Wednesday, August 3, 2011

प्रधानमंत्री से राष्ट्रीय अपेक्षा

प्रधानमंत्री के पद से आम जनता की जो अपेक्षाएं हैं उन्हें रेखांकित कर रहे हैं जगमोहन सिंह राजपूत

1950-55 के बीच उत्तर प्रदेश के अनेक गांवों में कुछ पंक्तियां बड़े उत्साह से बार-बार दोहराई जाती थी- आजाद हिंद हो गए, चमके हैं सितारे। अब हो गए हैं बादशाह, नेहरू जी हमारे। आज स्थिति बदल गई है। भारत का सामान्य नागरिक जानता है कि प्रधानमंत्री का पद क्या होता है, मोटे तौर पर उसका अधिकार क्षेत्र कितना विस्तृत है और इस पद पर नियुक्त व्यक्ति से सामान्य जन अपार अपेक्षाएं रख सकते हैं। सभी जानते हैं कि हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री बहुत कम बोलते हैं। वैसे प्रधानमंत्री का हर शब्द लोगों का ध्यान आकर्षित करता है। जब भी वह लोगों से या संचार माध्यमों से संवाद स्थापित करते हंै तो उससे समाचार पत्रों में हेड लाइन तथा टेलीविजन चैनलों में ब्रेकिंग न्यूज बनती है। एक अकादमिक प्रोफेसर का व्यक्तित्व जनता के साथ उसके मुद्दों को लेकर संघर्ष के रास्ते से उभरे राजनेता से सदा अलग ही रहेगा। वैसे लोग अपने अलभ्य तथा मौनप्रिय प्रधानमंत्री से संवाद स्थापित करने की अपेक्षा तो आज भी करते ही हैं। जब लोग मनमोहन सिंह की उपलब्धियों और अनदेखियों का विश्लेषण करते हैं तो वे उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों को भी स्वाभाविक तौर पर याद करते हैं। आज की युवा पीढ़ी को संभवत: यह अनुमान लगाना कठिन होगा की नेहरू की भारत के जनमानस में क्या स्थिति थी, उनका व्यक्तित्व किस ऊंचाई पर था? अधिकंाश लोग उनके जैसा प्रधानमंत्री पाना गर्व की बात मानते थे। सन् 1962 में उनके सम्मान की स्थिति में बदलाव आया और उसका प्रभाव उन पर भी पड़ा। आज भी लोग जम्मू- कश्मीर तथा कई अन्य नीतिगत निर्णयों को लेकर उनसे अपनी असहमति जताते हैं, परंतु उनके व्यक्तित्व की श्रेष्ठता को उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं। प्रधानमंत्री पद के लिए विद्वता ही एक मात्र आवश्यकता नहीं हो सकती है। नेहरू, मनमोहन सिंह तथा नरसिंह राव विद्वानों की श्रेणी में आते हैं, परंतु उनके राजनीतिक कार्यकाल का अवलोकन अन्य तत्वों पर आधारित होता है। लोग प्रधानमंत्री से सही समय पर उचित निर्णय लेने की अपेक्षा करते हैं और उसकी इस क्षमता का लगातार आकलन और विश्लेषण करते रहते हैं। लाल बहादुर और इंदिरा गांधी दृढ़ निश्चय लेने के लिए जाने जाते जाते हैं। शास्त्रीजी जब प्रधानमंत्री बने तब लोगों के मन में उनके प्रति सम्मान तो था, परंतु इस बात को लेकर आशंकाएं थीं कि वह जवाहर लाल नेहरू के समकक्ष अपना व्यक्तित्व उभार सकेंगे। वे इसमें सफल रहे। मोरार जी देसाई अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने के लिए जाने जाते थे। इंदिरा गांधी ने अपार साहस का परिचय दिया, परंतु बाद के वर्षो में जनता ने उन्हें कुछ निर्णयों के लिए अपनी असहमति तथा आक्रोश अच्छी तरह समझा दिया। देवगौड़ा तथा गुजराल जब प्रधानमंत्री बनें तब लोगों ने कहा कि क्या लोग जोड़ गांठ करके भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं? इनके अलावा चरण सिंह की छवि इस पद पर आने से ऊपर की ओर नहीं गई तथा चंद्रशेखर को लोग उनके युवा तुर्क व्यक्तित्व से आगे नहीं ले गए। लोगों ने धीरे-धीरे यह महसूस किया कि अल्पकालीन सरकार या प्रधानमंत्री नहीं चाहिए। केंद्र सरकार की स्थिरता देश के विकास और प्रगति के लिए आवश्यक है। पिछले 10-11 वर्षो में लोगों ने गठबंधन सरकार को लेकर जो अनुभव किया है वह पूरी तरह नकारात्मक है। यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि लोग इस प्रकार की सरकारों से ऊब रहे हैं। गठबंधन सरकार से प्रधानमंत्री पद की गरिमा घटती है। उसके विशेषाधिकारों का हनन होता है और निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है। आज विश्व की दृष्टि भारत के ऊपर है। वह एक आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित हो रहा है। जो गरिमा और प्रतिष्ठा देश को लगातार हर तरफ में मिल रही थी वह अपने ही कुछ लोगों के द्वारा नीचे खींच ली गई है। चंद लोगों ने भारत को एक अतिभ्रष्ट राष्ट्र के रूप में विश्व के सामने खड़ा कर दिया है। आतंकवाद का दृढ़ता से मुकाबला करने की क्षमता पर भी लोग आश्वस्त नहीं है। प्रशासनिक अक्षमता के इस वातावरण में सर्वोच्च न्यायालय को उन मुद्दों पर निर्णय लेने पड़ रहे हैं जहां सामान्यत: कार्यपालिका को प्रभावशाली होना चाहिए था। माओवादी तथा नक्सलवादी अपने रास्ते पर लगभग निर्बाध रूप से आगे बढ़ रहे हैं। किसानों की ज़मीन जिस तरह सरकारों द्वारा लेकर बिल्डरों को परोसी जा रही है उसके अंदर की कहानी पर अब किसी को कोई शंका नहीं रही है। उत्तर पूर्व के प्रांतों तथा कश्मीर की समस्याएं लगातार जटिल ही होती जा रही हैं। बढ़ती महंगाई पर सरकार ने हथियार डाल दिए हैं। जब आम जनता भारत के भावी प्रधानमंत्री पद की संकल्पना अपनी चर्चा में लाती है तब यह विश्वास बढ़ता है कि भारत की जनतंत्र की जड़ें तमाम अवरोधों के बावजूद गहरी होती जा रही है। देश के लोगों को ऐसा प्रधानमंत्री चाहिए जो उनके साथ आत्मीयता के संबंध और सतत संवाद बना सके। प्रधानमंत्री को लगातार लोगों की इच्छाओं, अपेक्षाओं तथा आकांक्षाओं की नब्ज पर निगाह बनाए रखनी होगी। उसे अपने आस-पास के लोगों की सलाहों की उपयोगिता तथा व्यवहारिकता का स्वतंत्र आकलन करने की क्षमता भी दर्शानी होगी। प्रधानमंत्री से यह अपेक्षा सदा की जाएगी कि वह गांधीजी के उस व्यक्ति को याद रखे जो पंक्ति में सबसे पीछे खड़ा है। इस देश में वही प्रधानमंत्री सफल हो सकता है जो अपना व्यक्तित्व राजनीतिक दल में रहते हुए भी इतना ऊंचा बना ले कि विरोधी भी उसे पद के लायक समझें। अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व इसी प्रकार विकसित हुआ था। उनके प्रधानमंत्री बनने से बहुत पहले ही लोग दलगत राजनीति से हटकर उन्हें उस पद के लायक समझने लगे थे। राष्ट्रीय अपेक्षा यही है कि ऐसा ही कोई व्यक्तित्व फिर उभरे और जनता को साथ लेकर देश को गरीबी, भुखमरी तथा भ्रष्टाचार से उबारने का दृढ़ संकल्प साकार कर सके।
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717841274093368

No comments: