Wednesday, August 24, 2011

देश को क्या दे सकता हूं मैं?

प्यारे दोस्तो, एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत 64 वर्षो का सफर तय कर चुका है। यह हम सभी के लिए गौरव और खुशी का क्षण है। साथ ही हमें एक राष्ट्र के रूप में अपने विचारों को पुनर्जीवित करने, अपनी प्रगति की समीक्षा करने और उन चुनौतियों का सामना करने के लिए नई रणनीतियां बनाने की भी जरूरत है, जो 21वीं सदी के भारत के समक्ष मुंह बाए खड़ी हैं। मेरा मानना है कि ऊर्जा और प्रेरणा से भरे युवा हमारी सबसे बड़ी संपदा हैं।

भारत के पास ऐसे 60 करोड़ से भी अधिक युवा हैं और देश के समक्ष स्थित चुनौतियों का सामना करने, उपलब्ध संसाधनों का उपयुक्त दोहन करने और वर्ष २क्२क् तक आर्थिक रूप से विकसित भारत का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वे हमारी सबसे बड़ी उम्मीद हैं। यहां मैं विशेष रूप से दो युवाओं के बारे में बताना चाहूंगा, जो इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण हैं कि प्रेरणा से भरे युवा किस तरह खुद को और समाज को बदल सकते हैं।

मैं कर सकता हूं : दोस्तो, जब मैं भारत का राष्ट्रपति था, तब 28 अगस्त 2006 को मैं आंध्रप्रदेश के आदिवासी विद्यार्थियों के एक समूह से मिला। मैंने उन सभी से एक ही सवाल किया : ‘तुम क्या बनना चाहते हो?’ कई छात्रों ने इस सवाल का अपनी तरह से जवाब दिया, लेकिन नौवीं कक्षा में पढ़ रहे एक दृष्टिबाधित लड़के ने कहा कि ‘मैं भारत का पहला दृष्टिबाधित राष्ट्रपति बनूंगा।’ मुझे उसकी महत्वाकांक्षा अच्छी लगी, क्योंकि अपने लिए छोटे लक्ष्य तय करना एक अपराध है।

मैंने उसे शुभकामनाएं दी। इसके बाद उस लड़के ने कड़ी मेहनत की और 10वीं की परीक्षा में 90 फीसदी अंक पाए। बारहवीं की परीक्षा में उसने और अच्छा प्रदर्शन करते हुए ९६ फीसदी अंक पाने में कामयाबी हासिल की।

उसका अगला लक्ष्य था एमआईटी कैम्ब्रिज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई। उसकी कड़ी मेहनत और लगन के कारण उसे न केवल एमआईटी कैम्ब्रिज में सीट मिली, बल्कि उसकी फीस भी माफ कर दी गई। उसकी प्रतिभा को देखते हुए जीई (जनरल इलेक्ट्रिक) के वालंटियर्स ने उसकी अमेरिका यात्रा के लिए आर्थिक मदद की।

जब जीई ने उसका ग्रेजुएशन पूरा होने पर उसके समक्ष जॉब का प्रस्ताव रखा, तो उसने जवाब दिया कि यदि वह भारत का राष्ट्रपति नहीं बन पाया तो जरूर इस पर विचार करेगा। इस लड़के का आत्मविश्वास अद्भुत है। संकल्प और दृढ़ता एक दृष्टिबाधित लड़के के जीवन में भी व्यापक बदलाव ला सकते हैं।

सपनों से सोच, सोच से हकीकत : 7 जनवरी २क्११ को मैं मीनाक्षी मिशन हॉस्पिटल में पीडियाट्रिक ऑन्कोलॉजी कैंसर यूनिट का शुभारंभ करने मदुरै गया था। कार्यक्रम के दौरान अचानक मैंने देखा कि एक व्यक्ति मेरी तरफ बढ़ा चला आ रहा है। मुझे उसकी शक्ल जानी-पहचानी लगी।

करीब आने पर मैंने देखा कि वह मेरा पूर्व ड्राइवर था। 1982 से 1992 के दौरान जब मैं हैदराबाद में डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैब का डायरेक्टर था, तब वह मेरे लिए काम किया करता था। उसका नाम था वी काथिरेसन। उन दस सालों के दौरान मैंने गौर किया था कि जब वह कार में मेरी प्रतीक्षा किया करता था तो वह उस समय का उपयोग कुछ न कुछ पढ़ने में करता था।

मैंने उससे पूछा तुम फुर्सत के क्षणों में कुछ न कुछ पढ़ते क्यों रहते हो? उसने जवाब दिया कि उसके बच्चे उससे बहुत सवाल पूछते हैं। इसलिए उसने पढ़ना शुरू कर दिया है, ताकि उनके सवालों का कुछ तो जवाब दे पाए। पढ़ाई के प्रति उसकी इस लगन ने मुझे प्रभावित किया।

मैंने उससे कहा कि वह पत्राचार पाठ्यक्रम के जरिये फिर से पढ़ाई की शुरुआत करे और बारहवीं पास करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए तैयारी करे। उसने इसे एक चुनौती की तरह लिया। बीए पास करने के बाद उसने इतिहास में एमए किया। इसके बाद उसने राजनीति विज्ञान में एमए के साथ ही बीएड व एमएड भी किया।

फिर उसने डॉक्टोरल स्टडीज के लिए पंजीयन कराया और वर्ष 2001 में उसने पीएचडी कर ली। तमिलनाडु सरकार के शिक्षा विभाग में उसने कई वर्षो तक सेवाएं दी। वर्ष 2010 में वह मदुरै के निकट मेल्लुर में शासकीय कला महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक बन गया।

हाल ही में, लगभग दस दिन पहले कोविलपट्टी तमिलनाडु के यूपीएमएस स्कूल में मेरी फिर प्रोफेसर काथिरेसन से भेंट हुई। मैंने सभी से उनका परिचय कराया और बताया कि किस तरह वे दो दशक की कड़ी मेहनत के बाद पीएचडी ग्रेजुएट और यूनिवर्सिटी प्रोफेसर बन पाए हैं। उनकी प्रेरक कहानी ने युवा श्रोताओं को बहुत प्रभावित किया।

निष्कर्ष : ‘मैं क्या कर सकता हूं’ : दोस्तो, हमारा देश आजादी के 65वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस मौके पर मैं आपसे एक बहुत अहम बिंदु पर बात करना चाहता हूं, जो वर्ष 2020 तक आर्थिक रूप से विकसित देश के निर्माण के हमारे लक्ष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

यकीनन, हम सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति कर रहे हैं, जिसके कारण हमारा देश आठ फीसदी की विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है। लेकिन हमारे समक्ष कई गंभीर चुनौतियां भी हैं।

ये हैं भ्रष्टाचार और नैतिक पतन, पर्यावरण को क्षति और समाज में बढ़ती संवेदनहीनता। कुछ बुराइयां हैं, जिन्हें युवावस्था की भलाइयों से परास्त किया जा सकता है। ऐसी बुराइयां आखिर आती कहां से हैं? तमाम बुराइयों की जड़ है अंतहीन लोभ।

भ्रष्टाचार मुक्त और नैतिक समाज और स्वच्छ पर्यावरण के लिए ‘मैं क्या ले सकता हूं’ के स्थान पर ‘मैं क्या दे सकता हूं’ की भावना आनी चाहिए। देश के नागरिकों और खास तौर पर युवाओं को खुद से यह सवाल बार-बार पूछना चाहिए : ‘मैं अपने देश को क्या दे सकता हूं।’

क्या मैं पर्यावरण के लिए कुछ कर सकता हूं? क्या मैं इस धरती और इस पर रहने वाले मनुष्यों की रक्षा पर्यावरण की क्षति से होने वाली आपदाओं से कर सकता हूं? अरबों लोगों के लिए अरबों वृक्ष, इस बात को ध्यान में रखते हुए आज हम यह तय कर सकते हैं कि हम सभी पांच-पांच पौधे रोपेंगे और उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेंगे।

या क्या मैं कुछ संवेदनाओं का परिचय दे सकता हूं? क्या मैं उन लोगों की सेवा कर सकता हूं, जो कष्ट में हैं और उनकी मदद करने वाला कोई नहीं है? हम किसी अस्पताल जाकर उन मरीजों को थोड़ी-सी खुशी दे सकते हैं, जिनसे मिलने कोई नहीं आता। आप फूल दे सकते हैं, फल दे सकते हैं, उनके मन में कुछ उत्साह जगा सकते हैं।

या फिर क्या मैं मुस्कराहटें बांट सकता हूं? क्या मैं अपने देशवासियों के लिए कुछ ऐसा कर सकता हूं कि उनके जीवन में मुस्कराहटें खिल जाएं? आज के दिन हर युवा यह शपथ ले सकता है कि मैं अपनी मां को खुशियां दूंगा। मां खुश होंगी तो घर खुश होगी, घर खुश होगा तो समाज खुश होगा और समाज खुश होगा तो पूरा देश खुश होगा।

या क्या मैं गांवों की स्थिति सुधारने के लिए ही कुछ प्रयास कर सकता हूं? क्या मैं प्रोवाइडिंग अर्बन एमेनेटीज इन रूरल एरियाज (पीयूआरए) कार्यक्रम के जरिये अपने गांव और देशभर के गांवों की तस्वीर बदल सकता हूं?

दोस्तो, मैं चाहूंगा कि यह लेख पढ़ने वाला हर व्यक्ति ‘मैं क्या दे सकता हूं’ अभियान (www.whatcanigive.info) का एक हिस्सा बने। मैंने और मेरी युवा टीम ने अभियान के लिए नौ चेप्टर तय किए हैं, जो कई महत्वपूर्ण सामाजिक, नैतिक और पर्यावरणगत प्रश्नों का सामना करते हैं। इस अभियान के केंद्र में हैं देश के युवा।

‘मैं क्या दे सकता हूं’ अभियान का लक्ष्य है नैतिक रूप से संपन्न युवाओं की पीढ़ी तैयार करना। हम युवाओं को बदल पाए तो देश को भी बदल पाएंगे। पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।

लेने के बजाय देने का भाव

भ्रष्टाचार मुक्त समाज के लिए ‘मैं क्या ले सकता हूं’ के स्थान पर ‘मैं क्या दे सकता हूं’ की भावना आनी चाहिए। देश के नागरिकों और खास तौर पर युवाओं को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए : ‘मैं देश को क्या दे सकता हूं।’

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम
लेखक
भारत के पूर्व राष्ट्रपति हैं।
साभार:-दैनिक भास्कर
Source: डॉ. एपीजे अब्दुल कल� | Last Updated 00:24(15/08/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-what-can-i-give-to-the-country-2355147.html

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