Wednesday, August 24, 2011

इस मुनादी में महज जनलोकपाल नहीं

रात साढ़े बारह बजे तिहाड़ जेल के गेट नंबर तीन पर अचानक एक व्यक्ति ने पीछे से हाथ पकड़ते हुए मराठी में कहा, ‘मी शरद पोटले। रालेगन सिद्दि हूण आलो (मैं शरद पोटले। रालेगन सिद्दि से आया हूं)। मुझे 1991 में महाराष्ट्र में अन्ना का वह आंदोलन याद आ गया जो नौकरशाही के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन की शुरुआत कर उन्होंने राज्य सरकार से सीधे कहा था कि भ्रष्ट अधिकारी हटाओ वरना अनशन जारी रहेगा। हफ्ते भर में ही जैसा समर्थन आम लोगों से अन्ना को मिला उससे उस वक्त की कांग्रेस सरकार इतने दबाव में आ गई कि उसने समयबद्ध जांच करवाने के आदेश दे दिए और 40 भ्रष्ट नौकरशाह बर्खास्त कर दिए गए।’

उस आंदोलन में अन्ना हजारे को अनशन के बाद नींबू-पानी का पहला घूंट पिलाने वाला यही शरद पोटले थे। शरद ने उसी वर्ष स्कूल से कॉलेज में कदम रखा था और अन्ना ने पूछा था, बनना क्या चाहते हो। शरद ने पढ़-लिखकर बड़ा बाबू बनने की इच्छा जताई थी। बीस वर्ष बाद जब तिहाड़ जेल के सामने शरद पोटले से पूछा कि कहां बाबूगीरी कर रहे हो तो उसने बताया कि खेती कर रहा हूं। और बाबू बनने का सपना उसने तब छोड़ा जब 199९ में अन्ना ने महाराष्ट्र के भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा और उस वक्त की शिवसेना सरकार अन्ना की जान के पीछे पड़ गई। तब रालेगन सिद्दि के पांच लोगों में एक शरद भी था जो उन अपराधियों को अन्ना की सच्चाई बताकर उनकी जान की कीमत बताई थी जिन्हें अन्ना को जान से मारने की सुपारी दी गई थी।

और फिर अन्ना पर कोई अपराधी हाथ नहीं उठा सका। लेकिन पहली बार 16 अगस्त को दिल्ली पहुंचे शरद ने अन्ना की गिरफ्तारी देखी तो उसे लगा कि दिल्ली में अपराध की परिभाषा बदल जाती है। मगर रात होते-होते जब तिहाड़ जेल के बाहर युवाओं का जुनून देखा तो मराठी में बोला कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है। लेकिन शरद के इस जवाब ने बीते 20 घंटों की सियासी चाल और संसद से लेकर राजनीतिक दलों की पहलकदमी ने पहली बार सवाल यह भी खड़ा किया कि अन्ना हजारे की जनलोकपाल के सवाल को लेकर शुरू हुई लड़ाई अब संसदीय लोकतंत्र को चुनौती दे रही है और राजनीति अन्ना को या तो अपना प्यादा बनाने पर आमादा है या फिर आंदोलन को हड़पने की दिशा में कदम बढ़ा रही है।

सरकार ने चाहे अन्ना की हर शर्त मानते हुए रिहाई का रास्ता साफ किया, लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर संसद के भीतर किसी सांसद ने अन्ना हजारे की मांग को मान्यता नहीं दी। मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे को संसदीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा भी बताया और अपनी विकास अर्थव्यवस्था के खांचे को पटरी से उतरने के लिए अन्ना के आंदोलन के पीछे अंतरराष्ट्रीय साजिश के संकेत भी दिए। यही नहीं, कमोबेश हर पार्टी के सांसद ने अन्ना को मजाक में बदलने की कोशिश की। संसद में बुधवार की बहस से सारे संकेत यही निकले कि पहली बार संसदीय राजनीति को सड़क के आंदोलन से खतरा तो लग ही रहा है। इसलिए अन्ना की महक 1974 के जेपी या 1989 के वीपी आंदोलन में खोजना भूल होगी। यह भूल ठीक वैसी ही है, जैसे महात्मा गांधी ने 1923 में अपनी गिरफ्तारी के विरोध में एक रुपए की जमानत लेने से भी इंकार कर दिया था और जज को यह कहना पड़ा कि ‘अगले निर्णय तक बिना जमानत ही एमके गांधी को रिहा किया जा रहा है।’

ठीक वैसे ही अन्ना ने 16 अगस्त को जमानत लेने से इंकार कर दिया और सरकार के निर्देश पर बिना जमानत ही अन्ना को रिहा कर दिया गया। दरअसल समानता तो यह भी है कि गुजरात में महंगाई के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन से जेपी ने संघर्ष शुरू किया। मामला भ्रष्टाचार तक गया। गिरफ्त में बिहार आया। अंत में वह आंदोलन सत्ता परिवर्तन के बाद ही थमा। हो सकता है जंतर-मंतर से तिहाड़ तक जा पहुंचे, आंदोलन का रुख भी अब महज भ्रष्टाचार का नहीं रहे और आंदोलन धीरे-धीरे उस दिशा में बढ़ता चला जाए, जहां संसदीय राजनीति को चुनौती देते हुए संसदीय राजनीति में बड़े सुधार की बात शुरू हो जाए। लेकिन समझना यह भी होगा कि 74 में जेपी या 89 में तत्कालिक प्रधानमंत्री राजीव गांधी को चुनौती देकर सड़क पर उतरे वीपी सिंह दोनों की पहचान राजनीतिक थी।

अन्ना राजनीतिक नहीं हैं। आंदोलन के लिए रणनीति बनाती अन्ना की टीम राजनीतिक नहीं है। इससे पहले के दोनों दौर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बेहद महीन तरीके से हड़पा और इस बार भी उज्जैन के चिंतन शिविर से 24 घंटे पहले 16 अगस्त को ही हर स्वसंसेवक को यह निर्देश भी दे दिया गया कि उसकी भागीदारी आंदोलन में सड़क पर बैठे लोगों के बीच न सिर्फ होनी चाहिए बल्कि संघर्ष का मैदान खाली न हो इसके लिए हर तरह का संघर्ष करना होगा। यह निर्देश भाजपा के कार्यकर्ता और युवा विंग को भी है। जो सांसद अन्ना को बेमानी मानते रहे और जो उन्हें संसदीय लोकतंत्र को चुनौती देने वाला मानते हैं, वे अन्ना से इसलिए सहमे हुए हैं क्योंकि पहली बार सड़क पर अन्ना आंदोलन के समर्थन में देश भर में लोग जुटे हैं। ऐसे मौके पर अगर प्रधानमंत्री संसद में अपने भाषण में कहते हैं, ‘हम जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं और हम अपने लोकतंत्र पर आंच आने नहीं देंगे।’ तो शरद पोटले की बात याद आ जाती है कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है। और देश में पहली बार लोकतंत्र के मामले में संसद और सड़क की राहें अलग-अलग हैं।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

Source: पूण्‍य प्रसून बाजपेयी | Last Updated 09:55(18/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर

http://www.bhaskar.com/article/ABH-poonya-prasoon-bajpayee-article-2361637.html?ZX3-V

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