Friday, August 12, 2011

शासन की कांग्रेसी शैली

कांग्रेस पर संवैधानिक संस्थाओं को जानबूझकर निशाना बनाने का आरोप लगा रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

वेदांत में ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या। सोनिया-कांग्रेस में सत्ता सत्य है और संविधान मिथ्या। कांग्रेसी समझ और आचरण में बहुमत की सरकार ही संप्रभु है। संविधान और सारी संवैधानिक संस्थाएं इस सरकार की गुलाम है। संसदीय बहुमत ही सर्वशक्तिमान सत्ता है, सत्ता का मतलब कांग्रेस है और कांग्रेस का मतलब सोनिया गांधी है। सो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद, राज्यपाल, संसद, संसद की समितियों, न्यायपालिका, निर्वाचन आयोग, नियंत्रक महालेखाकार, मुख्य सतर्कता आयुक्त, अनुसूचित जाति आयोग, पुलिस और प्रशासन-सभी संवैधानिक संस्थाओं को सत्ता के साथ कदमताल करना चाहिए। वे सत्ता के सुर में बाजा बजाएं तो ठीक वरना कांग्रेस उन्हें उनकी हैसियत बताने को तत्पर है। सोनिया की कांग्रेस ने प्रधानमंत्री संस्था की हैसियत घटाई। मनमोहन सिंह अपने पूरे कार्यकाल में वास्तविक संवैधानिक प्राधिकार से वंचित रहे। संसदीय समितियां संवैधानिक जनतंत्र की प्राण हैं। कांग्रेस ने लोकलेखा समिति की बेइज्जती की। संचार घोटाले की जांच करने वाली संयुक्त संसदीय समिति की प्रतिष्ठा भी कांग्रेस ने घटाई। कांग्रेस सभी संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा महिमा पर हमलावर है। भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) पर भी हमला है। स्वयं भ्रष्टाचार की सारी हदें और सरहदें तोड़ने वाली कांग्रेस कैग को उसकी हदें बता रही है। कैग संवैधानिक संस्था है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 149 से 151 तक उसके प्राधिकार के उल्लेख हैं। जनादेश की दुहाई देने वाली कांग्रेस इसी कानून में सीएजी का जनादेश क्यों नहीं पढ़ती? कैग सरकार और संबंधित विभागों द्वारा बनाई गई नियमावली की परिधि में ही खर्चो का परीक्षण करता है। बावजूद इसके कांग्रेस कैग पर हमलावर है तो निष्कर्ष साफ हैं कि कांग्रेस घोटालों में कोई भ्रष्टाचार नहीं देखती। वह लोकधन के दुरुपयोग के संबंध में किसी भी निगरानीकर्ता की टिप्पणी या जांच बर्दाश्त नहीं कर सकती। वह संवैधानिक संस्थाओं पर भी पलटवार करती है। राष्ट्रपति भारत का राजमुकुट है, महामहिम है। कांग्रेस ने राष्ट्रपति के निर्वाचन (2007) के समय पद की महत्ता और गरिमा के बजाय अपने उम्मीदवार के महिला होने का प्रचार किया। राष्ट्रपति राज प्रमुख नहीं होता, राष्ट्र प्रमुख होता है। उसे राजनीतिक विवादों से दूर रखना चाहिए। राज्यपाल भी संवैधानिक संस्था हैं। कांग्रेस ने राज्यपालों को हिज मास्टर्स वॉयस बनाया। केंद्रीय सत्ता अपने राज्यपाल ही चाहती है। मनमोहन सिंह ने सन 2004 में खास विचारधारा के आरोप में चार राज्यपाल हटवा दिए थे। मानवाधिकार आयोग प्रतिष्ठित संस्था है, अध्यक्ष केजी बालकृष्णन पर गंभीर आरोप हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राजस्व विभाग से केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड से जांच कराने का पत्र भी लिखा था, लेकिन वह डटे हुए हैं। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त थॉमस की नियुक्ति में स्वयं प्रधानमंत्री पर भी आरोप लगे। न्यायालय ने नियुक्ति को गलत बताया, तभी वह हटाए गए, लेकिन कांग्रेस ने नैतिकता का नया पाठ पढ़ाया कि कानूनी रूप से गलत को भी नैतिक रूप से गलत नहीं कहा जा सकता। सुरेश कलमाड़ी ने राज्य सरकार की आंखों के सामने भ्रष्टाचार किया। वह जेल गए, लेकिन कांग्रेस उसी भ्रष्टाचार को लेकर कैग पर हमलावर है। निर्वाचन आयोग की गरिमा कांग्रेसी कृपापात्र नवीन चावला से गिरी। न्यायमूर्ति सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोग का दुरुपयोग कौन नहीं जानता। कश्मीर समस्या के वार्ताकार पत्रकार दिलीप पड़गांवकर भी इसी सूची में हैं। न्यायपालिका भारत के जन का धीरज और आस्था है, लेकिन सोनिया-कांग्रेस और केंद्र सरकार न्यायपालिका से खार खाए हैं। अनाज को सड़ने देने के बजाय गरीबों में बांटने की टिप्पणी से चिढ़ी सरकार ने न्यायालय को सीमा बताने की गलती की। दूरसंचार घोटाला, राष्ट्रमंडल, कालाधन आदि मसलों पर न्यायालय ने संवैधानिक दायित्वों का ही निर्वहन किया। वोट के बदले नोट पर भी कोर्ट की सक्रियता से ही जांच बढ़ी, लेकिन ऐसे सारे मामलों में केंद्र ने कभी कोई प्रायश्चित नहीं किया। सन 2007 में न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में भी इन्हीं प्रधानमंत्री ने कोर्ट को उपदेश देने का प्रयास किया था कि न्यायिक सक्रियता और न्यायिक कार्यक्षेत्र के बीच एक पतली विभाजन रेखा है। संवेदनशील मुद्दों को सावधानी से सुलझाना चाहिए। इशारा साफ था कि कोर्ट न्यायिक कार्यक्षेत्र से बाहर जा रहे हैं। बेशक बहुमत सरकार चलाता है, लेकिन संविधान की सारी संस्थाए भी स्वतंत्र रूप से अलग-अलग सक्रिय रहती हैं। सरकार और सारी संस्थाएं संविधान से ही शक्ति पाती हैं। संविधान का आदेश चुनावी जनादेश के ऊपर होता है। संविधान में विधि के समक्ष समता का मौलिक अधिकार है। सोनिया की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक में हिंदुओं के मौलिक अधिकार के साथ-साथ संघीय ढांचे पर भी हमला है। केंद्र या संसद संविधान से बड़े नहीं हैं। अमेरिका ने न्यायालयों को शक्ति दी और भारत ने संविधान को। सरकार छोड़ कोई भी संवैधानिक संस्था सीमा उल्लंघन नहीं करती। बावजूद इसके कांग्रेसी सत्ता खुद पाप करके दोष संवैधानिक संस्थाओं पर डालती है।
(लेखक उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111718538572087112

No comments: