Friday, August 5, 2011

एक छोटी कहानी की बड़ी ताकत

बड़ी तस्वीरें रोमांच जगाती हैं। जाहिर है, ‘शोले’ को हमेशा ही ‘आर्ट मूवी’ से ज्यादा चर्चा मिलेगी। सरकारी मदद से बनने वाले सिनेमा को उन दिनों आर्ट मूवी ही कहा जाता था, जब सरकारें दाढ़ी बढ़ाए, पैजामा पहने घूमते लोगों को रेवड़ियां बांटने की इच्छा रखती थीं। लेकिन छोटी तस्वीर की गूढ़ता से सीखने को भी काफी कुछ होता है। इतिहास में अब तक का सबसे मशहूर पोट्र्रेट ‘मोनालिसा’ छोटे केनवास पर ही बनाया गया है।


कलाकारी की बजाय राजनीति की ज्यादा तर्कसंगत तुलना छल की कलाबाजी से की जा सकती है। लोकतांत्रिक राजनीति दो वृत्तों में घूमती है- सत्ता के छायादार घुमाव और खुली सड़कों के चक्कर। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह लोकलुभावन तपन और जोश के लिए नहीं हैं। वे अपनी आवाज ऊंची नहीं करते, जबकि सड़क पर नौटंकी की मांग होती है। लेकिन समय-समय पर वे लगातार इस काल्पनिक धारणा में धकेल दिए जाते हैं कि वे सत्ता की राजनीति से अनभिज्ञ हैं।


यूपीए2 में सत्ता की लय पर नियंत्रण कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों के बीच की तनावभरी पंक्ति के द्वारा नहीं होता। कांग्रेस बड़े असरदार ढंग से अपने सहयोगियों को लाचार कर चुकी है। इसे तो अधिकार के दो ध्रुवों, डॉ. मनमोहन सिंह और श्रीमती सोनिया गांधी के बीच संबंधों में मापा गया है।


बेशक, ये दोनों दो सीटों और दो पैडलों वाली साइकिल सरीखे काम करते हैं, वरना सारा खेल भरभरा जाएगा। लेकिन साथ ही, जब वे विपरीत सिरों से किसी निर्णय पर पहुंचते हैं, तो तनाव का दुतरफा प्रवाह भी होता है। यह तब भी होता है, जब वे अपने बीच के समीकरण की तनी हुई मजबूती को टूटन बिंदु तक खींचे बगैर अपना असर बढ़ा सकने वाले उपायों को मापते हैं।


प्रधानमंत्री कार्यालय में मुख्य सचिव के तौर पर पुलक चटर्जी की नियुक्ति एक उत्कृष्ट दृष्टांत है। चटर्जी दोनों के साथ बढ़िया ढंग से काम करते हैं, अन्यथा उनके नाम पर विचार ही नहीं होता, लेकिन उनकी मुख्य निष्ठा श्रीमती गांधी के प्रति है। उन्होंने टीके नायर की जगह ली है, जिन्हें 2004 में कई कारणों से यह काम मिला था।


ज्यादा बड़ा कारण यह था कि वे प्रधानमंत्री के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित थे। तो फिर प्रधानमंत्री ने इस बदलाव का बंदोबस्त कैसे किया? उन्होंने चटर्जी को नियुक्त किया और नायर का दर्जा बढ़ा दिया। पदानुक्रम ही सत्ता-शक्ति का मूल है। राज्यमंत्री के बराबर दर्जा रखने वाले नायर, चटर्जी से ऊपर हैं और प्रोटोकॉल के लिहाज से पीएमओ में राजनीतिक नियुक्ति के बराबर हैं।


यूपीए2 अपने कार्यकाल के निर्णायक वर्ष 2012 में प्रवेश करने वाला है, जो तय करेगा कि इसकी वापसी होगी या यह मिट जाएगा। बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि इसका एजेंडा किस बात से तय होगा- राजनीति की सरकार से या सरकार की राजनीति से। डॉ. सिंह पहले को प्राथमिकता देंगे, जबकि श्रीमती गांधी बाद वाले को। न्यूक्लियर डील के दौरान डॉ. सिंह ने दिखाया था कि वे औपचारिक विपक्ष के सामने समर्पण नहीं करते। वे अनौपचारिक विपक्ष को भी यही संकेत दे रहे हैं।


व्यवस्था की जड़ों का जितना ज्यादा पता उसकी व्यापक रूपरेखा से लगाया जा सकता है, उतना ही उसकी छोटी तस्वीर से भी। 19 साल के हो चुके सब्जी विक्रेता शमसुद्दीन फकरुद्दीन की कहानी हमें न्याय व्यवस्था के बारे में उतना ज्यादा बताती है, जितना जानने की जरूरत है। वह व्यवस्था, जिसने दूसरे स्तर पर 2जी दूरसंचार मामले में अभियुक्तों की जमानत अर्जियां खारिज कर दीं, हालांकि ऐसा करने के लिए तमाम कारण निढाल हो गए हैं। सीबीआई ने इस तर्क के साथ उनकी कैद मांगी कि वे सबूतों से छेड़छाड़ कर सकते हैं। तमाम सबूत अदालत के सामने रखे जा चुके हैं, लेकिन जमानत से अब भी इंकार है। क्यों? न्याय व्यवस्था की तरफ से कोई स्पष्टीकरण नहीं है। बेशक यह ठीक बात है कि जज सफाई नहीं देते।


दिल्ली पुलिस ने फकरुद्दीन को पिछले साल अगस्त में ओखला मंडी से पकड़ा था। उस पर शिकायत करने वाले की जेब से 200 रुपए और एटीएम कार्ड चुराने का आरोप था। उसने कहा कि वह बेकसूर है। दिल्ली पुलिस ने उस पर चोरी और चुराए गए सामान को रखने की धाराएं लगाईं। उसे तिहाड़ जेल भेज दिया गया। मजिस्ट्रेट ने उसे जमानत पर छोड़े जाने से इंकार कर दिया। नौ महीने बाद उसे 10 हजार रु. की जमानत पर छोड़े जाने का प्रस्ताव दिया गया। वह यह जमानत नहीं दे सका। जज ने उसे फिर तिहाड़ भेज दिया।


एक किशोर, जो 200 रु. चुराने के लिए मजबूर है, उसे 10 हजार की जमानत भरने का प्रस्ताव कैसे दिया जा सकता है? 200 रु. चुराने की अधिकतम सजा तीन महीने का कारावास है। पुलिस ने मजिस्ट्रेट के साथ मिलकर क्यों उसे सालभर के लिए सलाखों के पीछे रखा? हमारे न्यायालयों में रोजाना सैकड़ों प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। फकरुद्दीन ने अन्याय को एक असामान्य और अक्लमंद तरीके से पटखनी दे दी: उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और छूट गया, क्योंकि वह अपने ‘अपराध’ की सजा से चार गुना ज्यादा समय जेल में बिता चुका था। उसका असल अपराध तो गरीबी थी।


जनता के गुस्से का ज्वार भी छूट गया है। एक अंग्रेजी अखबार ने फकरुद्दीन की कहानी मुखपृष्ठ पर सबसे प्रमुख खबर के रूप में छापी, उसी पृष्ठ पर ढके-छुपे न्याय के अन्याय के खिलाफ संपादकीय लिखते हुए। लोकतंत्र की मांग है कि हम कानून के हिसाब से आचरण करें। इसकी यह भी मांग है कि जब कानून मूर्खता में बदल जाए, तो हम उसे बदल दें।
Source: एम।जे. अकबर | Last Updated 00:17(31/07/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-the-major-strength-of-a-short-story-2309177.html

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