Wednesday, August 24, 2011

अब कुछ भारतीयों से आजादी दिलाएं

हमने 15 अगस्त, 1947 को पटकथा का केंद्रीय भाव खो दिया था। हमने सोच लिया कि एडविना और लॉर्ड लुईस माउंटबेटन के महल पर तिरंगा लहराना ही महात्मा गांधी द्वारा 1919 में शुरू की गई स्वतंत्रता परियोजना के अंत का प्रतीक है। यह तो एक दूसरे और उतने ही मुश्किल स्वातं˜य संघर्ष की शुरुआत थी। पहला ब्रिटिशों के विरुद्ध रहा था। दूसरा भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष साथी भारतीयों के खिलाफ होगा।

जब मैं उन बेशुमार चीजों पर मनन करता हूं, जिनसे हमें अब भी आजादी की जरूरत है, तो वर्तमान और अतीत अपनी प्रमुखता के लिए होड़ करते नजर आते हैं। इस सूची में सबसे ऊपर की तरफ है, भूख। हमें इस भूख को ग्रामीण और जनजातीय भीतरी क्षेत्रों में नहीं खोजना होगा, जहां माओवादियों ने जनसमूह को विचारधारा नहीं, मानव अधिकारों के नाम पर जुटाया है : इसकी दरकार एक कृशकाय और उत्पीड़ित आत्मा को केवल जोड़े रखने के लिए महज पर्याप्त खाने के अधिकार से ज्यादा बड़ी हो सकती है? माओवादियों की गोलाबारी अब भी केवल टरटराहट ही है। यह भूख अब तक गुस्से में तब्दील नहीं हुई है। उस दिन- और रात उदासीन अमीर व आत्मसंतुष्ट मध्यवर्ग को भगवान बचाए, जब गरीब ने तय कर लिया कि जिनके पास कुछ नहीं है, उनके पास खोने को भी कुछ नहीं है।

गरीब कोई बहुत दूर की हकीकत नहीं हैं। वे भारत के सबसे ज्यादा बिगड़ैल और आत्मसंतुष्ट शहर, दिल्ली की राहों और किसी छोटे-मोटे शहर को खरीद सकने की कीमत पर बने गगनचुंबी अपार्टमेंट्स के सामने जमीन पर सोते हैं। गलियां बच्चों की उन पीढ़ियों का एकमात्र घर हैं, जो भीख नहीं मांग रहे होते, तब हंसने की कुव्वत रखते हैं। बेघर बच्चे के लिए उध्र्वगति क्या हो सकती है? कालकोठरी की छत? तिहाड़ जेल पहुंचने वाले 90 फीसदी किशोरों के पास कुछ भी नहीं होता- पहनी हुई शर्ट के अलावा दूसरी शर्ट भी नहीं। आजादी के साढ़े छह दशकों के बाद, कालकोठरी ही एकमात्र घर है, भारत उनके लिए जिसकी पेशकश करता है।

मैं अनावश्यक रूप से कड़वाहट भरा नहीं लगना चाहता। हमें 1947 में एक ऐसा भारत मिला, जहां पूरब में तीन बरस के भीतर 40 लाख लोग अकाल के कारण काल कलवित हो चुके थे। इसकी सबसे ज्यादा मार बंगाल पर थी। हमने अंग्रेजी आर्थिक नीतियों के नतीजे, अकाल को पीछे छोड़ दिया है- पीड़ादायक स्मृति, जो अब करोड़ों परिवारों के व्यक्तिगत इतिहास तक सीमित है। लेकिन यह उन आधा अरब लोगों के लिए मामूली सांत्वना ही है, जो अब भी अभाव में जीते हैं। उनकी उम्मीदें 20 की उम्र में उड़नछू हो जाती हैं और दांत 40 में चले जाते हैं। और उनकी जिंदगियां बहुत लंबे समय तक कुम्हलाई हुई नहीं रह पातीं। यह आजादी की परियोजना है, जिस पर अगले दशक के दौरान समूचे भारत का ध्यान होना चाहिए। यह आखिरी मौका है और आखिरी जिम्मेदारी, उस पीढ़ी की, जिसे अंग्रेजों के जाने के बाद 1947 में जन्म लेने का सौभाग्य मिला।

आधी रात की पीढ़ी की ये संतानंे अपनी जीवन संध्या पर हैं और उनके इरादे एकदम साफ हैं। वे भ्रष्ट भारतीयों से आजादी चाहते हैं। यह विश्वास करना मूखर्तापूर्ण होगा कि सिर्फ दूसरे लोग ही भ्रष्ट हैं। अगर भ्रष्टाचार सिर्फ शक्तिशाली मंत्रियों तक ही सीमित होता, तो जेलों में अपराधियों के लिए काफी जगह खाली होती। भ्रष्टाचार मारक है, क्योंकि इसकी जड़ें प्राधिकार के सबसे निचले स्तर तक व्याप्त हो चुकी हैं। पासपोर्ट कार्यालय का क्लर्क, जो आपके दुख से भी सौ रुपए का नोट दुह लेता है।

जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय का बाबू, जो आपको कानूनी तौर पर मिलने वाली चीज भी आपकी जेब से कुछ फीसदी लिए बगैर नहीं देता। कॉन्स्टेबल, जो हर नियम-कायदे को अपने फायदे के रूप में देखता है। हर गड्ढा, जो आप देखते हैं, वह भ्रष्टाचार की अंगूठा निशानी है : क्या आपको हैरानी होती है कि क्यों हमारी सड़कें पहली ही बारिश के बाद युद्ध का मैदान बन जाती हैं, जहां हमें हर पल जूझना होता है? क्यों बारिश लंदन, इस्तांबुल या सिंगापुर की सड़कों की गत नहीं बिगाड़ती, जहां दरअसल हर दोपहर बारिश होती है?

मुक्ति की सूची काफी लंबी है। भारतीय असमानता, पाखंड, चापलूसी और मूर्खता से आजादी चाहते हैं। चापलूसी का धूर्त और मक्कार भ्रष्टाचार इन बीमारियों में संभवत: बदतरीन है, क्योंकि यह नेता के अभिमान की पुष्टि के लिए सत्य को तोड़-मरोड़ देता है। एक दृष्टांत तत्काल मन में आता है, लेकिन इस युवा आशा को ही बार-बार रटना भी अन्याय ही होगा। हर पार्टी इस अधमता की बराबर दोषी है।

महात्मा गांधी, जिन्होंने 15 अगस्त को संभव कर दिखाया, उस दिन का जश्न मनाने के लिए नैतिक इच्छा नहीं जुटा सके, जब हमारे तिरंगे ने यूनियन जैक की जगह ली थी। वे दिल्ली में मग्न मौजियों के बीच नहीं थे। वे कोलकाता में थे- भारतीयों को भारतीयों से बचा रहे थे। जब बीबीसी ने बेलगाछिया के एकांत बसेरे में उनका इंटरव्यू लिया, तो वे जश्न का एक वाक्य तक नहीं ढूंढ़ पाए। गांधी 1919 और 1920 में कहीं ज्यादा खुश व्यक्ति थे। वे जानते थे कि जब लोग उठ खड़े हुए, तो सवाल सिर्फ यह रह जाएगा कि आजादी कब मिलेगी, न कि यह मिलेगी या नहीं। वे एक-चौथाई सदी आगे देख सकते थे। शायद 1947 में गांधी आधी सदी आगे देख सकते थे। गांधी आधुनिक भारत की महान उपलब्धियों पर मुस्कराहट की नजर डाल चुके होंगे, लेकिन उन्होंने तब तक हमें शांति से सोने नहीं दिया होता, जब तक भूख और भ्रष्टाचार मातृभूमि को परेशान किए हुए हैं।

लेखक द संडे गार्जियन के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं।

Source: एम।जे. अकबर | Last Updated 02:02(14/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-indian-independence-august-2353938.html

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