Wednesday, August 24, 2011

आत्मघात पर आमादा सरकार

अन्ना हजारे के आंदोलन के संदर्भ में केंद्र सरकार की दलीलों में आपातकाल वाली मानसिकता देख रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता

आपातकाल को लेकर मेरी स्मृति पर अमिट छाप दिल्ली विश्वविद्यालय के दो प्रगतिशील प्राध्यापकों की बातचीत की पड़ी। इनमें से एक ने उल्लासपूर्वक दूसरे से कहा कि संस्कृत विभाग में प्राध्यापकों की कमी हो गई है। इनमें से अधिकांश को गिरफ्तार कर लिया गया है। उनकी आवाज में न तो गुस्सा था और न ही भय, था तो तुच्छ आनंद। इस खुशी का अंतनिर्हित भाव विश्वविद्यालय से चिरपरिचित लोगों के लिए स्पष्ट था। संस्कृत विभाग में जनसंघी और खाकी हॉफ पैंट वाले थे और इसलिए वे सहानुभूति के पात्र नहीं थे। भय से भरे उन दिनों में विश्वविद्यालय के दो छोर थे। कृपापात्र ध्रुव में प्रगतिशील कांग्रेसी कार्यकर्ता और सोवियत संघ के मित्र भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य शामिल थे, जबकि दूसरे ध्रुव पर वे लोग थे जिन्हें प्रगतिशील दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक और जातिवादी नामों से पुकारते थे। इतिहास के प्रगतिशील संस्करण के अनुसार, (जिसे भारत के प्रमुख पाठ्य पुस्तक इतिहासकारों ने बड़ी वफादारी से लिखा है) यह कट्टरपंथी, सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों का इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल करने का अभियान था। इसके लिए संसदीय प्रक्रिया और पार्टी व्यवस्था को संकट में डाल दिया गया था। इसी कारण सरकार को आपातकाल लगाने को मजबूर होना पड़ा था। चूंकि लोकतंत्र को इसके शत्रुओं से बचाने के लिए आपातकाल लागू किया गया तो स्वाभाविक रूप से संवैधानिक सरकार के संस्कृत भाषी शत्रुओं का एक ही उचित स्थान था-जेल। पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में होने वाली नाटकीय घटनाओं, खासतौर पर प्रधानमंत्री के इस बयान कि संसद को सड़क की भीड़ के हवाले नहीं किया जा सकता, में संसद की शक्तियों और पवित्रता की वैसी ही गलत व्याख्या की जा रही है जैसी 36 साल पहले आपातकाल लागू करते वक्त की गई थी। उस समय भी इसे भ्रष्टाचार व स्वेच्छाचारिता में जंग और लोकतंत्र व संसदीय प्रक्रिया के लिए चुनौती के रूप में प्रचारित किया गया था। लामबंदी के संदर्भ में लोगों को सड़कों पर लाने की जयप्रकाश नारायण की क्षमता अन्ना हजारे के एकजुटता के प्रदर्शन से कहीं अधिक थी। 6 मार्च, 1975 को जयप्रकाश नारायण ने आठ किलोमीटर लंबे संसद मार्च का नेतृत्व किया था। हालांकि, प्रत्यक्ष समानताओं के बावजूद यह कहना गलत होगा कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के प्रति मनमोहन सिंह का रवैया आपातकाल सरीखे हालात पैदा कर रहा है। इसमें कुछ महत्वपूर्ण अंतर हैं। अन्ना का आंदोलन स्वत:स्फूर्त, मीडिया समर्थित और मैगसेसे पुरस्कार विजेता लोगों के भरोसे है, वहीं इसके विपरीत जेपी आंदोलन इससे कहीं अधिक संगठित था और इसे सभी प्रमुख गैरकम्युनिस्ट पार्टियों और उनसे संबंधित छात्र संगठनों का समर्थन हासिल था। जयप्रकाश नारायण प्रतीकात्मक नेता मात्र थे। उनके आंदोलन में मुख्य भूमिका राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं ने निभाई। जबकि अन्ना आंदोलन से जानबूझ कर राजनीतिक पार्टियों को दूर रखा गया है। इसका एक कारण यह भी है कि पूरा राजनीतिक तबका ही अपने आप में समस्या बन गया है। इसके अलावा तथाकथित अन्ना टीम को राजनेताओं द्वारा आंदोलन ग्रहण कर लिए जाने का भी खतरा है। राजनीतिक दलों से अलगाव के कारण अन्ना की नैतिक श्रेष्ठता का आभामंडल बन गया है। हालांकि, इस सच्चरित्रता के अतिरंजित भाव की कीमत भी चुकानी पड़ी है। अन्ना आंदोलन की सामाजिक गहराई सीमित है। भौगोलिक रूप से यह मेट्रो और बड़े शहरों तक सीमित है और सामाजिक रूप से यह मुख्यत: छात्रों, सेवानिवृत्त लोगों और छोटे व्यापारियों तक सीमित रह गया है। अयोध्या और मंडल आंदोलन की तुलना में अन्ना का आंदोलन एक उत्सव सरीखा लगता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा अन्ना हजारे के खिलाफ कार्रवाई को दिल्ली पुलिस प्रमुख का स्वायत्त ऑपरेशन बताना राजनीतिक अक्षमता और संप्रग सरकार की कमजोरी को उजागर करता है। आपातकालीन मन:स्थिति के कारण ही गलत आकलनों का सिलसिला शुरू हुआ। रामदेव आंदोलन के दमन की सफलता से उत्साहित सरकार ने सोचा कि यही प्रक्रिया अन्ना हजारे के खिलाफ भी कारगर साबित होगी। अन्ना हजारे और उनकी टीम के चरित्रहनन के प्रयासों और बाद में गिरफ्तारी से यह साफ हो गया था कि कांग्रेस टकराव की लाइन पर चल रही है। यह सरकार की आपातकालीन मन:स्थिति ही थी जिस कारण उसने एक दुरूह बिल के मुद्दे को व्यापक जनाक्रोश में बदल दिया और अपनी ऐसी छवि बना ली कि उसे लोकतांत्रिक अधिकारों की लेशमात्र भी परवाह नहीं है। ठीक ऐसा ही रामदेव प्रकरण में हुआ था, किंतु इस बार अन्ना मामले में सरकार ने गलत नंबर मिला दिया। तिहाड़ जेल में समर्थन ने सरकार की कमजोरी को उजागर कर दिया। इससे सरकार की स्थिति हास्यास्पद हो गई। साथ ही जानते-बूझते हुए मनमोहन सिंह ने सिविल अधिकारों पर आपातकालीन सरीखा कुठाराघात कर दिया। आपातकाल एक मजबूत नेता का योगदान था और वह इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थीं। आज सरकार की राजनीतिक अधिसत्ता शक्ति के दो केंद्र होने के कारण गिर चुकी है। प्रधानमंत्री कमजोर मिट्टी के हैं और इसके युवा आइकन की भूमिका को 73 साल के पुराने गांधीवादी ने हथिया लिया है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111719275674360784

No comments: