Wednesday, August 24, 2011

जनता को चिढ़ाती सरकार

जब सरकार अपनी निष्कि्रयता से देश को चिढ़ाने पर आमादा हो तब अन्ना को आक्रामक होने से बचने की सलाह दे रहे हैं राजीव सचान

जनलोकपाल के लिए अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर केंद्र सरकार सक्रियता दिखाने के नाम पर जो कुछ कर रही है उसे निष्कि्रयता के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। वह अन्ना से बात तो करना चाहती है, लेकिन चोरी-छिपे। वह लेन-देन के संकेत दे रही है, लेकिन सरकारी लोकपाल विधेयक वापस लेने से इंकार कर रही है। प्रधानमंत्री ने बातचीत के दरवाजे तो खोल दिए, लेकिन इन दरवाजों के पीछे कोई नजर नहीं आ रहा। टीम अन्ना सरकार पर दबाव इसलिए बढ़ा रही है, क्योंकि उसे और कोई भाषा समझ में नहीं आती। वह हर मामले और खासकर भ्रष्टाचार के मामले में तभी कोई कदम उठाती है जब चौतरफा घिर जाती है और उसकी थू-थू होने लगती है। राजा और कलमाड़ी के खिलाफ तब कार्रवाई हुई जब सरकार के पास और कोई चारा नहीं रह गया था। पीजे थॉमस और दयानिधि मारन की छुट्टी तब की गई जब सरकार उनका बचाव करने की स्थिति में नहीं रह गई थी। सभी को याद होगा कि शशि थरूर से भी तभी इस्तीफा लिया गया जब सरकार चारों ओर से घिर गई थी। मनमोहन सरकार संभवत: दुनिया की सबसे असहिष्णु लोकतांत्रिक सरकार है। उसकी असहिष्णुता तानाशाही सरकारों को भी मात करने वाली है। वह जन भावनाओं की परवाह करने के बजाय तर्कसंगत ढंग से अपनी बात कहने वालों को पहले हर संभव तरीके से गलत ठहराती है। इससे भी काम नहीं चलता तो उन्हें बदनाम करती है। इससे भी बात नहीं बनती तो वह उनके खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई करती है। अन्ना हजारे के साथ यही किया गया। अभी भी उन्हें बदनाम करने और उन पर बेजा आरोप लगाने का सिलसिला कायम है। ऐसा नहीं है कि अन्ना हजारे आलोचना से परे हैं और उनका रवैया शत-प्रतिशत सही है, लेकिन उनके पीछे अमेरिका से लेकर आरएसएस का हाथ देखना निपट मूर्खता है। सरकार के साथ-साथ तमाम ऐसे बुद्धिजीवी भी अपने कुतर्को के साथ अन्ना के विरोध में उतर आए हैं जो उनसे सहमत नहीं। अन्ना के अनशन-आंदोलन को लेकर तमाम तर्कपूर्ण सवाल खड़े किए जा सकते हैं और अनेक लोग खड़े भी कर रहे हैं, लेकिन इनमें कुछ कुतर्कवादी भी हैं। कुतर्कवादियों का यह समूह पूछ रहा है कि आखिर अन्ना सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़ पर कुछ क्यों नहीं बोले थे? वह पास्को परियोजना, एसईजेड, किसानों की आत्महत्याओं, गुजरात की समस्याओं पर कुछ क्यों नहीं कहते? किसी को इससे परेशानी हो रही है कि इस बार उनके मंच से भारत माता की तस्वीर गायब क्यों है? किसी को कुछ नहीं मिल रहा तो इस पर आपत्ति जता रहा है कि अन्ना वंदेमातरम, भारत माता की जय के नारे क्यों लगा रहे हैं? कोई इस चिंता में दुबला है कि अन्ना के साथियों में कोई दलित-पिछड़ा क्यों नहीं? ये सारे सवाल इसलिए मूर्खतापूर्ण हैं, क्योंकि अन्ना न तो कोई भाईचारा बढ़ाओ आंदोलन चला रहे हैं और न ही उन्होंने देश की समस्त सेवाओं का ठेका ले रखा है। वह ले भी नहीं सकते। वह तो सिर्फ भ्रष्टाचार पर एक बड़ी हद तक अंकुश लगाने वाले जन लोकपाल की बात कर रहे हैं। अन्ना विरोधी एक ओर यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर यह सिविल सोसाइटी क्या है और दूसरी ओर यह भी चाह रहे हैं कि वह देश की अन्य अनेक समस्याओं पर कोई टिप्पणी क्यों नहीं कर रही? कुतर्कवादी जैसे बेढब सवाल उठा रहे हैं उससे कल को वे यह भी पूछने लगें तो आश्चर्य नहीं कि आखिर वह सेना के आधुनिकीकरण में देरी, मिडडे मील में मिलावट, ऑनर किलिंग, बढ़ती शिशु मृत्युदर अथवा भारत की विदेश नीति पर कुछ क्यों नहीं कहते? अन्ना से ऐसे सवाल तो तब पूछे जा सकते हैं जब वह किसी राजनीतिक दल या सरकार के मुखिया होते। अन्ना से जो सवाल पूछे जाने चाहिए वे ऐसे ही हो सकते हैं कि आखिर 30 अगस्त तक जनलोकपाल विधेयक पारित करने की मांग लोकतांत्रिक कैसे है? वह भारी जन समर्थन जुटाकर अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर सकते हैं, लेकिन उसके जरिये सरकार को अपनी बात मानने के लिए मजबूर कैसे कर सकते हैं? यदि सरकार बात नहीं करना चाहती तो आप उससे जबरन बात कैसे कर सकते हैं? अन्ना हजारे ने अपने समर्थकों से जिस तरह सांसदों के घर के बाहर धरना देने का आ ान किया वह ठीक नहीं। ऐसी आक्रामकता उनके आंदोलन के लिए अहितकारी हो सकती है, क्योंकि सांसदों को अपने तर्को से सहमत करने और उन पर दबाव डालने में अंतर है। यह सही है कि सरकार ने टीम अन्ना के साथ-साथ देश की जनता से छल किया है, लेकिन वह कितनी भी गलत, संवेदनहीन और चालबाज क्यों न हो उससे जबरदस्ती कोई काम नहीं कराया जा सकता। टीम अन्ना की मानें तो सरकार चाह ले तो जन लोकपाल विधेयक आनन-फानन में पारित हो सकता है। यह सही है कि अतीत में कई बार सरकार ने विधेयक एक तरह से रातोंरात पारित करा लिए। सारे विधेयक न तो स्थायी समिति जाते हैं, न उन पर व्यापक बहस होती है और न ही उन पर जनता से राय मांगी जाती है। बावजूद इसके जन लोकपाल विधेयक उस तरह पारित कराने की सलाह देना ठीक नहीं जैसे आपातकाल संबंधी विधेयक पारित किया गया था। देश पर आपातकाल थोपने वाला विधेयक तो जनता के साथ अन्याय था। सरकार की निष्कि्रयता का जवाब यह नहीं है कि अन्ना अपनी आक्रामकता बढ़ाते जाएं और इस क्रम में अलोकतांत्रिक होते जाएं। सवाल उठेगा कि जब सरकार नरमी बरतने को तैयार नहीं तब फिर अन्ना क्या करें? अन्ना ने जनलोकपाल बिल लाओ या जाओ का नारा लगाकर इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की है। चूंकि कोई भी सरकार इस तरह के अनशन-आंदोलन से नहीं जा सकती इसलिए वह आम चुनाव का इंतजार करें और तब तक मनमोहन सरकार को उखाड़ फेंकने का आ ान करें। लोकतंत्र उन्हें इतनी ही इजाजत देता है।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111719348874264760

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