Wednesday, August 24, 2011

भ्रष्टाचार पर सही संदेश

जब देश भ्रष्टाचार के विरोध में उबल रहा है तब यह सुखद है कि राज्यसभा ने धन की हेराफेरी और कदाचार के आरोपी कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को हटाने संबंधी महाभियोग आवश्यक बहुमत से पारित कर दिया। इस महाभियोग प्रस्ताव का पारित होना एक ऐतिहासिक घटना है, क्योंकि स्वतंत्र भारत में यह पहली बार है जब किसी न्यायाधीश के खिलाफ संसद के उच्च सदन ने महाभियोग प्रस्ताव पारित किया हो। इस ऐतिहासिक क्षण के बावजूद तथ्य यह है कि सौमित्र सेन की न्यायाधीश पद से विदाई तब हो सकेगी जब लोकसभा से भी ऐसा ही प्रस्ताव पारित होगा। इससे यह स्पष्ट है कि उच्चतर न्यायपालिका के किसी भ्रष्ट न्यायाधीश को हटाना कितना जटिल काम है। सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा की कार्रवाई के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह एकलौते ऐसे न्यायाधीश हैं जो कदाचार में लिप्त पाए गए। सच्चाई यह है कि ऐसे न्यायाधीशों के नाम सामने आते रहे हैं जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे और फिर भी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। यदि सिक्किम उच्च न्यायालय के न्यायाधीश दिनकरन त्यागपत्र नहीं देते तो वह महाभियोग प्रस्ताव का सामना करने तक अपने पद पर बने रहते। भ्रष्ट न्यायाधीशों को महाभियोग के जरिये हटाने की प्रक्रिया का एक पहलू यह भी है कि जब कभी ऐसी नौबत आती है तो संकीर्ण राजनीति भी सतह पर आ जाती है। यह जानना कठिन है कि बसपा को सौमित्र सेन के बचाव में खड़े होने की क्यों सूझी? सौमित्र सेन के पहले 1993 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी ने महाभियोग का सामना किया था, लेकिन तब कांग्रेस ने उनका वैसे ही बचाव किया था जैसे बसपा ने सौमित्र सेन का किया। सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान राज्यसभा ने लगभग एक मत से महसूस किया कि न्यायिक जवाबदेही विधेयक के पारित होने में आवश्यकता से अधिक देरी हो रही है। दुर्भाग्य से यह राजनीतिक दलों को ही बताना है कि यह विधेयक पारित होने का नाम क्यों नहीं ले रहा है? जनता को केवल इस सवाल का ही जवाब नहीं चाहिए, बल्कि वह यह भी जानना चाहती है कि आखिर संसद सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में समर्थ क्यों नहीं हो पा रही है? पिछले दिनों अन्ना हजारे की गिरफ्तारी के मुद्दे पर संसद में चर्चा के दौरान ज्यादातर नेताओं ने जन लोकपाल के खिलाफ तो ढेरों तर्क दिए, लेकिन उनमें से कोई भी आम जनता को इस पर संतुष्ट करने में समर्थ नहीं हो सका कि सरकार द्वारा पेश लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने में समर्थ साबित होगा। यह निराशाजनक है कि जब जन लोकपाल के मुद्दे पर सारा देश अन्ना हजारे के पीछे खड़ा हो गया है तब संसद में एक ऐसे लोकपाल विधेयक पर विचार होने जा रहा है जिस पर जनता भरोसा करने के लिए तैयार नहीं। यह सही है कि कानून बनाने का अधिकार संसद को ही है, लेकिन उसने यह देखने-समझने की दृष्टि खो दी है कि कानून का निर्माण जन भावनाओं के अनुरूप हो। संसद का यह दायित्व बनता है कि देश को यह भरोसा दिलाए कि वह सर्वोच्च होने के साथ-साथ सक्षम भी है।
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111719108074071968

No comments: