Tuesday, August 2, 2011

देश विरोधी आचरण

फई के सम्मेलनों में भाग लेने वाले भारतीय बुद्धिजीवियों की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं बलबीर पुंज


आप उन लोगों के बारे में क्या कहेंगे जो जिहादी एजेंडे से लैस पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आइएसआइ से पोषित कार्यक्रम के आधार पर भारत में बहुलतावादी समाज और मानवाधिकारों की रक्षा करने का दम भरते हैं? ये वही नाम हैं, जो राष्ट्रवादी संगठनों (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि) को संाप्रदायिक ठहराकर उनके कार्यक्रमों में भाग लेने से इंकार करते हैं, किंतु जिहादी संगठनों के मंच से मानवाधिकारों का परचम लहराने में देर नहीं लगाते। हाल में अमेरिका में कश्मीरी-अमेरिकी परिषद (कश्मीरी सेंटर) के कार्यकारी निदेशक गुलाम नबी फई को कश्मीर पर पाकिस्तान के एजेंडे के प्रचार के लिए अमेरिकी कांग्रेस के सांसदों को चंदा देने और कई सम्मेलन आयोजित करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। एफबीआइ के अनुसार फई की गतिविधियों के संचालन का खर्च आइएसआइ वहन करती है। वह इसके राजनीतिक अभियान के लिए प्रति वर्ष 40 लाख डॉलर (18 करोड़ रुपये) देती है। कश्मीरी-अमेरिकन काउंसिल में फई जो भाषण देता था या उसके बैनर तले जो वक्तव्य जारी करता था उसका 80 प्रतिशत मसौदा भी आइएसआइ तैयार करती थी। फई के अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में भारतीय मानवाधिकारी, बुद्धिजीवी, पत्रकार और कश्मीरी अलगाववादी नेताओं का शामिल होना आइएसआइ के भारत विरोधी मानसिकता को मिल रहे स्थानीय समर्थन को ही रेखांकित करता है। फई द्वारा आयोजित समारोह में शामिल हुए बुद्धिजीवी जाने-माने चेहरे हैं, जो मुसलमानों के मामले में तो मानवाधिकार, पंथनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ढाल खड़ाकर कट्टरपंथियों के समर्थन में सड़कों पर उतर पड़ते हैं, किंतु जब पीडि़त हिंदू समुदाय का हो तो मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता जाने कहां गायब हो जाती है? उक्त बैठक का एकमात्र लक्ष्य कश्मीर मुद्दे को भारत के हाथ से छीनना था। बैठक में मौजूद रिपब्लिकन पार्टी के डेन बर्टन कश्मीर मुद्दे को अमेरिकी संसद में उठाने के प्रबल समर्थक रहे हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि भारत के इन बुद्धिजीवियों को फई के असली एजेंडे का ज्ञान नहीं था? हो सकता है कि उन्हें फई के वित्तपोषण के श्चोत की जानकारी नहीं हो, किंतु जिस विचार गोष्ठी में आप भाग लेने जा रहे हों, उसके विषय और उसके आयोजक की पृष्ठभूमि से कोई भला कैसे अनजान रह सकता है? आइएसआइ की भारत विरोधी गतिविधियां जगजाहिर हैं। भारत को हजार घाव देने के एजेंडे के तहत वह आतंकवादी संगठनों सहित भारत में सक्रिय अलगाववादी समूहों का वित्तपोषण और उन्हें सैन्य सहायता उपलब्ध कराती रही है। यह आइएसआइ का भूमि के ऊपर दिखने वाला चेहरा है, किंतु फई जैसे बुद्धिजीवी उसके भूमिगत चेहरे हैं, जो सभ्य समाज के शुभचिंतक होने का दंभ भरते हैं। उपरोक्त सभी भारतीय प्रतिनिधि अपने-अपने क्षेत्र के सिद्धहस्त हैं और फई को यह भलीभांति ज्ञात था कि पाकिस्तानी एजेंडे के अनुरूप कश्मीर पर उनके वक्तव्य का अंतरराष्ट्रीय प्रभाव होगा। इन बुद्धिजीवियों के रुख के कारण भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर मुद्दे पर मुंह चुराना पड़ रहा था और इसीलिए उसकी काट के लिए सरकार को विशेष तौर पर कश्मीर कैडर के आइएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्ला को वाशिंगटन में कम्युनिटी अफेयर्स मिनिस्टर के रूप में नियुक्त करना पड़ा था। विडंबना यह है कि कल जो बुद्धिजीवी पाकिस्तानी एजेंडे का अंग थे, उनमें से कुछ आज संप्रग सरकार के अंग हैं। कश्मीर समस्या के निपटान के लिए सरकार द्वारा भेजे गए प्रमुख वार्ताकार ने फई के समारोह में शिरकत की। उनसे भारतीय हितों के अनुरूप समस्या के ईमानदार निवारण की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? विगत जनवरी माह में सरकार की ओर से कश्मीर भेजे गए उक्त प्रमुख वार्ताकार ने भाजपा को जम्मू-कश्मीर पर राजनीति बंद करने की सलाह दी थी। जम्मू-कश्मीर की समस्या घाटी के अलगाववादियों के कारण ही बेकाबू हुई है। शेष जम्मू-कश्मीर के लोग अमनपसंद और भारतीय सत्ता अधिष्ठान पर विश्वास रखने वाले हैं। घाटी की मस्जिदों से भारत विरोधी नारे लगाए जाते हैं, भारत की मौत की कामना की जाती है और पूरे प्रदेश में इस्लामी निजामत लाने के लिए आजादी की लड़ाई लड़ने का जुनून पैदा किया जाता है। घाटी में तिरंगे को जलाकर पाकिस्तानी झंडा लहराया जाता है। कश्मीरी पंडित जम्मू-कश्मीर की संस्कृति के मूल वाहक थे। आज पूरी घाटी कश्मीरी पंडितों से खाली है। उनके मंदिर या तो बंद हैं या ध्वस्त कर दिए गए। उनके रिहायशी मकानों पर जिहादियों का कब्जा है। जम्मू-कश्मीर की समस्या पाकिस्तान प्रायोजित अलगाववादियों की देन है। जम्मू-कश्मीर की समस्या पर विचार करते हुए इन घटनाक्रमों से क्या आंखें मूंद ली जाएं? सरकार की ओर से नियुक्त उक्त प्रमुख वार्ताकार वस्तुत: जिस मानसिकता से ग्रस्त हैं वह पाकिस्तानी एजेंडे का ही विस्तार है। पाकिस्तान कश्मीर मसले पर तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की बात लंबे समय से उठाता रहा है। कुछ समय पूर्व पाकिस्तान ने कश्मीर के कुछ हिस्सों को स्वशासन का अधिकार देने का कुटिल प्रस्ताव रखा था। इसके लिए उसने संयुक्त राष्ट्र से मध्यस्थता की अपील की थी। संयुक्त राष्ट्र के अधीन सरकार के गठन का अर्थ होगा कि भारत संयुक्त राष्ट्र के पुराने प्रस्तावों को स्वीकार कर रहा है। राष्ट्र संघ के मध्यस्थ होने के नाते ओवन डिक्सन ने 1950 में जनमत संग्रह कराने की बात की थी और सुझाव दिया था कि जो जिस हिस्से में जीते, उसे वह भाग दे दिया जाए। भारत इस पर सहमत था, किंतु पाकिस्तान के दबाव पर बाद में संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में केवल घाटी में जनमत संग्रह कराने पर जोर देने के कारण भारत ने डिक्सन के संशोधित प्रस्ताव को नकार दिया था। पाकिस्तान लंबे समय से अपने उसी एजेंडे को साकार करने में लगा है। फई द्वारा आयोजित वैचारिक गोष्ठियों में भारतीय बुद्धिजीवियों की भागीदारी से देश में प्रचलित सेक्युलर पाखंड का ही खुलासा होता है। यह विकृति समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त है। जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों के सुर में सुर मिलाते हुए कुछ बुद्धिजीवी दिल्ली की धरती पर सत्ता अधिष्ठान को चुनौती देते हैं। सरकार मौन रहती है। संसद पर हमला करने वाले अफजल की फांसी की सजा केवल इसीलिए लंबित रखी गई है, क्योंकि इससे मुस्लिम समाज के कट्टरपंथियों के बिदक जाने का खतरा है। कट्टरपंथियों के तुष्टीकरण और इस्लामी जिहाद के कड़वे सच को ढकने के लिए सेक्युलर खेमा भगवा आतंक का हौवा खड़ा करता है। ऐसे शुभचिंतकों के रहते यदि पाकिस्तान अपने नापाक इरादों में कामयाब हो रहा हो तो आश्चर्य कैसा? (लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111717743274313312

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