Friday, August 5, 2011

युवा भारत, बुजुर्ग कैबिनेट

यदि राजनीति सेल्यूलाइड का आईना होती तो यकीनन हमारे नेता फ्रेम से बाहर नजर आते। एक पखवाड़ा पहले दो हिंदी फिल्में रिलीज हुई थीं: बुड्ढा होगा तेरा बाप और देल्ही बेली। पहली फिल्म में किंवदंती बन चुके अमिताभ बच्चन 1970 के दशक का जादू फिर से जगाने की कोशिश कर रहे थे, जबकि दूसरी फिल्म एक मल्टीप्लेक्स मूवी थी, जिसके युवा अभिनेता एमटीवी पीढ़ी के अनुरूप थे। व्यवसाय के आंकड़े बताते हैं कि देल्ही बेली ने पहले सप्ताह में अमिताभ की फिल्म से दोगुनी कमाई की।

शायद इसका सबसे अहम कारण था ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’। जिस देश की आबादी का 60 फीसदी हिस्सा अमिताभ की हिट फिल्म जंजीर रिलीज होने के बाद जन्मा हो, उसे देल्ही बेली का धृष्टतापूर्ण हास्य ज्यादा अनुकूल लगा। डीके बोस को भले ही अशिष्ट कहा जाए या मूर्खतापूर्ण कहकर पुकारा जाए, लेकिन वह स्पष्टत: ‘फ्लैवर ऑफ द सीजन’ है।

इसके ठीक विपरीत इस हफ्ते हुआ मंत्रिमंडलीय फेरबदल (या जैसा कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने कहा: ‘राजनीतिक खो-खो’) एक बुजुर्ग भारत का प्रतिनिधित्व करता जान पड़ा। फेरबदल के बाद हमारे कैबिनेट मंत्रियों की औसत आयु 65 वर्ष है, जबकि यूपीए-2 की मंत्रिपरिषद की औसत आयु 60 वर्ष है।

जहां प्रधानमंत्री सहित 14 कैबिनेट मंत्री 70 पार कर चुके हैं, वहीं महज एक मंत्री कुमारी सैलजा 40 के दशक में हैं। इनमें से अधिकांश मंत्रियों का जन्म स्वतंत्रता से पूर्व हुआ था। राज्यमंत्रियों की औसत आयु 54 वर्ष है, जबकि इस ओहदे को आम तौर पर ‘युवा’ राजनेताओं की नर्सरी माना जाता है।

सचिन पायलट, अगाथा संगमा और मिलिंद देवड़ा, इन तीन राज्यमंत्रियों की उम्र 35 से कम है, लेकिन ये सभी प्रभावशाली राजनेताओं की कर्तव्यपरायण संतानें हैं। यह मानना गलत नहीं होगा कि यदि वे एक राजनीतिक उपनाम से धन्य नहीं होते तो उनके मंत्री बनने के अवसर धुंधले ही होते।

वैसे भी दिग्गजों से भरी कैबिनेट में राज्यमंत्री की भूमिका रस्मी तौर पर ही होती है। यह सब एक ऐसे दौर में हो रहा है, जब 45 साल के डेविड कैमरन ब्रिटेन को संवारने का प्रयास कर रहे हैं और 50 साल के बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल की तैयारी कर रहे हैं।

आसान विकल्प तो यही होगा कि इस दुर्दशा के लिए हम भारतीय राजनीति में बुजुर्गो के वर्चस्व को दोषी ठहराएं। आखिर वे ही तो उत्साह के साथ कभी परंपरा तो कभी जरूरत का हवाला देकर राजनीति में वरिष्ठता के सिद्धांत की रक्षा करते रहे हैं। सरकार में ‘धवल केशों’ की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता।

राजनीति कोई क्रिकेट का मैच नहीं है, जहां युवाओं के चलते मैच जीते या हारे जा सकें। विवेकशीलता दुर्लभ गुण है और यह गुण केवल समय के साथ ही उन्नत हो सकता है। सरकार की कार्यप्रणाली में महारत हासिल करने के लिए प्रशासकीय अनुभव चाहिए।

76 साल के बुजुर्ग और अनुभवी प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्री के रूप में हमेशा प्राथमिकता दी जाएगी, विदेश में शिक्षित किसी 40 वर्षीय राजनेता को नहीं, जिसकी शब्दावली तो उचित है, लेकिन जो प्रशासन की जटिलताओं के साथ निर्वाह नहीं कर सकता।

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारे तथाकथित ‘युवा तुर्को’ ने भी अपना दावा मजबूत करने के लिए कुछ खास नहीं किया। वे कमोबेश अपनी वंशपरंपरा के बंधक ही बने रहे। इन युवा नेताओं में कई लोकतांत्रिक वंशज हैं। वे किसी ऐसे राजनेता की संतानें हैं, जो चुनावी राजनीति को परिवारवाद का ही विस्तार समझते हैं।

वे विशेषाधिकार की भावना से इतने ग्रस्त हैं कि हम उन्हें यदा-कदा ही संसद में बोलते या किसी सामाजिक मोर्चे पर मुखर होते देखते हैं। यदि हमारे सांसद ‘यंग इंडिया’ का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं तो हम उन्हें रोजगार, शिक्षा, भ्रष्टाचार, पर्यावरण, नैतिकता, एड्स यहां तक कि समलैंगिकता संबंधी अधिकार जैसे उन मुद्दों पर बात करते क्यों नहीं देखते, जो युवा पीढ़ी से वास्ता रखते हैं?

जब भ्रष्टाचार के विरोध में लोकपाल आंदोलन ने जोर पकड़ा, तब भी हमारे युवा सांसद कहीं नजर नहीं आए। उन्होंने इस धारणा को और मजबूत ही किया कि वे विवादित विषयों पर सार्वजनिक रूप से स्पष्ट रुख अख्तियार करने से कतराते हैं।

लेकिन ऐसा हमेशा से नहीं था। 1970 के दशक में नवनिर्माण आंदोलन की शुरुआत यूनिवर्सिटी कैम्पसों में हुई थी, जिसने अंतत: सरकार विरोधी आंदोलन का सूत्रपात किया। उस जमाने के विद्यार्थी कार्यकर्ता सत्ताविरोधी रुख अख्तियार करने या युवाओं के लिए मायने रखने वाले मुद्दे उठाने से डरते नहीं थे।

आज राजनीतिक दलों की युवा इकाइयां महिमामंडित इवेंट मैनेजर्स की तरह हो गई हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद हाई-प्रोफाइल तिरंगा यात्रा आयोजित करती है, जिसका युवाओं की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं होता तो भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन कॉलेज सभागारों के सुनियोजित कार्यक्रमों में राहुल गांधी के इर्द-गिर्द कवायद कर संतुष्ट हो जाता है। लेकिन वे नए विचार कहां हैं, जो एक नए भारत के मानस का निर्माण कर सकते हैं?

अलबत्ता उम्मीदें अभी बाकी हैं। हाल ही में संपन्न युवा नेताओं के एक सम्मेलन में कांग्रेस के 40 वर्षीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने युवा आदर्शवाद के संरक्षण की जरूरत पर एक प्रभावी भाषण दिया। इसी कार्यक्रम में मेरी भेंट कई उल्लेखनीय युवाओं से हुई। चेन्नई के 32 वर्षीय ई शरतबाबू को ही ले लीजिए।

वे एक झुग्गी बस्ती में पले-बढ़े, लेकिन उन्होंने आईआईएम तक का सफर तय किया और फिर अपना एक सफल कारोबार खड़ा किया। उन्होंने तमिलनाडु में चुनाव लड़ा था, जिसमें वे हार गए, लेकिन वे फिर प्रयास करना चाहते हैं। जब शरतबाबू जैसे लोग हमारे बुढ़ाते राजनीतिक गढ़ों में सेंध लगाने में कामयाब होंगे, तभी भारत एक बेहतर देश बन पाएगा।

पुनश्च: राहुल गांधी सरकार में शामिल होने से अब भी कतरा रहे हैं। बताया जाता है कि राहुल अभी तक खुद को इसके लिए तैयार नहीं मानते। जब एक यूथ आइकॉन 41 की उम्र में भी मंत्री पद की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता, तो आखिर हमें हैरानी क्यों होनी चाहिए कि हमारी कैबिनेट दुनिया की सबसे बुजुर्ग कैबिनेट में से एक है?
Source: राजदीप सरदेसाई | Last Updated 00:30(15/07/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-young-india-old-cabinet-2263106.html

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