Tuesday, August 2, 2011

राजनीतिक जिम्मेदारी का सवाल

क्षुद्र स्वार्थ साधने की राजनीति पर प्रभावी रोक आवश्यक मान रहे हैं निशिकान्त ठाकुर

पंजाब और उत्तर प्रदेश समेत कई और राज्यों में चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। चुनाव अगले साल होने हैं। इसके पहले कि निर्वाचन आयोग की आदर्श आचार संहिता लागू हो, राजनेता ऐसे इंतजाम बना लेने को कटिबद्ध दिखने लगे हैं जिनसे उन्हें अधिक से अधिक सीटें मिलने का रास्ता साफ हो जाए। इसके लिए कहीं लोकलुभावन घोषणाएं की जा रही हैं, तो कहीं वषरें से आधे-अधूरे पड़े काम तेजी से पूरे कराए जा रहे हैं। कहीं दागी राजनेताओं पर सख्ती दिखाने के प्रयास किए जा रहे हैं तो कहीं उन्हें बेदाग साबित करने की बेतरह कोशिशें शुरू हो गई हैं। दूसरी तरफ, विपक्ष के अपने प्रयास है। सरकार के अच्छे-बुरे सभी कायरें की आलोचना तो अब विपक्ष का मुख्य कार्य ही हो गया है, निरर्थक आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो गया है। सरकारों पर कई तरह के सच्चे-झूठे आरोप लगाए जाने लगे हैं। कई बार हैरत तब होती है जब वषरें पुराने मामले उठाए जाते हैं। यह समझना मुश्किल होता है कि आखिर अब तक ये मामले क्यों नहीं उठाए गए। यह दौर अब थमने वाला नहीं है। जैसे-जैसे चुनाव का समय निकट आता जाएगा, यह सब बढ़ता ही जाएगा। अब यह सब थमेगा तभी जब चुनाव संपन्न हो जाएंगे और उनके परिणाम सामने आ जाएंगे। जाहिर है, यह सारी कवायद सिर्फ चुनाव जीतने के लिए है। अधिकांश राजनेताओं का लक्ष्य किसी भी तरह से केवल चुनाव जीतना और चुनाव जीत कर सत्ता हासिल कर लेना भर रह गया है। सत्ता हासिल करने की दौड़ का उद्देश्य क्या है, यह भी बिलकुल साफ है। जनता अच्छी तरह जानती है कि उसका भला करना या देश अथवा राज्य का विकास करना अधिकतर राजनेताओं की प्राथमिकता में अब शामिल नहीं है। दूसरे कई व्यवसायों की तरह राजनीति भी अब एक करियर हो कर रह गई है। अधिकतर नेताओं की प्रतिबद्धताएं केवल दलों और दलों में भी केवल पार्टी आकाओं तक सीमित हो गई हैं। खुद पार्टियों के भीतर ही लोकतांत्रिक ढांचा चरमराता दिख रहा है। आंतरिक लोकतंत्र के प्रतीक पार्टियों के संगठनात्मक चुनाव सिर्फ औपचारिकता बन कर रह गए हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि देश की कई प्रमुख पार्टियों के अध्यक्ष कई वषरें तक बदलते नहीं दिख रहे हैं। न तो उनका विधिवत चुनाव होता है और न खानापूरी के लिए कराए जाने वाले चुनाव में कोई आम राय बनाने की कोशिश होती है। इस मामले में अधिकतर या तो परिवारवाद हावी दिख रहा है या फिर ऊपर से मनोनीत कर कोई अध्यक्ष पद पर बैठा दिया जाता है। अब सवाल यह है कि जब पार्टियों के भीतर ही आंतरिक लोकतंत्र नहीं रह गया है और पार्टियों के अधिकतर नेताओं में इस परिपाटी के विरोध की कोई इच्छा तक दिखाई नहीं देती है तो फिर उनसे अपने शासन वाले प्रदेश या देश में लोकतांत्रिक परंपराओं को सम्मान देने की उम्मीद किस तरह की जाए? लोकतांत्रिक मूल्यों को वास्तविक सम्मान न मिलने का ही नतीजा है जो सरकारों के कामकाज की प्रक्रिया में भी लोकतांत्रिक परंपराओं का निर्वाह दिखाई नहीं देता है। लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण का परिणाम यह हुआ है कि अब व्यवस्था की सोच के केंद्र में केवल तंत्र रह गया है, बेचारा लोक तो हाशिये पर चला गया है। लोक के हाशिये पर होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि अधिकतर बड़ी पार्टियों का आम जनता की रोजमर्रा की समस्याओं से कोई सरोकार ही नहीं रह गया है। जनता भले ही बढ़ती महंगाई के बोझ तले दबी जा रही है, बेकारी और भ्रष्टाचार जैसी समस्याएं अधिक से अधिक विकराल होती चली जा रही हैं, बिजली-पानी का संकट हर तरफ बढ़ता जा रहा है, सूखे और बाढ़ जैसी समस्याओं के स्थायी समाधान का कोई उपाय नहीं हो रहा है, और तो और इन समस्याओं का जिक्र तक किसी बड़ी पार्टी के एजेंडे में दिखाई नहीं देता है। सबसे अधिक हैरत तो तब होती है जब कुछ राज्यों में पार्टियां जनता में भयावह असंतोष के बावजूद दोबारा चुनकर सत्ता में आ जाती हैं। तब हर आदमी के मन में सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे होता है? कुछ राज्यों में तो और भी विचित्र स्थिति दिखाई देती है। वहां चाहे कोई पार्टी कितना भी काम कर ले, लेकिन अगले चुनाव में उसे सत्ता से बाहर होना ही होता है। कम से कम अब तक का चुनावी इतिहास तो यही बताता है और इससे विकास कायरें की निरंतरता प्रभावित होती है। राजनीतिक विश्लेषक इसे सत्ता विरोधी लहर का नाम देकर चुप बैठ जाते हैं। यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता है कि आखिर यह सत्ता विरोधी लहर क्यों चली? निश्चित रूप से इन दोनों ही स्थितियों से उठने वाले सवालों के मूल में लोकतंत्र के विकास की प्रक्रिया से जुड़े कुछ गंभीर संकेत निहित हैं। उन संकेतों को जानने और समझने के गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए। अगर कोई काम न करने के बावजूद सत्ता में दोबारा आ जाता है तो निश्चित रूप से उसके पीछे सफल चुनाव प्रबंधन का हाथ किसी न किसी रूप में होता है। अब यह बात किसी से छिपी नहीं रह गई है कि पार्टियां चुनावी प्रबंधन के लिए पेशेवरों की मदद ले रही हैं। लेकिन लोक की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को दरकिनार करके केवल प्रबंधन के बूते चुनाव जीतने की यह प्रक्रिया कब तक चलेगी? इससे भी गंभीर सवाल यह है कि इसके नतीजे क्या होंगे? अगर सिर्फ सत्ता के लिए ही सरकार बननी है तो फिर लोकतंत्र का अर्थ क्या है? भारत में कौटिल्य, शुक्राचार्य और मनु ने तो ऐसे राजतंत्र तक को शासन के लिए सर्वथा अयोग्य बताया है जो जनहित और राष्ट्रहित की परवाह किए बगैर कोई कार्य करे। उस देश में जनहित और राष्ट्रहित की परवाह छोड़कर सिर्फ परिवार हित में कार्य करने वाली सरकारें बन और चल रही हैं, क्या यह कम चिंता का विषय है? सच तो यह है कि आज पूरे देश की जनता अजीब पसोपेश में है। कई बार वह सिर्फ इसलिए पिछली ही सरकार को सत्ता सौंप देती है क्योंकि उसे कोई सही विकल्प दिखाई नहीं देता है और कई बार सही काम करने वाली सरकारों को भी इसलिए बाहर का रास्ता दिखा देती है क्योंकि वह दूसरी पार्टियों की लोकलुभावन घोषणाओं के झांसे में आ जाती है। लोकलुभावन घोषणाओं के फेर में फंसते समय लोग यह क्यों नहीं सोच पाते हैं कि आखिर ये अतार्किक वादे किसके पैसे से पूरे किए जाएंगे? क्या राज्य का खजाना उनका अपना धन नहीं है, जिसे लुटाने की खुली छूट वे देने जा रहे हैं? इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में लोकतंत्र लगातार परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है, लेकिन साथ ही यह भी सच है कि वह चेतना के स्तर पर एक खतरनाक दौर से गुजर रहा है। क्षुद्र स्वार्थ साधने की राजनीति पर अगर प्रभावी विराम न लगाया गया तो जनता में असमंजस की यह स्थिति देश को अराजकता की ओर भी ले जा सकती है। इसका समाधान राजनेताओं को ही सोचना होगा, क्योंकि देश के नेतृत्व की जिम्मेदारी प्रथमत: और अंतत: उनके ही सिर पर है।
(लेखक दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=9&category=&articleid=111717753674085000

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