Friday, August 5, 2011

आम धारणा की दोधारी तलवार

सियासी हलचलों के इस मानसून में किसी मंत्री को कब अपने पद से इस्तीफा देना चाहिए? कुछ साल पहले मैंने यही सवाल तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव से एक टेलीविजन बहस में पूछा था। एक भीषण रेल हादसे के बाद लालू को यह सलाह दी जा रही थी कि वे अपने प्रतिष्ठित पूर्ववर्ती लाल बहादुर शास्त्री का अनुसरण करते हुए पद से इस्तीफा दे दें। लालू, जिनके पास कभी शब्दों का टोटा नहीं होता, ने पलटकर जवाब दिया था: ‘जनता ने हमें मंत्री पद की जिम्मेदारी संभालने के लिए चुना है, जिम्मेदारी से दूर भागने के लिए नहीं!’ जाहिर है, लालू ने इस्तीफा नहीं दिया।

देखा जाए तो 1956 में रेल हादसे के बाद शास्त्री द्वारा मंत्री पद से इस्तीफा देना अतिरंजनापूर्ण था, लेकिन, जैसा कि पंडित नेहरू ने संसद को याद दिलाया था, उनका त्यागपत्र स्वीकार करना एक ‘नितांत निष्ठावान व्यक्ति’ के प्रति आदरांजलि थी। यकीनन, वह एक अलग ही दौर था। तब ‘नैतिकता’ और ‘निष्ठा’ जैसे शब्दों के मायने होते थे। उस दौर में किसी घोटाले की भनक लगने पर ही मान लिया जाता था कि संबंधित मंत्री को इस्तीफा देना होगा।

वर्ष 1957 में जब एलआईसी को अनुचित रूप से शेयर्स बेचने के आरोप में वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी ने इस्तीफा दिया था, तब उनके विरुद्ध कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं थे। उनके कार्यकाल के दौरान उनके मंत्रालय में घोटाले का होना ही त्यागपत्र के लिए पर्याप्त कारण मान लिया गया था। इसकी तुलना शिबू सोरेन से करें, जो हत्या के मामले में गिरफ्तारी वारंट जारी होने के छह माह के भीतर ही जमानत मिलने पर पुन: कैबिनेट में लौट आए थे।

इसी तरह जयललिता का उदाहरण लें, जिन पर भ्रष्टाचार के एक मामले में मुकदमा चल रहा है, लेकिन इसके बावजूद वे पुन: तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बन गईं। या फिर मायावती का ही उदाहरण लें, जिन पर आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में सर्वोच्च अदालत में मुकदमा चल रहा है, लेकिन इसके बावजूद वे उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री बनी हुई हैं।

लेकिन नई राजनीतिक नैतिकता कहती है कि प्रथम दृष्टया साक्ष्य काफी नहीं हैं। मंत्री केवल तभी इस्तीफा दे, जब उसे कानून द्वारा दोषी ठहरा दिया जाए। चूंकि अभियोजन और दोषसिद्धि की प्रक्रिया बहुत लंबी और जटिल होती है, इसलिए बहुतेरे राजनेता अपना मंत्रालयीन कार्यभार संभाले रहते हैं और अदालत में बरसों मुकदमा चलता रहता है। इसीलिए अधिकांश राजनेता महज यह कहकर बच जाते हैं कि ‘कानून का फैसला सर्वोपरि होगा।’

न्याय प्रणाली की इस धीमी गति के प्रति उपजे जनाक्रोश के कारण ही उस परिवेश का निर्माण हुआ है, जिसमें मीडिया, यदि एक भूले-बिसरे प्रधानमंत्री के शब्दों का इस्तेमाल करें तो, ‘फरियादी, अभियोजक और न्यायाधीश’ की भूमिका एक साथ निभा रहा है। दोष सिद्ध होने तक आरोपी को निर्दोष मानने का शास्त्रीय कानूनी सिद्धांत अब उलट चुका है।

अब आरोपी को तब तक दोषी ही माना जाता है, जब तक कि वह स्वयं को निर्दोष साबित न कर दे। अब टेलीविजन स्टूडियो कोलाहल भरे कोर्टरूम और न्यूज एंकर (जिनमें यह स्तंभकार भी सम्मिलित है) परम न्यायाधीश बन गए हैं। निष्कर्ष यह है कि यदि किसी घोटाले पर पर्याप्त मात्रा में ‘सराउंड साउंड’ निर्मित किया जाए तो इस्तीफों के लिए दबाव बनाया जा सकता है।

इसका अर्थ यह है कि अब लड़ाई जनता की अदालत में हो रही है, जहां कानूनी पेचीदगियों की तुलना में आम धारणाओं का ज्यादा महत्व है। सामान्य परिस्थितियों में कैग रिपोर्ट के आधार पर ए राजा को पद नहीं छोड़ना पड़ता, क्योंकि कैग की रिपोर्ट अमूमन मंत्रियों और अधिकारियों को ‘अभियुक्त’ ही ठहराती हैं। लेकिन राजा के मामले में कैग की रिपोर्ट ने उन व्यापक धारणाओं की पुष्टि कर दी कि निजी फायदे के लिए टेलीकॉम मंत्रालय का दुरुपयोग किया गया था।

इसी तरह पूर्व सीडब्ल्यूजी प्रमुख सुरेश कलमाडी को केस में चार्जशीट दायर किए जाने से भी पहले दोषी मान लिया गया था, क्योंकि ‘आम धारणा’ यही थी कि उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स के अनुबंधों का मनमाना इस्तेमाल किया। इसके विपरीत दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की सरकार को शुंगलू पेनल द्वारा दोषी ठहराए जाने के बावजूद वे पद पर बरकरार हैं, क्योंकि उन्हें ईमानदार और मेहनती मुख्यमंत्री ‘माना’ जाता है।

सार्वजनिक जीवन में आम धारणाएं दोधारी तलवार की तरह हैं। एक तरफ तो वे निर्लज्ज राजनेताओं पर दबाव बनाकर उन्हें इस्तीफा देने को मजबूर कर सकती हैं (येदियुरप्पा अवैध खनन के विरुद्ध संघर्ष के लिए भले ही नोबेल पुरस्कार की चाह रख सकते हों, लेकिन लोकायुक्त द्वारा भ्रष्ट ठहराए जाने के बाद वे अपनी विश्वसनीयता गंवा देते हैं)। वहीं दूसरी तरफ तथ्य और आरोप, सच और प्रचार के बीच की सीमारेखा धुंधलाते ही बेकाबू शब्दबाण क्षणभर में किसी की भी चरित्र हत्या कर सकते हैं।

पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर का ही उदाहरण लीजिए। उनके विरुद्ध कोई कानूनी मामला नहीं था, इसके बावजूद महज धारणाओं के आधार पर ही उन्हें पद गंवाना पड़ा। वे इसलिए भी एक आसान शिकार साबित हुए, क्योंकि वास्तव में उनका कोई राजनीतिक जनाधार नहीं था। वहीं विलासराव देशमुख अब भी कैबिनेट मंत्री बने हुए हैं। थरूर को त्यागा जा सकता था, लेकिन देशमुख को नहीं, क्योंकि वे राजनीतिक हैवीवेट हैं।

लिहाजा हम फिर अपने मूल प्रश्न की ओर लौटते हैं: किसी मंत्री को कब इस्तीफा देना चाहिए? प्रणालीगत विश्वसनीयता यह मांग करती है कि वैधानिक और नैतिक मानदंड आम नागरिकों की तुलना में उन लोगों के लिए ज्यादा कड़े होने चाहिए, जो सार्वजनिक जीवन में हैं। एक आम नागरिक को कभी इतनी सूक्ष्म जांच-पड़ताल का सामना नहीं करना पड़ेगा, जिसका सामना सत्ता में बैठे लोगों को करना पड़ता है। फिलवक्त सत्ताधीशों को ‘निर्दोष साबित होने तक दोषी’ माने जाने के जोखिम के साथ ही जीना पड़ेगा। हां, हम जरूर न्याय करने को आतुर भीड़ का हिस्सा होने से इनकार कर सकते हैं, जो बिना किसी सुनवाई के फैसले सुनाने को तत्पर है।
Source: राजदीप सरदेसाई | Last Updated 00:05(29/07/11)

http://www.bhaskar.com/article/ABH-general-perception-of-the-double-edged-sword-2302288.html

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