Wednesday, August 24, 2011

शासन करना सीखे सरकार

अन्ना हजारे को पहले केवल तीन दिन तक अनशन की इजाजत देने पर अड़ी सरकार अब जिस तरह उन्हें 15 दिन का समय और अपेक्षाकृत बड़ा मैदान उपलब्ध कराने पर मजबूर हुई उससे न केवल उसकी राजनीतिक अपरिपक्वता और अदूरदर्शिता पर मुहर लगी, बल्कि रही-सही प्रतिष्ठा भी धूल में मिल गई। यह शुभ संकेत नहीं कि नैतिक शक्ति खो चुकी सरकार अभी भी अपना दंभ छोड़ने के लिए तैयार नहीं। वह यह प्रदर्शित कर उपहास का पात्र ही बन रही है कि रामलीला मैदान में अन्ना हजारे को अनशन करने की अनुमति देने में उसकी कोई भूमिका नहीं। यह न केवल शर्मनाक है, बल्कि चिंताजनक भी कि केंद्रीय सत्ता अभी भी दिल्ली पुलिस की आड़ में अपना चेहरा छिपा रही है। जब उसे आगे बढ़कर अपने अच्छे-बुरे फैसलों की जिम्मेदारी लेनी चाहिए तब देश-दुनिया को यह बताने की कोशिश हो रही है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद वह तो परिदृश्य में ही नहीं है। आखिर ऐसी सरकार शासन करने में समर्थ कैसे हो सकती है जो देश में उबाल लाने वाले इतने बड़े घटनाक्रम से मुंह मोड़ती नजर आए? इस सरकार में कई ऐसे लोग होंगे जो आपातकाल के माहौल को भूले नहीं होंगे। उन्हें यह अनुभूति होनी चाहिए कि तब के मुकाबले आज देश की जनता कहीं अधिक कुपित और मुखर है। वह केंद्रीय सत्ता पर भरोसा भी खोती जा रही है। केंद्र सरकार इस तर्क की आड़ में ज्यादा दिन नहीं छिपी रह सकती कि कानून बनाना संसद का काम है। संसद की यह भी जिम्मेदारी है कि कानून का निर्माण करते समय जनता की भावनाओं का ध्यान रखा जाए-ठीक वैसे ही जैसे भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के मामले में रखा जा रहा है। संसद अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह तब कर पाएगी जब राजनीतिक दल और विशेष रूप से सत्तापक्ष इस अहंकार से उबरेगा कि सही-गलत का फैसला करने का अधिकार केवल उसे ही है। यदि जनता को कानून बनाने का अधिकार नहीं तो सत्तापक्ष भी स्वर्ग से नहीं उतरा। केंद्र सरकार यह कहकर देश को गुमराह करने से बचे तो बेहतर है कि अन्ना हजारे द्वारा संसद की सर्वोच्चता को चुनौती दी जा रही है। सच्चाई यह है कि यह सरकार है जो संसद का दुरुपयोग कर उसकी गरिमा से खेल रही है। जो सरकार राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तैयार विधेयकों को संसद में रखने के लिए तैयार है वह जन लोकपाल के मसौदे से क्यों बिदक रही है? सामान्य परिस्थितियों में तो सरकारी लोकपाल विधेयक को कानून में तब्दील होते सहन किया जा सकता था, लेकिन बदले हालात में जनता उसे स्वीकार करने वाली नहीं है। चूंकि भ्रष्टाचार से लड़ने के मामले में केंद्र सरकार के छल-छद्म के चलते परिस्थितियां असामान्य हो चली हैं इसलिए बेहतर यही होगा कि सरकारी लोकपाल विधेयक वापस लेकर एक सक्षम लोकपाल व्यवस्था बनाने के लिए नए सिरे से प्रयास किए जाएं। यदि सरकार ऐसा करने के लिए तैयार होती है तो सिविल सोसाइटी के लिए भी यह उचित होगा कि वह उसे एक मौका और दे। बेहतर हो कि केंद्र सरकार सिविल सोसाइटी से संवाद की पहल करे और उसके समक्ष यह भी स्वीकार करे कि उससे भूल हुई। इससे ही सुलह का कोई रास्ता निकल सकता है।
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111719049871950008



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