Wednesday, August 24, 2011

जब योग्यता से आगे बढ़ जाए सत्ता..

पंद्रह अगस्त 1947 की मध्यरात्रि की ओर बढ़ते हुए जवाहरलाल नेहरू का शानदार उद्बोधन लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं के इतिहास में मील का पत्थर बनी इस यादगार रात के लिए अन्य महान भारतीयों के योगदान से अभिभूत था। 64 वर्ष के बाद, आइए हम तत्कालीन संयुक्त प्रांत से चुने गए सदस्य, दार्शनिक-शिक्षक और बाद में राष्ट्रपति बने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को भी सुनें। वे इस चमत्कारिक उपलब्धि पर हर्षविभोर थे, परंतु उन्होंने आगे आने वाले खतरों के प्रति आगाह भी किया था।

उन्होंने दोषारोपण की संस्कृति, जो कि भारतीयों का पसंदीदा बहाना है, को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा, ‘अन्य (यानी ब्रिटिश) हमारी कमजोरियों से खेलने में सक्षम थे, क्योंकि हमने उन्हें ऐसा करने दिया।’ आगे आने वाली कमजोरियां भी उतनी ही खतरनाक रहीं: ‘जब सत्ता-शक्ति योग्यता को पीछे कर देती है, हम अंधकार में गिर जाते हैं।’ अगर अकेली इस बात को ही पद की शपथ का हिस्सा बना दिया जाता, तो जो इसे समझने में सक्षम हैं, उन पर इसका हितकारी प्रभाव हो सकता था।

डॉ. राधाकृष्णन ने चेताया था कि एक धनलोलुप और बिकाऊ शासक वर्ग स्वप्न को दु:स्वप्न में बदल सकता है: ‘जब तक कि हम शीर्ष स्थानों से भ्रष्टाचार को खत्म न कर दें, भाई-भतीजावाद, सत्ता लोलुपता, मुनाफाखोरी और काला बाजारी की हर जड़ को न उखाड़ फेंकें, जिन्होंने हमारे महान देश के नाम को खराब किया है..’। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद तो भारतीय प्रशासन के अवलंब बन चुके हैं।

लोकतंत्र की निपुणता उसकी इस योग्यता में निहित है, जो निराशा के दौर में नवीनीकरण की पेशकश करती है। अन्ना हजारे ने कल के भारत को आकार देने वाले बच्चों से यही वादा तो किया है। अन्ना, जो कल तक गुमनाम थे, पर आज अविस्मरणीय हैं। जब सत्तारूढ़ दल एक सामान्य आदमी और उसकी प्रेरणा से उठ खड़े हुए लोकप्रिय आंदोलन के खिलाफ सत्ता के दुरुपयोग पर उतारू हो जाता है, तो उसे मूर्खता के रसातल में बर्बाद होना ही है।

पीलू मोदी, तुम्हें इस दौर में रहना था! या, कम से कम हमें 1970 के दशक के इस अद्भुत सांसद को याद करने में सक्षम होना चाहिए। यह उस सरकार के खिलाफ देशव्यापी रोष का पिछला दौर था, जिसका सत्तामद उसकी योग्यता से भी आगे बढ़ गया था।

किसी की शख्सियत को जीवन की सीमाओं से बड़ा बताना चलन से बाहर हो चुका मुहावरा है। और शब्द महज दिखाई देने तक सीमित नहीं होते। पीलू के पास एक गर्जना थी, जो सत्ता के गलियारों में लगातार गूंजती रहती थी और हाजिर जवाबी थी, जो शक्ति और पद के अहंकार में खुद को आम लोगों से श्रेष्ठ मानने वालों को आईना दिखा सकती थी। इन दिनों राशिद अल्वी जैसे कांग्रेस प्रवक्ता ‘सीआईए’ का उल्लेख करने में थोड़े अनिच्छुक लगते हैं, लेकिन 1970 के दौर में सीआईए जनता के लिए दैत्य का पर्याय थी।

जो कोई भी कांग्रेस की तेजस्विता पर सवाल उठाने की हिमाकत करता, तत्काल सातवें नर्क में धकेल दिया जाता था। ऐसे ही समय में 1974 के अल्वियों ने जनता के आसमानी रोष को नेतृत्व देने वाले जयप्रकाश नारायण जैसे प्रखर देशभक्त की अवहेलना की थी। जब सीआईए को निंदा के लिए अपर्याप्त समझा गया, तो उन्होंने ‘आरएसएस’ का ठप्पा भी जोड़ दिया, मानो यह ऐसा दोष हो, जिससे मुक्ति संभव ही नहीं।

किसी तानाशाह सरकार को ठहाके से ज्यादा और कुछ आतंकित नहीं करता। पीलू मोदी जानते थे कि कैसे हंसना है। एक दिन वे एक बिल्ला लगाए हुए लोकसभा में पहुंचे, जिस पर लिखा था, ‘मैं सीआईए का एजेंट हूं’। सरकार कभी उबर नहीं पाई।

चूंकि अभी हमारे आसपास कोई पीलू मोदी नहीं हैं, अन्ना के सुरक्षा घेरे को मजबूती प्रदान करने वाले बच्चों ने हास्य को अपना प्राथमिक हथियार बनाया है। अगर सरकार अन्ना हजारे को लेकर चिंतित नहीं है, तो उसे उनके आसपास उभरने वाले व्यंग्योक्तिपूर्ण, तीक्ष्ण और कभी-कभी बेहद मजाकिया स्लोगनों को लेकर गंभीर रूप से चिंतित होना चाहिए। कांग्रेस के आइकॉन भले ही यह सोचें कि वे खुद को अपने नासमझ प्रवक्ताओं के विषवमन से अलग दिखा सकते हैं। लेकिन यह एक भ्रम ही है। लोग जानते हैं कि प्रवक्ता तो केवल कठपुतलियां ही हैं।

अन्ना हजारे ठीक उसी तरह का प्रतीक बन गए हैं, जैसे जयप्रकाश नारायण 1974 में थे। उनकी खास मांगें उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना कि उनके द्वारा उन मांगों को उठाया जाना। किसी ज्यादा योग्य सरकार ने अन्ना की शुरुआती मांग मान ली होती, लोकपाल मसौदे के उनके ड्राफ्ट को लोकसभा में रख दिया होता और लंबी वैधानिक प्रक्रिया चलने दी होती। इससे आधिकारिक तौर पर प्रतिक्रिया देने की जिम्मेदारी सभी राजनीतिक दलों तक पहुंच जाती, बजाय व्यापक तौर पर कांग्रेस संगठन के। अगर अभी जनता का रोष कांग्रेस पर केंद्रित है, तो खुद पार्टी ही दोषी है।

एक स्लोगन 1974 में जेपी के आंदोलन की डराने वाली याद की तरह है: ‘ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है।’ 40 साल पहले इसे राजद्रोह बताकर इसकी निंदा की गई थी। दुनिया ऐसे जड़ नुस्खे से आगे बढ़ चुकी है। यह सीआईए या आरएसएस की बात नहीं है। भ्रष्टाचार न तो विदेशी एजेंट है, न ही विभाजनकारी शक्ति। यह ऐसा दानव है, जिसके बारे में दूरद्रष्टा डॉ। राधाकृष्णन ने 15 अगस्त 1947 को ही अनुमान लगा लिया था।
Source: एम।जे. अकबर | Last Updated 00:11(21/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-power-exceeds-the-qualifications-2367654.html


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