जो देश इस बात पर गर्व करता हो कि उसे आजादी सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा आदि जैसे अनोखे माध्यमों से मिली, वहां की सरकार 73 साल उम्र के एक सामाजिक कार्यकर्ता के अनशन को रोकने पर उतारू हो जाए, यह विडंबना ही है।
अगर सरकार अपने इस उद्देश्य में सफल हो गई, तो यह हमारे लोकतंत्र पर एक बेहद प्रतिकूल टिप्पणी होगी। सरकार ने लोकपाल का जैसा मसौदा पेश किया है, अन्ना हजारे उससे सहमत नहीं हैं और इसके खिलाफ दबाव बनाने के लिए 16 अगस्त से नई दिल्ली के जंतर-मंतर को फिर से अपने संघर्ष का स्थल बनाना चाहते हैं।
सरकार को याद है कि जब अप्रैल में अन्ना उसी जगह पर अनशन पर बैठे थे तो कैसे उनके अभियान की लहर पूरे देश में दौड़ गई और आखिरकर झुककर उसे लोकपाल बिल तैयार करने के लिए संयुक्त ड्राफ्टिंग कमेटी बनानी पड़ी थी। तो इस बार तैयारी है कि अन्ना को वहां बैठने ही न दिया जाए।
जंतर-मंतर के आसपास धारा 144 लागू कर पुलिस ने अन्ना को अनशन पर न बैठने देने का इरादा जता दिया है। अन्ना से पूछा गया है कि उनका अनशन कितने दिन चलेगा और वहां कितने लोग आएंगे? अगर यह बताकर ही कोई आंदोलन करना हो, तो फिर उसकी जरूरत ही क्या है?
पुलिस का यह तर्क हास्यास्पद है कि अन्ना के लोग जंतर-मंतर की सारी जगह पर काबिज हो जाएंगे, जिससे अन्य आंदोलनकारियों के अधिकार का हनन होगा। साफ है कि सरकार अब शांतिपूर्ण विरोध की भी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहती।
गौरतलब है कि अप्रैल में अन्ना के अभियान के दौरान अशांति की कोई घटना नहीं हुई थी। न ही इस बार ऐसा कोई अंदेशा है। इसलिए सरकार के कदमों का कोई वैध तर्क नहीं है।
शांतिपूर्ण विरोध संवैधानिक हक है। इसके लिए किसी को, किसी जगह और किसी समय इजाजत की जरूरत नहीं होनी चाहिए। इस अधिकार को नियंत्रित करने का प्रयास लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है।
http://www.bhaskar.com/article/ABH-democracy-against-2326394.html
Thursday, August 11, 2011
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