Wednesday, August 24, 2011

महज छुट्टी का एक दिन

राष्ट्रीय पर्व को लेकर निरुत्साह पर रोहित कौशिक की टिप्पणी

15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की सुबह किसी काम से घर से बाहर निकला तो देखा कि पड़ोस में रहने वाले मेरे एक मित्र अपने घर के बाहर टहल रहे हैं। वह डिग्री कॉलेज में प्राध्यापक हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि आज आप ध्वजारोहण के लिए कॉलेज क्यों नहीं गए तो उन्होंने उत्तर दिया-भाई साहब, देश को आजाद हुए 60 साल से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन ध्वजारोहण की औपचारिकता आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। इस दिन भाषणबाजी के अलावा होता भी क्या है? ये विचार देश के एक शिक्षक के हैं, उसी शिक्षक के जो समाज को सही रास्ता दिखाता है और जिसे गुरु के रूप में भगवान से भी बड़ा दर्जा प्राप्त है। यह कटु सत्य है कि इस दौर में हम सभी को ध्वजारोहण के लिए अपने विभाग या संस्थान जाना भारी दिखाई देने लगा है। सवाल यह है कि क्या कारगिल जैसे युद्ध के समय एक आम भारतीय का खून खौल जाना ही देशभक्ति है? अकसर देखा गया है जब भी किसी दूसरे देश से जुडे़ आंतकवादी या फौजी हमारे देश पर किसी भी तरह से हमला करते हैं तो हमारा खून खौल उठता है। लेकिन बाकी समय हमारी देशभक्ति कहां चली जाती है? हम बडे़ आराम से देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं, भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाकर शहीदों का अपमान करते हैं तथा अपना घर भरने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं। ऐसे समय में क्या हम देशभक्त कहलाने लायक है। स्पष्ट है कि मात्र बाहरी आक्रमण के समय हमारा खून खौल उठना ही देशभक्ति नहीं है। बाहरी आक्रमण के साथ-साथ देश को विभिन्न तरह के आंतरिक आक्रमणों से बचाना ही सच्ची देशभक्ति है। देश पर आंतरिक आक्रमण कोई और नहीं बल्कि हम ही कर रहे हैं। पिछले 60 वषरें में हमने भौतिक विकास तो किया, लेकिन आत्मिक विकास के मामले में पिछड़ गए। स्वतंत्रता को हमने इतना महत्वहीन बना दिया कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को शहीदों को श्रद्धांजलि देना भी हमें बकवास लगने लगा। इस दौर में हम शहीदों का बलिदान और स्वतंत्रता का महत्व भूल चुके हैं। तभी तो आज हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस कोई मायने नहीं रखता है। मुझे आश्चर्य तब हुआ जब मैंने कुछ विद्यार्थियों से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का अर्थ पूछा और अधिकांश विद्यार्थी ठीक-ठाक उत्तर नहीं दे पाए। मुझे याद आता है अपना बचपन जब लगभग प्रत्येक घर में परिवार के अधिकतर सदस्य 26 जनवरी की परेड देखने के लिए टीवी से चिपके रहते थे। आज हम स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को ढो भर रहे हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह वही आजादी है जिसकी परिकल्पना हमारे शहीदों ने की थी? क्या अपनी ही जड़ों को खोखला करने की आजादी के लिए ही हमारे शहीदों ने बलिदान दिया था? सवाल यह है कि ऐसे दिवसों और आयोजनों से भारतीय जनमानस का मोहभंग क्यों हुआ है? दरअसल हमारे जनप्रतिनिधि लोगों की अपेक्षाओं और उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं। यही कारण है कि आज हमने स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को मात्र एक छुटटी का दिन मान लिया है। ध्वजारोहण के लिए एक-दो घंटे कार्यालय जाने पर छुट्टी का मजा किरकिरा हो जाता है। ऐसा सोचते हुए हम भूल जाते हैं कि हम जिस मजे की बात कर रहे हैं वह शहीदों की शहादत का ही सुफल है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम आजाद हवा में सांस लेने को मजा मानते ही नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पराधीन भारत के दर्द को न तो हमने भोगा है और न ही इस दौर में उसे महसूस करने की संवेदना हमारे अंदर बची है। इसीलिए हमारे मजे की परिभाषा में देर तक सोना, फिल्में देखना या फिर बाहर घूमने-फिरने निकल जाना ही शामिल है। व्यावसायिकता के इस दौर में हम इतना तेज भाग रहे हैं कि अपने अतीत को देखना ही नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए हम और हमारे विचार भी तेजी से बदल रहे हैं। लेकिन इस तेजी से बदलती दुनिया में जो हम खो रहे हैं उसका अहसास हमें अभी नहीं है। भविष्य के लिए बदलना जरूरी है लेकिन अपने अतीत को दांव पर लगाकर नहीं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111718950274153272

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