Friday, August 5, 2011

आरक्षण की दुधारी तलवार

समाज व शिक्षा व्यवस्था पर पड़ने वाले आरक्षण के उजले-स्याह प्रभावों को रेखांकित कर रहे हैं प्रकाश झा

एक अरब से अधिक आबादी वाले देश भारत में विश्व के किसी भी देश से अधिक नौजवान हैं। लगता तो ऐसा है जैसे हम देश के भविष्य के बारे में नहीं सोच रहे हैं। युवा ही देश का भविष्य हैं। अगर हम युवाओं को शिक्षित नहीं करेंगे तो हम देश का भविष्य बर्बाद कर देंगे। इसके अलावा, नौकरियों को लेकर अंधी दौड़ जारी है। उत्साहवर्धक बात यह है कि अब रोजगार पाने के लिए प्रोफेशनल कोर्सो पर ध्यान दिया जा रहा है, किंतु इसके बावजूद स्याह पक्ष यह भी है कि हम बड़े इतिहासकार और वैज्ञानिक नहीं पैदा कर पा रहे हैं। अकादमिक शोध और वैज्ञानिक उन्नयन धीमे-धीमे पिछड़ रहा है। ऑक्सफोर्ड में किसी शोधार्थी से पूछें कि क्या वह भारत में वैसी जिंदगी जी सकता है जैसी ऑक्सफोर्ड में जी रहा है, तो उसका उत्तर होगा-नहीं। सीधी सी बात यह है कि हमारे देश में शोध और शिक्षण के लिए उचित स्थान ही नहीं है। आरक्षण के माध्यम से समाज के पिछड़े और वंचित वर्गो को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराने तथा उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश की जा रही है। आरक्षण दुधारी तलवार है। पिछड़ी जातियों का उद्धार करने के साथ-साथ यह सामान्य श्रेणी के छात्रों के लिए उपलब्ध सीटों पर प्रतिस्पर्धा तीव्र भी करता है। यद्यपि आरक्षण का उद्देश्य समता का भाव पैदा करना है, किंतु यह अक्सर छात्र समुदाय के बीच विद्वेष बढ़ाने का काम करता है। साथ ही, सीटें कम होने से प्रतिस्पर्धा बढ़ने के कारण निजी कोचिंग संस्थानों को फलने-फूलने और मुनाफाखोरी का मौका मिलता है। चूंकि वंचित वर्ग इन कोचिंग संस्थानों की फीस वहन नहीं कर सकता, इसलिए हम फिर से वहीं आ जाते हैं जहां से चले थे, यानी अवसरों की असमानता। आजकल कोचिंग सेंटर और निजी शिक्षण संस्थान छाए हुए हैं। छोटे बच्चों को नर्सरी स्कूल में एडमिशन दिलाने की तैयारी करने वाले कोचिंग सेंटर हैं। अभिभावक बोर्डिग स्कूल में एडमिशन के लिए भी कोचिंग सेंटर की शरण में जाते हैं। मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबंधन की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी भी कोचिंग सेंटरों के बिना पूरी नहीं हो पाती। यूपीएससी हो या कानून की पढ़ाई, कोचिंग सेंटर के बिना सफलता को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। यह सूची अनंत है। प्रवेश परीक्षाओं के शैक्षणिक स्तर और छात्रों के ज्ञान में इतना अंतर क्यों है? डेढ़ दशक पहले तक केवल कमजोर विद्यार्थी ही ट्यूशन लिया करते थे। अब हर छात्र ट्यूशन ले रहा है। शिक्षक ट्यूशन पढ़ाने में अधिक मेहनत और समय लगाते हैं। अगर आप वास्तव में कुछ सीखना चाहते हैं तो ट्यूशन लेना ही होगा। और जाहिर है, इसके लिए जेब ढीली करनी पड़ेगी। इसलिए ऐसे बच्चे जिनके मां-बाप धनाढय नहीं हैं, ट्यूशन नहीं ले पाते। जब ट्यूशन में ही पढ़ाई होती है तो फिर स्कूलों का औचित्य ही क्या है? यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिक्षा की संकल्पना सिर के बल उलटी हो गई है। बेतहाशा व्यावसायीकरण के कारण शिक्षा एक उद्योग में बदल गई है और यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि समाज सेवा के अपने सिद्धांत से विमुख हो गई है। गुरु-शिष्य की हमारी परंपरा सेवा प्रदाता-ग्राहक संबंधों में रूपांतरित हो गई है। शिक्षण ऐसा पेशा हो गया है, जिसे कोई मजबूरी में ही अपनाता है। यह कॅरियर का अंतिम विकल्प है। इसके लिए निम्न वेतनमान जिम्मेदार हैं। अफसोस की बात है कि तमाम चर्चा-परिचर्चा के बावजूद इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो रही है। जिस प्रकार हम प्रशासकीय और पुलिस सेवाओं आदि के लिए देश की मेधा को आकर्षित करते हैं, उसी प्रकार शिक्षण के क्षेत्र को हम इतना आकर्षक क्यों नहीं बनाते कि देश की प्रतिभाएं इस ओर खिंची चली आएं? आखिरकार, अगली पीढ़ी का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी शिक्षकों की ही है। ऐसा लगता है कि हम देश की शिक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार नहीं कर रहे हैं। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि हम भारत में शिक्षा के इस भविष्य के साथ कहां जाना चाहते हैं। निश्चित तौर पर इन सब मुद्दों पर बहस करने और हमारी नीतियों व व्यवस्था का मूल्यांकन करने का यह सही समय है। बढ़ती महत्वाकांक्षाओं की आंधी ने शिक्षा जगत को उलट दिया है। अवसरों का लाभ उठाने से नहीं चूकना चाहिए और हर कोई बस एक अवसर चाहता है। भारत के नौजवान पहचान बनाने और अवसर पाने को छटपटा रहे हैं। शैक्षणिक तंत्र बेहद दबाव में है। बेहतर भविष्य के लिए सही डिग्री पाने को छात्र कुछ भी खर्च करने को तैयार हैं। उन्हें बस एक अवसर की तलाश है। मेरी आगामी फिल्म आरक्षण में शिक्षण व्यवस्था के बदलते चेहरे और सीमित अवसरों के लिए मारामारी की एक झलक दिखाने का प्रयास किया गया है। इसमें प्रभाकर आनंद एक कॉलेज के आदर्श प्रधानाचार्य हैं, जो ईमानदारी और साहस की प्रतिमूर्ति हैं। हम देखते हैं कि आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला किस तरह कॉलेज के छात्रों व शिक्षकों में दरार और टकराव पैदा कर देता है। जब महत्वाकांक्षाओं और अवसरों को अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है तो पहचान पर सवाल खड़े किए जाते हैं, वफादारी छोर बदल लेती है, प्रेम खत्म हो जाता है और दोस्ती में विश्वासघात मिलता है। यह फिल्म भारत में उच्चतम शिक्षा तंत्र में उभर आए मुद्दों को सतह पर लाने का मेरा एक छोटा और विनम्र प्रयास है। मुझ उम्मीद है कि यह बहस नए सिरे से उभरेगी और विचार-विमर्श का एक ऐसा दौर आरंभ होगा जो देश में उच्च शिक्षा की तस्वीर बदलने में सहायक सिद्ध होगा।
(लेखक प्रसिद्ध फिल्मकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717988672087112

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