Wednesday, August 24, 2011

बदनामी-बर्बादी की जिम्मेदारी

राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के संदर्भ में कैग रपट से मनमोहन सिंह के नेतृत्व पर सवाल खड़े होते देख रहे हैं ए। सूर्यप्रकाश

हमें अकसर याद आता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक महान अर्थशास्त्री और ईमानदार व्यक्ति हैं। भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों और इस आम धारणा के बावजूद कि वह भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रमुख हैं, इन गुणों के कारण ही वह अब तक पद पर बने हुए हैं और उन्हें कांग्रेस पार्टी या फिर बाहर से तगड़ी चुनौती नहीं मिली है। क्या प्रधानमंत्री में वास्तव में वे तमाम खूबियां हैं जो उनके प्रशंसक बखान करते आ रहे हैं? दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट की पड़ताल से हमें आकलन करना चाहिए कि मनमोहन सिंह की तथाकथित व्यक्तिगत ईमानदारी और अर्थशास्त्र की उनकी समझ से देश को क्या फायदा पहुंचा है? राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की जिम्मेदारी भारत को 2003 में सौंप दी गई थी। इस प्रकार भारत सरकार और अन्य तमाम इकाइयों को खेलों के लिए ढांचागत सुविधाएं तैयार करने के लिए सात साल का समय मिला था। मई 2004 में प्रधानमंत्री बन जाने के कारण मनमोहन सिंह पर तैयारियों पर निगरानी रखने की प्रमुख जिम्मेदारी थी। दुर्भाग्य से शुरू से ही चीजें गड़बड़ाने लगीं। सबसे पहले तो विशुद्ध भारतीय अंदाज में खेलों से जुड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए अनेक कमेटियों का गठन कर दिया गया। इस कारण खेलों के आयोजन में घालमेल हो गया, किंतु मनमोहन सिंह ने गड़बडि़यों को दूर करने के लिए कभी शीर्ष इकाई के गठन की जहमत नहीं उठाई। दूसरे, एक बार फिर खालिस भारतीय अंदाज में करार पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद काम शुरू नहीं किया गया। शुरुआती साल टालमटोल में निकल गए, क्योंकि हर जिम्मेदार एजेंसी ने सोचा कि अभी तो काफी समय बचा है। राष्ट्रमंडल खेल के आयोजन की तैयारियों में ढिलाई को लेकर 2009 में जाकर गंभीर चिंताएं जताई गईं और तब तक अनेक काबिल व्यक्तियों द्वारा बार-बार आगाह किए जाने के बाद भी प्रधानमंत्री ने संकट हल करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। जुलाई, 2009 में यानी खेल शुरू होने से 15 माह पहले कैग ने पहली चेतावनी जारी करते हुए केंद्र सरकार से कहा कि विभिन्न प्रकार की जटिल गतिविधियों और संगठनों के आलोक में तथा उस समय तक खेलों के आयोजन की तैयारियों की प्रगति को देखते हुए परियोजनाओं के परिचालन के तौर-तरीकों में तुरंत बदलाव की आवश्यकता है। कैग ने चेताया कि अगर खेल समय पर आयोजित करने हैं तो अब किसी किस्म की लापरवाही और देरी की कतई गुंजाइश नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद सरकार को काम में तेजी लानी चाहिए थी, परियोजनाओं की निगरानी करनी चाहिए थी, किंतु जैसाकि देश को बाद में पता चला मनमोहन सिंह ने कैग की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। अब कैग ने मई 2003 में राष्ट्रमंडल खेलों के करार पर हस्ताक्षर होने से लेकर दिसंबर, 2010 तक के समूचे प्रकरण पर अपनी समग्र रिपोर्ट पेश की है। कैग की यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा करती है। करार दस्तावेजों के अनुसार खेलों की आयोजन समिति सरकारी स्वामित्व वाली रजिस्टर्ड सोसाइटी होनी चाहिए, जिसका अध्यक्ष सरकार नियुक्त करेगी। हालांकि जब फरवरी 2005 में आयोजन समिति का गठन किया गया तो यह एक गैर-सरकारी रजिस्टर्ड सोसाइटी थी और उसके अध्यक्ष भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी थे। हैरत की बात यह है कि आयोजन समिति के पद पर सुरेश कलमाड़ी की नियुक्ति प्रधानमंत्री कार्यालय की अनुशंसा पर हुई थी। कलमाड़ी की नियुक्ति के समय प्रधानमंत्री कार्यालय ने युवा मामले व खेल मंत्री सुनील दत्त की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया था। 2007 में तत्कालीन खेलमंत्री मणीशंकर अय्यर ने आयोजन समिति पर सरकारी नियंत्रण न होने का मामला उठाया था, किंतु प्रधानमंत्री ने उनकी नहीं सुनी। जब खेलों पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे थे तो प्रधानमंत्री ने इन पर सरकारी नियंत्रण सुनिश्चित क्यों नहीं किया? अधिसत्ता और जवाबदेही की अनुपस्थिति और शासन के सुस्पष्ट ढांचे के अभाव के कारण खेलों के आयोजन में गड़बडि़यां पैदा हुईं। अगस्त 2010 में जब तैयारियां पूरी होने के दावे किए गए तो विश्व मीडिया में गंदे टॉयलेट, कूड़े के ढेर, छतों से टपकते पानी की तस्वीरें प्रकाशित हुईं और भारत की दुनियाभर में खिल्ली उड़ी। कैग रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने तैयारियों के लिए मिले सात सालों का सदुपयोग नहीं किया। तो इसके लिए मनमोहन सिंह को जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए? अब खेलों की लागत पर विचार करें। कैग ने बताया कि केंद्र सरकार ने खर्च का स्पष्ट और सही अनुमान नहीं लगाया। भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन ने खेलों के आयोजन पर 1200 करोड़ के खर्च का अनुमान लगाया था, किंतु आयोजन में सरकार के खजाने से 18,532 करोड़ निकल गए। इसका मतलब यह हुआ कि राष्ट्रमंडल खेलों की लागत 15 गुणा बढ़ गई। दूसरी तरफ, आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों की लागत आय से निकल आएगी। कैग के अनुसार आयोजन समिति ने आय का अनुमान बढ़ा कर लगाया था। उदाहरण के लिए, मार्च 2007 में आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों से 900 रुपयों की आय होगी, किंतु जुलाई 2008 में इस अनुमान को बढ़ाकर दोगुना यानी 1780 करोड़ रुपये कर दिया गया। दरअसल, आयोजन समिति ने आय के अनुमान को इसलिए बढ़ाया, क्योंकि उसे सरकार से और धन चाहिए था। खेलों के समापन के बाद पता चला कि आयोजन से मात्र 173।96 करोड़ रुपयों की आय हुई। खर्च 15 गुना कम और आय दस गुना अधिक बताना क्या आपराधिक गलतबयानी नहीं है? इस सबके लिए अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह नहीं तो कौन जिम्मेदार है?
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111719049871929032

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