Thursday, August 11, 2011

आपत्तिजनक आचरण

राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में घोटालों की प्रमाण सहित पुष्टि करने वाली नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रपट पर सत्तापक्ष का रवैया घोर आपत्तिजनक है। दरअसल इसी रवैये के कारण घपले-घोटालों का सिलसिला कायम है। कैग रपट पर कांग्रेस का यह कथन देश की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं कि उसमें ऐसा कोई आरोप नहीं है जो बड़ी कार्रवाई की मांग करता हो। यदि कांग्रेस ने कैग रपट देखी नहीं है जैसा कि दावा किया जा रहा है तो फिर उसे यह कैसे पता चल गया कि उसमें कोई गंभीर आरोप नहीं हैं? ऐसा लगता है कि कांग्रेस उसी तरह अपनी फजीहत कराना चाहती है जैसे उसने 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर कैग रपट आने के बाद कराई थी। कैग रपट में राष्ट्रमंडल खेलों में घोटालों के स्पष्ट प्रमाण दिए गए हैं। उन्हें झुठलाना एक तरह से दिन को रात बताने जैसा है। कैग रपट के आधार पर घोटाले के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कठोर कार्रवाई के अतिरिक्त देश को और कुछ मंजूर नहीं और न ही होना चाहिए, क्योंकि अब पानी सिर के ऊपर से बहने लगा है। कैग की रपटों पर संवैधानिक प्रक्रियाओं का पालन करने की आड़ में घोटालों को रफा-दफा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, तब तो बिलकुल नहीं जब घोटाले लूट की शक्ल में किए गए हों। राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों के दौरान हुए घोटाले लूट का पर्याय ही थे और इसी कारण जो आयोजन 1200 करोड़ रुपये में होना चाहिए था उसमें 18000 करोड़ रुपये खप गए। यह अंधेर नहीं तो और क्या है? ऐसी अंधेर का पर्दाफाश करने वाली रपट पर संसद अथवा उसकी लोक लेखा समिति में बहस से ज्यादा जरूरी घोटाले के दोषियों को दंड का भागीदार बनाना है। अब यह किसी से छिपा नहीं कि कैग रपटों पर बहस के नाम पर पक्ष-विपक्ष राजनीतिक पैंतरेबाजी का परिचय देने के अलावा और कुछ नहीं करते। बहस पर जोर तो केवल उन मामलों में देना चाहिए चाहिए जिनमें कैग ने कोई नीतिगत टिप्पणी की हो। यह एक खतरनाक संकेत है कि कैग की रपटों को बहस के बहाने किनारे करने की कोशिश केंद्र सरकार के स्तर पर भी होने लगी है और राज्य सरकारों के स्तर पर। कैग अपनी तमाम रपटों के जरिये केंद्र और राज्यों के स्तर पर तरह-तरह के घपले-घोटाले उजागर करता है और वह भी गहन पड़ताल के बाद, लेकिन उनसे बहुत आसानी के साथ पल्ला झाड़ लिया जाता है। जब आवश्यकता इस बात की है कि कैग की रपटों का संज्ञान लेकर सरकारी खजाने को होने वाली क्षति को रोका जाए तब ठीक उलटा किया जा रहा है? यह लज्जा की बात है कि कैग की रपटों की अनदेखी कर केंद्रीय सत्ता राज्य सरकारों को एक तरह से वित्तीय अनुशासनहीनता के साथ-साथ उस व्यवस्था को अपनाने के लिए प्रेरित कर रही हैं जिसके कारण घपले-घोटाले बढ़ते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि हमारे राजनेता कैग की महत्ता को नकारने की किसी सुनियोजित साजिश का हिस्सा बन चुके हैं। यदि ऐसा नहीं है तो फिर क्या कारण है कि अब इस संवैधानिक संस्था के तौर-तरीकों पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। यह और कुछ नहीं एक बड़े खतरे का सूचक है। कैग की रपटें इसलिए नहीं तैयार होतीं कि बहस के बहाने उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाए।
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111718104672020968

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