Friday, August 5, 2011

राज्यों पर सीधा प्रहार

प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम कानून को राज्यों पर नियंत्रण करने के केंद्र के हथियार के रूप में देख रहे हैं ए। सूर्यप्रकाश

सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तैयार किए गए प्रस्तावित सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा रोकथाम बिल में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच सांप्रदायिक दुश्मनी पैदा करने के अलावा और भी बेहद खतरनाक प्रावधान हैं। इसके माध्यम से केंद्र राज्यों पर फिर से दादागीरी चलाना चाहता है और राज्यों के प्रशासन पर अपना दबदबा चाहता है। यही नहीं, इसके माध्यम से सांप्रदायिक अपराधों के वर्गीकरण के कुटिल प्रावधान लागू करने का भी प्रयास हो रहा है। यह बिल सांप्रदायिक हिंसा की प्रत्येक घटना में पंथिक अल्पसंख्यकों को शिकार और पंथिक बहुसंख्यकों को अपराधी ठहराता है। प्रस्तावित कानून का अन्य घातक पहलू यह भी है कि यह सांप्रदायिक हिंसा के बहाने से राज्यों को कमजोर करना चाहता है और कानून एवं व्यवस्था कायम रखने के राज्यों के अधिकार को हड़पना चाहता है। यह प्रस्तावित बिल राज्यों के नौकरशाहों और पुलिसकर्मियों को बताना चाहता है कि दिल्ली में बैठा बड़ा भाई आप पर नजर रखे हुए है। स्पष्ट है कि केंद्र उन निरंकुश शक्तियों को फिर से हासिल करना चाहता है, जो बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले धारा 356 के तहत उसके पास थीं। बोम्मई मामले से पहले केंद्र सरकार मनमर्जी से धारा 356 थोपती रहती थी। क्षेत्रीय दलों की शक्ति से भयाक्रांत केंद्र इस प्रावधान के आधार पर निर्वाचित राज्य सरकारों को अकसर बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू करता रहता था। उदाहरण के लिए, 1950 में संविधान लागू होने से लेकर 1994 तक सुप्रीम कोर्ट के बोम्मई फैसले तक सरकार ने 102 बार धारा 356 का इस्तेमाल किया। इनमें से 77 मामलों में केंद्र में कांग्रेस पार्टी का शासन था। मात्र एक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस प्रावधान का 50 बार इस्तेमाल किया। धारा 356 का दुरुपयोग इस हद तक बढ़ गया था कि बाध्य होकर सुप्रीम कोर्ट को बोम्मई मामले के फैसले के माध्यम से इस पर रोक लगानी पड़ी। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने घोषणा की कि धारा 356 की उद्घोषणा न्यायिक पुनर्विचार के दायरे में आएगी और अदालत फैसला करेगी कि इसे लागू करने के पीछे दुर्भावना तो नहीं है। अदालत ने कहा कि अगर राष्ट्रपति द्वारा किया गया फैसला दुर्भावनाग्रस्त पाया जाता है तो अदालत फैसले को बदल भी सकती है। इस फैसले ने वस्तुत: धारा 356 के राजनीतिक दुरुपयोग पर रोक लगा दी। अब सांप्रदायिक हिंसा बिल के माध्यम से केंद्र फिर से राज्यों में कुटिल चालें चलना चाहता है। यह स्पष्ट तौर पर पिछले दरवाजे से धारा 356 लागू करने का प्रयास है। प्रारंभ में बिल के प्रस्तावक किसी राज्य में संगठित सांप्रदायिक हिंसा को आंतरिक गड़बड़ी के रूप में वर्गीकृत करना चाहते थे, जैसा कि अनुच्छेद 355 में कहा गया है। अनुच्छेद 355 के अनुसार केंद्र सरकार का यह दायित्व है कि वह प्रत्येक राज्य की बाहरी आक्रमण और आंतरिक उपद्रव से रक्षा करे और यह सुनिश्चित करे कि प्रत्येक राज्य में शासन का संचालन संविधान के अनुरूप हो। लिहाजा साफ है कि यह कानून एवं व्यवस्था का प्रबंध करने के राज्यों के संवैधानिक अधिकार को छीनने और इस बहाने राष्ट्रपति शासन थोपने का एक चतुर प्रयास था। हालांकि सार्वजनिक आपत्तियों-विरोध के बाद राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने हाल में घोषणा की है कि ड्राफ्ट बिल से यह प्रावधान हटा दिया गया है। फिर भी राज्य सरकारों की स्वतंत्रता पर उत्पन्न खतरा समाप्त नहीं हुआ है, क्योंकि कुछ अन्य प्रावधान अभी भी कायम हैं। पुलिस और नौकरशाही से संबंधित सेक्शन 9, 13, 14 और 16 तथा राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों को सीधे निशाने में लेने वाला सेक्शन 15 ऐसे ही प्रावधान हैं। सेक्शन 13 इस तरह तैयार किया गया है कि जिलों में तैनात अथवा राज्य प्रशासन में शामिल कोई भी ऐसा अधिकारी, जिसकी कानून एवं व्यवस्था के प्रबंध में तनिक भी भूमिका है, सांप्रदायिक हिंसा की किसी घटना में आसानी से कर्तव्य निर्वहन में लापरवाही के आरोप में निशाने पर लिया जा सकता है। बस उसके खिलाफ अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति की ओर से उंगली उठाए जाने भर की जरूरत है। अधिकारियों पर बहुसंख्यक समुदाय के कथित दोषियों की मदद करने का भी आरोप लगाया जा सकता है। सेक्शन 14 उन लोकसेवकों के लिए है जो अपने अधिकार क्षेत्र में लोगों पर नियंत्रण करने में असफल रहते हैं। दूसरे शब्दों में उन पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है जिनके अधीनस्थ कोई अपराध करते हैं या उन पर अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ अपराध करने का आरोप लगाया जाता है। जाहिर है, यह कानून यह मानकर चलता है कि किसी अधिकारी को यह जानना चाहिए कि उसके अधीनस्थ क्या अपराध कर सकते हैं? सबसे आघातकारी प्रावधान सेक्शन 16 है, जिसमें पुलिस और अ‌र्द्ध सैनिक बलों मे जवानों को एक प्रकार से अपने वरिष्ठ अधिकारियों की अवज्ञा करने के लिए उकसाया गया है। इस प्रावधान का उद्देश्य यह प्रतीत होता है कि प्रत्येक पुलिसकर्मी यह चिंता करे कि केंद्र सरकार (न कि राज्य सरकार) उसके कार्यो को किस नजरिये से देखेगी और अपनी इस धारणा के आधार पर ही उसे आचरण करना चाहिए। किसी कानून में इससे अधिक गैर-जिम्मेदार प्रावधान तलाश करना कठिन है। प्रस्तावित कानून के तहत सांप्रदायिक सौहार्द, न्याय और क्षतिपूर्ति के लिए एक राष्ट्रीय प्राधिकरण की स्थापना की जानी है। ऐसे ही प्राधिकरण राज्यों में भी बनने हैं। राष्ट्रीय प्राधिकरण को किसी भी इमारत में घुसने और कागजात कब्जे में लेने का अधिकार होगा। इसका अर्थ है कि उसे राज्य सरकार के कार्यालयों में घुसने और यहां तक कि मुख्यमंत्रियों के चैंबर में भी घुसने की आजादी होगी। बिल में अन्य अनेक ऐसे प्रावधान हैं जो संघीय ढांचे की जड़ों पर प्रहार करते हैं और राज्यों को कमजोर बनाते हैं। सबसे अधिक चिंताजनक यह है कि यह कानून अपराधों को सांप्रदायिक नजरिए से देखता है। सरल शब्दों में कहें तो यह अल्पसंख्यक समुदाय की महिला के साथ दुष्कर्म की घटना को अलग रूप में देखता है और बहुसंख्यक समुदाय की महिला के साथ दुष्कर्म को अलग रूप में। लोकतांत्रिक दुनिया में अपराधों को इस तरह सांप्रदायिक नजरिए से देखने का दूसरा उदाहरण ढूंढना मुश्किल है। राजनीतिक दलों को सेक्शन 15 पर गौर करना चाहिए, जिसमें राज्यों में सत्ताधारी दल के पदाधिकारियों को निशाने पर लिया गया है। मतलब साथ है कि केंद्र सरकार इस कानून के जरिये अपने राजनीतिक विरोधियों को कसने की गुंजाइश बनाने जा रही है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717988672019864

1 comment:

ZEAL said...

Nicely written , covering each and every significant point.