Wednesday, August 24, 2011

जनता, सरकार और संसद

लोकपाल के मुद्दे पर बातचीत करने के संकेत देने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अब जिस तरह तर्कसंगत वार्ता करने की पेशकश की उससे तो ऐसा ध्वनित होता है कि अन्ना हजारे और उनके सहयोगी कुतर्क कर रहे हैं। इसमें संदेह है कि इस तरह की पेशकश से दोनों पक्षों के बीच खुले मन से वार्ता का माहौल तैयार करने में मदद मिलेगी। क्या इससे अधिक निराशाजनक और कुछ हो सकता है कि जब समय हाथ से निकलने वाली स्थिति हो तब बातचीत की प्रक्रिया को जटिल बनाने का काम किया जाए? आखिर जो बात मध्यस्थों के जरिये हो रही है वह सरकारी प्रतिनिधियों के माध्यम से क्यों नहीं हो सकती? पिछले दरवाजे से बातचीत की जरूरत तो तब पड़ती है जब सीधी वार्ता के विकल्प समाप्त हो जाते हैं। सरकार अपनी निष्कि्रयता से हालात खराब करने के अलावा और कुछ नहीं कर रही। केंद्रीय सत्ता की निष्कि्रयता उसकी संवेदनहीनता का भी परिचायक बन गई है। जब केंद्र सरकार न तो वक्त की नजाकत समझने के लिए तैयार है, न जन भावनाओं को और न ही अपने दायित्वों को तब टीम अन्ना के लिए यह और आवश्यक हो जाता है कि वह खुद को संयमित बनाए रखे। निष्कि्रयता का जवाब आक्रामकता से देने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि यह सरकार तभी काम करती है जब उस पर चारों ओर से दबाव पड़ता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अन्ना हजारे दबाव बनाने के लिए उन तौर-तरीकों का भी इस्तेमाल करें जो लोकतंत्र का हिस्सा नहीं। वह जनलोकपाल पर सरकार और संसद से विचार करने की मांग कर सकते हैं, इससे अधिक नहीं। लोकतंत्र में किसी को यह अधिकार नहीं कि वह जो कुछ कह रहा है वही अंतिम सत्य है। अन्ना हजारे के आंदोलन की ताकत उसका संयमित और अनुशासित स्वरूप ही है। इस स्वरूप को हर हाल में बरकरार रखा जाना चाहिए। यह स्वरूप तब बिगड़ता नजर आता है जब यह कहा जाता है कि 30 अगस्त तक जनलोकपाल विधेयक पारित किया जाना चाहिए। यह चिंताजनक है कि जब सत्तापक्ष अपनी जिम्मेदारी का पालन करने के लिए सक्रिय और सजग नहीं तब विपक्ष भी अपनी भूमिका का निर्वाह सही ढंग से नहीं कर रहा और वह भी तब जब संसद का सत्र जारी है। विपक्ष सत्तापक्ष को संसद में घेरने की तैयारी तो कर रहा है, लेकिन यह समय उसकी खामियां उजागर करने भर का नहीं है। क्या यह विचित्र नहीं कि एक ओर सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों मिलकर संसद की सर्वोच्चता और पवित्रता का बखान करने में लगे हैं और दूसरी ओर यही संसद ऐसी कोई राह नहीं सुझा पा रही जिससे लोकपाल को लेकर जारी गतिरोध दूर हो सके। यदि संसद जन आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सर्वोच्च संस्था है तो फिर वह देश को संतुष्ट करने में सक्षम क्यों नहीं? क्या संसद भी सरकार की ही तरह यह आभास नहीं कर पा रही कि बढ़ते भ्रष्टाचार से आम जनता आजिज आ चुकी है और केंद्रीय सत्ता की निष्कि्रयता के चलते वह अपना संयम खो रही है? आखिर संसद ऐसा कोई प्रस्ताव क्यों नहीं पारित कर सकती जिससे जनता को यह भरोसा हो सके कि उसकी भावनाओं की परवाह की जा रही है? यदि संसद इन विषम परिस्थितियों में भी सरकार को घेरने तक सीमित रही तो उसकी गरिमा भी प्रभावित हो सकती है।
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111719348874128984

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