Tuesday, August 2, 2011

न्यायिक सक्रियता पर बेसुरे बोल

न्यायपालिका की सक्रियता पर उंगली उठा रहे राजनीतिक दलों को आत्मनिरीक्षण की सलाह दे रहे हैं राजीव सचान

यह महज संयोग नहीं हो सकता कि लगभग सभी राजनीतिक दल न्यायिक सक्रियता को लेकर बेचैन नजर आने लगे हैं। न्यायिक सक्रियता के खिलाफ एक बार फिर मोर्चा खोला है पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने। उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट की वह टिप्पणी रास नहीं आई जो उसने सुरेश कलमाड़ी की संसद के मानसून सत्र में शामिल होने के लिए दायर की गई याचिका पर की थी। हाईकोर्ट ने कहा था कि आखिर कलमाड़ी के लिए संसद में भाग लेना इतना जरूरी क्यों है? क्या सरकार गिरी जा रही है? हाईकोर्ट ने उनके संसद में शामिल होने का ब्योरा भी मांग लिया है। हालांकि सोमनाथ चटर्जी अब किसी सदन के सदस्य नहीं हैं, लेकिन अनेक दलों के सांसदों ने उनके सुर में सुर मिलाया है। सोमनाथ चटर्जी इसके पहले भी न्यायिक सक्रियता के खिलाफ खड़े हो चुके हैं, लेकिन यह कहना सही नहीं होगा कि ऐसा करके उन्होंने विधायिका अथवा कार्यपालिका का भला किया। लोकसभा अध्यक्ष के रूप में उन्होंने धन के बदले सवाल कांड में 11 सांसदों को बर्खास्त करने के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की नोटिस का संज्ञान लेने से भी यह कहकर इंकार कर दिया था कि यह विधायिका में हस्तक्षेप है। पता नहीं ऐसा था या नहीं, लेकिन यह सबने देखा कि सोमनाथ चटर्जी के लोकसभा अध्यक्ष रहते ही नोट के बदले वोट कांड में लीपापोती हुई। इस मामले की जांच के लिए गठित सांसदों की समिति ने सभी संदिग्ध लोगों से पूछताछ किए बगैर अपनी रिपोर्ट दे दी। इस रिपोर्ट में किसी को दोषी नहीं बताया गया। बस यह कहकर छुट्टी पा ली गई कि आगे जांच की जरूरत है। जब यह रिपोर्ट आई तब सोमनाथ लोकसभा अध्यक्ष पद पर ही विराजमान थे, लेकिन उन्होंने यह सुनिश्चित नहीं किया कि इस मामले की आगे जांच हो। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। यह समझने के लिए किसी को विशेषज्ञ होने की जरूरत नहीं कि दिल्ली पुलिस ने किसके इशारे पर ढिलाई बरती होगी। इस ढिलाई के खिलाफ दायर की गई याचिका पर जब सुप्रीम कोर्ट ने तीखे तेवर अपनाए तो दिल्ली पुलिस यकायक हरकत में आ गई। क्या सोमनाथ चटर्जी अथवा उनके सुर में सुर मिला रहे अन्य नेता यह बताएंगे कि नोट के बदले वोट कांड में सुप्रीम कोर्ट को सक्रियता क्यों दिखानी पड़ी? अदालतों के जिन फैसलों को न्यायिक सक्रियता की संज्ञा देकर चिंता जताई जा रही है उनमें एक मामला कालेधन की जांच के लिए विशेष जांच दल के गठन का है। सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल के गठन का फैसला तब दिया जब वह इस नतीजे पर पहुंचा कि सरकार कालेधन की जांच के नाम पर हीलाहवाली कर रही है। यह सही है कि इस तरह के मामलों की जांच का अधिकार सरकार का है, लेकिन आखिर जब सरकार अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने के बजाय जनता की आंखों में धूल झोंके तो क्या न्यायपालिका सब कुछ जानते हुए भी ऐसा होने दे? क्या इसमें कोई संदेह रह गया है कि सरकार काले धन की जांच का दिखावा कर रही है? यदि सुप्रीम कोर्ट फटकार नहीं लगाता तो यह तय है कि सरकार कालेधन के खिलाफ दिखावटी कदम भी उठाने वाली नहीं थी। दरअसल जनमत और विपक्ष की अवहेलना करना इस सरकार का स्वभाव बन गया है। जब विपक्ष किसी मुद्दे पर उसका विरोध करता है तो यह उसे उसकी बौखलाहट नजर आती है और जब जनता कोई सवाल उठाती है तो वह ऐसा जाहिर करती है जैसे आम लोगों को तो पांच साल तक बोलने का अधिकार ही नहीं रह गया है। सरकार के इस रवैये के तमाम प्रमाण सामने आ चुके हैं। सबसे शर्मनाक प्रमाण सीवीसी के रूप में पीजे थॉमस की नियुक्ति का था। सरकार अच्छी तरह जान रही थी कि थॉमस इस पद के योग्य नहीं, लेकिन वह उन्हें सीवीसी बनाने पर न केवल अड़ी, बल्कि बेशर्मी के साथ उनके पक्ष में हलफनामे भी देती रही। यदि न्यायपालिका दखल नहीं देती तो आज थॉमस सीवीसी के रूप में देश को मुंह चिढ़ा रहे होते। इसी तरह यदि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में न्यायपालिका दखल नहीं देती तो संभवत: ए राजा अभी भी दूरसंचार मंत्रालय में होते और प्रधानमंत्री उन्हें क्लीनचिट दे रहे होते। सुप्रीम कोर्ट के सलवा जुडूम संबंधी फैसले पर करीब-करीब सभी दलों को एतराज है। इस एतराज के पीछे उचित आधार हो सकते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान की भावना के अनुरूप है। इस एक फैसले के आधार पर न्यायिक सक्रियता को लेकर सवाल खड़े करने का कोई मतलब नहीं। राजनीतिक दल और विशेष रूप से विधायिका एवं कार्यपालिका के अधिकारों को लेकर सचेत लोग यह समझें कि एक के बाद एक मामले इसलिए अदालतों तक पहुंच रहे हैं, क्योंकि संसद और सरकारें अपना काम नहीं कर पा रही हैं। यदि भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन हो जाता तो इससे जुड़े विवाद अदालतों तक नहीं जाते, लेकिन इस कानून में संशोधन करने के बजाय संकीर्ण राजनीतिक हितों को महत्व दिया गया। संप्रग सरकार को अपने पहले कार्यकाल में ही भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन का विधेयक संसद से पारित कराना था, लेकिन उसने ऐसा करने के बजाय ममता बनर्जी को महत्व दिया। मनमोहन सरकार किस तरह अपना काम नहीं कर पा रही है, इसका प्रमाण यह है कि संसद के इस सत्र में 35 से अधिक पुराने विधेयकों का फैसला होना है और करीब 30 नए विधेयक पेश किए जाने हैं। यह कहना कठिन है कि इनमें से कितने पारित हो पाएंगे। वह लोकपाल विधेयक संसद के इसी सत्र में पेश करने की घोषणा कर ऐसा जाहिर कर रही है जैसे उसने कोई क्रांतिकारी कदम उठा लिया हो। सच्चाई इसके विपरीत है। एक आधे-अधूरे लोकपाल विधेयक को सिर्फ इसलिए संसद में पेश किया जा रहा है ताकि जनता से मुंह चुराया जा सके।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=9&category=&articleid=111717753674079480

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