सक्षम और बेदाग छवि वाले नेता के रूप में प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी ताकत गुम होती देख रहे हैं राजीव सचान
पिछले हफ्ते संसद में महंगाई पर बहस के दौरान सलमान खुर्शीद ने जब फिल्मी डायलॉग-मेरे पास मां है-की नकल करते हुए कहा कि हमारे पास मनमोहन सिंह हैं तो यह न केवल हास्यास्पद लगा, बल्कि उससे अभिनेत्री निरुपा राय के उन किरदारों की याद ताजा हो गई जिनमें वह हताश-निराश और दुखियारी मां के रूप में नजर आती थीं। अब मनमोहन सिंह भी ऐसे ही नजर आने लगे हैं-हताश, किंकर्तव्यविमूढ़ और निरुपाय। जिस सरकार पर आजादी के बाद की सबसे भ्रष्ट सरकार होने का ठप्पा लग चुका हो उसके मुखिया अर्थात प्रधानमंत्री को अभी भी सक्षम और ईमानदार तो बताया जा सकता है, लेकिन उस पर यकीन करना कठिन है। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में धांधली पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रपट से प्रधानमंत्री और उनका कार्यालय उबर भी नहीं पाया था कि राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में अनियमितताओं पर रपट आ गई। कैग की इस रपट ने प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय की रही-सही प्रतिष्ठा हर ली है। इस रपट के अनुसार इसके दस्तावेजी सबूत हंै कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने सुरेश कलमाड़ी को राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति का न केवल प्रमुख बनाया, बल्कि उन्हें दो हजार करोड़ रुपये खर्च करने की सुविधा दी। नि:संदेह यह कोई अपराध नहीं-तब भी नहीं जब एक के बाद एक दो खेल मंत्रियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय के इस निर्णय का विरोध किया हो, लेकिन प्रधानमंत्री का कलमाड़ी प्रेम तब अपराध नजर आने लगता है जब यह तथ्य सामने आता है कि उन्होंने उन पर तब भी अंकुश नहीं लगाया जब वह घोटाले कर रहे थे और इसके लिए हर कोई उन्हें चेता भी रहा था। इन घोटालों पर खूब शोर मचा, लेकिन मनमोहन सिंह मौन रहे। खेल तैयारियों में देरी से चिंतित राष्ट्रमंडल खेल महासंघ के प्रमुख माइक फेनेल प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखने को मजबूर हुए, लेकिन वह अविचलित रहे। एक समय ऐसा भी आया कि घोटाले उजागर होने लगे और देश की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई। बावजूद इसके प्रधानमंत्री ने हस्तक्षेप करने से इंकार किया। अंतत: हालात ऐसे बने कि न केवल घोटालों को जीती मक्खी की तरह निगलना पड़ा, बल्कि देश का सम्मान बचाने के लिए करोड़ों रुपये की अतिरिक्त धनराशि न चाहते हुए भी खर्च करनी पड़ी। कैग रपट कहती है कि 2003 में राष्ट्रमंडल खेल आयोजन का अनुमानित व्यय 1200 करोड़ रुपये था, लेकिन उस पर 15 गुना ज्यादा यानी 18000 करोड़ स्वाहा हो गए। इसके लिए केवल कलमाड़ी जिम्मेदार नहीं हो सकते। इसकी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री को भी लेनी होगी। खेल आयोजन में घोटालों के लिए शीला दीक्षित से पहले मनमोहन सिंह को इस्तीफा देना चाहिए। विपक्ष भले ही किसी खास रणनीति के तहत केवल शीला दीक्षित के त्यागपत्र की मांग कर रहा हो, लेकिन नैतिकता का तकाजा यह है कि प्रधानमंत्री का भी त्यागपत्र मांगा जाना चाहिए। यदि कैग रपट के इस आकलन के आधार पर शीला दीक्षित से पद छोड़ने के लिए कहा जा रहा है कि कई संदिग्ध फैसलों में मुख्यमंत्री कार्यालय की सक्रिय भागीदारी थी तो फिर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा कलमाड़ी को आयोजन समिति का मुखिया बनाने और उनकी करतूतों पर आंखे मूंदने के लिए मनमोहन सिंह से त्यागपत्र क्यों नहीं मांगा जाना चाहिए? मनमोहन सिंह को छोड़कर केवल शीला दीक्षित के त्यागपत्र की मांग करना दिल्ली की मुख्यमंत्री के साथ किया जाने वाला अन्याय है। हालांकि विपक्ष शीला दीक्षित की तुलना येद्दयुरप्पा से कर रहा है, लेकिन सच तो यह है कि कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री में ज्यादा समानता नजर आती है। सबसे बड़ी समानता यह है कि दोनों ने अपने भ्रष्ट सहयोगियों को मनमानी करने का भरपूर मौका दिया और जब आपत्तियां उठीं तो उन पर लगाम लगाने से इंकार किया। कांग्रेस अथवा अन्य किसी के लिए अब मनमोहन सिंह का बचाव करना बहुत मुश्किल होगा। वह अपने हाथों अपनी प्रतिष्ठा खो चुके हैं। केवल धन की हेराफेरी ही भ्रष्टाचार नहीं है। ऐसा होने देना भी भ्रष्टाचार है और मनमोहन सिंह इसे अनगिनत बार साबित कर चुके हैं। यदि शुरू से गिनें तो बोफोर्स दलाल ओट्टाविया क्वात्रोची के लंदन स्थित बैंक खातों को खोलने, नोट के बदले वोट कांड की जांच न कराने, पीजे थॉमस को सीवीसी बनाने, पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन पर लगे आरोपों पर मौन धारण करने, बेहद कमजोर लोकपाल विधेयक बनाने और कलमाड़ी को प्रश्रय देने के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो वह हैं मनमोहन सिंह। आखिर कोई किस मुंह से उन्हें बेदाग कह सकता है। नि:संदेह वह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं, लेकिन आखिर ऐसी ईमानदारी किस काम की? अब तो यह ईमानदारी खुद उनकी भी रक्षा नहीं कर पा रही है। इससे अधिक दयनीय और कुछ नहीं हो सकता कि मनमोहन सिंह अपनी ही इस बात से मुकर गए कि उनकी राय में प्रधानमंत्री पद लोकपाल के दायरे में आना चाहिए। ऐसा नहीं है कि मनमोहन सिंह केवल भ्रष्ट लोगों को रोकने में ही अक्षम हैं। वह इतने ही अक्षम आंतरिक सुरक्षा की रक्षा करने, महंगाई पर लगाम लगाने और आर्थिक विकास को गति देने में भी हैं। कांग्रेस ही बताए कि वह उन्हें प्रधानमंत्री बनाए रखकर क्या हासिल कर पा रही है? यदि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने रहते हैं तो आगामी लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से पराजय के अलावा उसे शायद ही कुछ हाथ लगे। मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी ताकत-सक्षम और बेदाग छवि अब चिंदी-चिंदी हो गई है। अब साफ नजर आने लगा है कि उनकी सक्षम और बेदाग छवि एक मुखौटा है। अब यह मुखौटा उतर चुका है। प्रधानमंत्री अपने ऐसे हश्र के लिए और किसी को दोष नहीं दे सकते। वह श्रीहीन होकर प्रधानमंत्री के रूप में अपना दूसरा कार्यकाल पूरा कर सकते हैं, लेकिन कांग्रेस उनके नाम पर वोट मांगने का साहस शायद ही कर सके।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:_दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111718304374096968
Wednesday, August 10, 2011
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