह केवल पत्रकारों का ही शगल नहीं है। ऐसा लगता है कि इन दिनों पूरे देश में नकारात्मकता की लहर दौड़ रही है, जो इस दृढ़ विश्वास से उपजी है कि हम एक भ्रष्ट और कुप्रशासन से ग्रस्त देश में रह रहे हैं और इसमें हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए ज्यादा उम्मीदें नहीं की जा सकतीं।

जहां हम अपने 65वें स्वतंत्रता दिवस की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं यह भी लगता है कि स्वतंत्रता की मध्यरात्रि में हमारे पितृपुरुषों द्वारा देखे गए स्वप्न तेजी से दु:स्वप्न में बदलते जा रहे हैं। लेकिन क्या वाकई इस स्वतंत्रता दिवस पर हमारे पास जश्न मनाने के इतने कम कारण हैं?

हां, हम ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार सूचकांक में 87वीं पायदान पर खड़े हैं। हां, हमारे यहां हजारों करोड़ के घोटाले हो रहे हैं और जनता का पैसा लूटा जा रहा है। हां, हमें अपना काम करवाने के लिए अक्सर अफसरों को घूस खिलानी पड़ती है। लेकिन क्या भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई वाकई नाउम्मीदी से भरी हुई है? अन्ना हजारे और उनके जन लोकपाल आंदोलन को ही लें। यदि टीम अन्ना की बातें सुनें तो भरोसा हो जाएगा कि हमारे सभी नेता चोर हैं और उनमें लेशमात्र भी ईमानदारी नहीं है।

लेकिन शायद टीम अन्ना को भी वस्तुस्थिति समझनी चाहिए। ऐसे कितने देश हैं, जहां आप राजनेताओं को खुलेआम बुरा-भला कहें, मसौदे की प्रतियां जलाएं, सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोलें और इसके बावजूद आपके पास अपनी बात कहने की स्वतंत्रता और अवसर हों? हां, लोकपाल विधेयक के लिए हठी सरकार को राजी करने के लिए अन्ना को आमरण अनशन करना पड़ा, लेकिन अन्ना के अनशन के चार माह के भीतर ही संसद को प्रस्तावित भ्रष्टाचाररोधी कानून के स्वरूप पर बहस करने को विवश होना पड़ा है। क्या इससे यह साबित नहीं होता कि हमारा लोकतंत्र जीवंत है?

चलिए, अब हमारे बदनाम नेताओं की बात करते हैं। हां, कुर्सी पर बैठने के कुछ ही सालों में उनकी संपत्ति बढ़कर कई गुना हो जाती है और उनमें से अधिकांश राजनीति को महज कमाई का जरिया मानते हैं, लेकिन इतने नेताओं के बीच कोई एक नेता वह भी तो है, जो अपने क्षेत्र की बेहतरी के लिए अथक प्रयास करता है।

हां, निर्वाचन प्रक्रिया में धन की भूमिका कम करने के लिए हमें चुनाव सुधारों की सख्त दरकार है, लेकिन अगर चुनावों में सफलता का एकमात्र पैमाना धन-संपदा ही होता तो आज हमारे 544 सांसदों में से 315 वे होते, जिन्हें अधिकृत रूप से करोड़पति घोषित किया गया है। कई निर्वाचित जनप्रतिनिधि दूसरी बार चुनाव जीतने में नाकाम हो रहे हैं। यह तथ्य हमारे लिए संतोषप्रद हो सकता है कि देश के मतदाता प्रभावी रूप से अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने को तैयार हैं।

कानून-व्यवस्था पर भी एक नजर डालते हैं। हां, निम्नतर न्यायपालिका चिंतनीय स्थिति में है और लंबित मामलों के पुलिंदों से निजात पाने के लिए हमें अधिक न्यायाधीशों की जरूरत है। और हां, हमें पुलिस सुधारों की भी शिद्दत से दरकार है। लेकिन क्या हमें इस बात पर खुशी नहीं जतानी चाहिए कि लाखों भारतीयों का कानून पर भरोसा आज भी बरकरार है और वे आज भी सड़क पर लड़ने के बजाय अदालत में मुकदमा लड़ने को प्राथमिकता देते हैं? ऐसे न्यायाधीश भी बहुतेरे हैं, जिन्होंने समाज के वंचित तबके के हितों की रक्षा करने के लिए अद्भुत तत्परता और क्षमता का परिचय दिया है।

मीडिया पर भी हाल के दिनों में पक्षपात, सनसनीवाद, पेड न्यूज और इससे भी बुरे आरोप लगे हैं। हां, मीडिया में कुछ लोग ऐसे जरूर हैं, जिन्होंने अपने नैतिक दिशासूचक गंवा दिए हैं, लेकिन हमें यह भी संतोष होना चाहिए कि मीडिया अब भी एक सामाजिक प्रहरी की भूमिका निभा रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो पिछले दिनों उजागर हुए इतने घपले और घोटाले नजरअंदाज कर दिए गए होते।
यकीनन, निराश होने के कई कारण हैं।

एक तरफ किसान आत्महत्या कर रहे हैं और लोग भूखे सोने को मजबूर हैं तो दूसरी तरफ खुले में अनाज सड़ रहा है। लेकिन यहां इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आठ फीसदी विकास दर ने गरीबी के दायरे से बाहर निकलने में लाखों लोगों की मदद भी की है। नक्सलवाद अब भी एक समस्या बना हुआ है और कश्मीर का ऐतिहासिक घाव अब नासूर बनता जा रहा है। लेकिन नक्सली अपने राज्यविरोधी मंसूबे पूरे कर पाने में अब भी नाकाम हैं, वहीं कश्मीरी अलगाववादियों से संवाद प्रक्रियाएं बताती हैं कि हम जहां ठोस रुख अख्तियार करना जानते हैं, वहीं हमें समन्वय की राह चलना भी आता है।

लेकिन स्वतंत्र भारत का वास्तविक गौरव उसके लोगों में यानी हम सबमें है। एक उपमहाद्वीप के आकार वाले इस विशाल देश के लिए पिछले 64 सालों में अपनी राह गंवा देना और जाति, धर्म, समुदाय के विभाजनों से परास्त हो जाना बहुत आसान होता। विभाजन अब भी हैं और कई मौकों पर वे भयानक हिंसा का कारण भी बने हैं, लेकिन घृणा और कट्टरता की हर घटना के साथ ही इस देश में सहअस्तित्व और सौहार्द की भी मार्मिक कहानियां हैं।

भारत की यात्रा करें तो इस सफर में आपका परिचय कई वास्तविक नायक-नायिकाओं से होगा, जिन्होंने एक साधारण जीवन बिताते हुए देश के लिए असाधारण योगदान दिया है। आरके लक्ष्मण के ‘आम आदमी’ की ही तरह वे नामहीन हो सकते हैं, लेकिन आने वाली पीढ़ी के लिए एक बेहतर भारत के विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
Source: राजदीप सरदेसाई | Last Updated 00:11(12/08/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-not-less-reason-to-party-2348370.html

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