Friday, August 5, 2011

फई के तरफदार

आइएसआइ के एजेंट फई की गिरफ्तारी पर गजनफर बट्ट की टिप्पणी

पाक खुफिया एजेंसी आइएसआइ द्वारा कश्मीर के बारे में अमेरिकी सोच को प्रभावित करने के लिए गुलाम नबी फई को मोटी रकम दिए जाने के खुलासे से पश्चिमी देशों को भले ही चिंता हुई हो, लेकिन इससे जम्मू-कश्मीर के लोगों को कोई हैरानी नहीं हुई है। जहां तक कश्मीर में अलगाववादियों का सवाल है वे तो इसे आइएसआइ की वैध गतिविधि मानते हैं। उन्हें बस इस बात की चिंता है कि इस प्रकार की सहायता धीरे-धीरे कम हो सकती है। गुलाम नबी फई द्वारा संचालित कश्मीर-अमेरिकी काउंसिल को अपना बोरिया-बिस्तरा समेटना पड़ सकता है या फिर आइएसआई कामकाज किसी और संगठन को सौंप सकती है। अमेरिका के न्याय विभाग ने बिना अनुमति के किसी विदेशी सरकार के लिए काम करने के कानून के उल्लंघन के आरोप में फई को गिरफ्तार किया था। उसके एक साथी जहीर अहमद को नकली दानदाताओं की तलाश का आरोपी ठहराया गया है, जिसके जरिये आइएसआइ ने धन दिया था। इस खुलासे से न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर, स्तंभकार कुलदीप नैयर, दिलीप पडगांवकर, प्रफुल्ल बिदवई, भारतभूषण और सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा जैसे कई प्रख्यात भारतीयों को परेशानी हुई है। इनमें से कुछ ने कहा है कि उन्हें फई को आइएसआइ द्वारा धन दिए जाने के बारे में पता नहीं था और उन्होंने इन सम्मेलनों में कश्मीर पर तथ्यात्मक दृष्टिकोण रखा था। यह और बात है कि उनके विचारों को बैठकों के अंत में जारी बुलेटिनों में स्थान नहीं दिया गया या नगण्य स्थान दिया गया। कुछ प्रख्यात अमेरिकी कानून निर्माता भी इस खुलासे से प्रभावित हुए हैं, जिन्हें दान के रूप में कश्मीर-अमेरिकी काउंसिल से धन मिला था। भारत-विरोधी डेन बर्टन जैसे लोगों की साख गिरी है। अमेरिकी न्याय विभाग ने बताया है कि फई को मेजर जनरल मुमताज बाजवा के नेतृत्व में आइएसआइ अधिकारियों से निर्देश मिलते थे और सम्मेलनों का एजेंडा भी आइसीआइ ही तय करती थी। दो दशकों से भी अधिक से फई आइएसआइ के लिए काम कर रहा था और कैपिटल हिल में वह एक जानी-मानी हस्ती था। कट्टरपंथी सैयद अली शाह गिलानी ने फई की रिहाई के लिए अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से मदद मांगी थी। फई के सम्मेलनों में भाग लेने वाले उदारवादी हुर्रियत नेता मीरवाइज उमर फारुख ने भी फई का समर्थन किया है। सवाल यह उठ रहा है कि क्या अमेरिका को फई के वित्तीय श्चोतों के बारे में पता नहीं था। सच तो यह है कि अमेरिका ने सालों से इस सच्चाई से मुंह फेर रखा था। 90 के दशक के आरंभ में पाकिस्तानी सेना के नियंत्रण में तालिबान को वैध माना जाता था। कश्मीरी अलगाववादियों को भी पश्चिमी देशों का समर्थन मिल रहा था। व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले और मुशर्रफ सरकार की दोहरी नीतियों से अमेरिका को अहसास हो गया था कि आतंकवाद को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। लंदन के जस्टिस फाउंडेशन पर भी जिहादी संगठनों को धन देने के आरोप लगाए जा रहे हैं। ब्रुसेल्स केंद्र ने 2007 में यूरोपीय संसद को बैरोनेस रिचर्डसन द्वारा सौंपी गई एक रिपोर्ट के खिलाफ एक असफल अभियान चलाया था। इस रिपोर्ट में गिलगित और बाल्टिस्तान की तुलना ब्लैकहोल से की गई थी। इस रिपोर्ट के पक्ष में 522 वोट पड़े थे और विरोध मे नौ। 19 लोग अनुपस्थित रहे थे। कश्मीर-अमेरिकी काउंसिल द्वारा संचालित तमाम कश्मीर केंद्रों को बंद कर दिया जाना चाहिए। अलगाववादियों को तो कोई बहाना चाहिए। अमेरिका में फई की गिरफ्तारी से उन्हें बंद का बहाना मिल गया है। कुलगाम में दो वर्दीधारी लोगों द्वारा एक महिला से कथित बलात्कार से तो जैसे उनका मकसद और मजबूत हो गया। जबकि इस महिला के परिवारजनों के अनुसार यह महिला विक्षिप्त थी और एक ही दिन से वह लापता थी, दो दिन से नहीं। सवाल यह भी उठ रहा है कि वे दो वर्दीधारी कहीं उग्रवादी तो नहीं थे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111717970071962496

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