Wednesday, August 24, 2011

संसद से लेकर सड़क तक

अन्ना हजारे की गिरफ्तारी ने कई सवाल खड़े कर दिए। आखिर सरकार ने अन्ना को तिहाड़ जेल क्यों भेजा? अगर अन्ना से खतरा था तो उसी दिन शाम तक उन्हें रिहा करने का फैसला क्यों लिया? अगर अन्ना पहले ही अनशन पर बैठ जाते, तो कौन-सा पहाड़ टूट जाता? क्या सरकार को, कांग्रेस पार्टी को अंदाजा नहीं था कि अन्ना को जेल भेजने की देश में इतनी जबरदस्त प्रतिक्रिया होगी? क्या इसी से डरकर रातों-रात अन्ना को छोड़ने का फैसला लिया गया?

1975 में जब जयप्रकाश नारायण को इसी तरह सरकार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए गिरफ्तार किया गया था तो उन्होंने कहा था, ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’। इस बार भी वही हुआ। अन्ना हजारे को इसलिए गिरफ्तार किया गया, क्योंकि इस सरकार के पास राजनैतिक सवालों के वकीलों वाले समाधान हैं। प्रधानमंत्री के सलाहकार मंत्री वे वकील हैं, जो हर समस्या के निदान के लिए कानून की किताब देखते हैं। जिस लड़ाई को कांग्रेस को सड़क पर लड़ना चाहिए था, वह सीआरपीसी और पुलिस के जरिए लड़ी जा रही है।

चिदंबरम और कपिल सिब्बल ने अन्ना की गिरफ्तारी के बाद जो बातें कहीं, उनके आधार पर चलें, तो कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में मायावती के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए भी उन्हीं से अनुमति मांगनी पड़ेगी। मायावती तय करेंगी कि कांग्रेस के कितने व्यक्ति प्रदर्शन करें, कितने घंटे करें, कहां करें। अगर येदियुरप्पा के खिलाफ कांग्रेस को आवाज उठानी होगी, तो सदानंद गौड़ा से पूछेंगे कि बता दें किस तारीख को और कहां धरना दें?

लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन के लिए अनुमति लेनी पड़े, ये मजाक की बात है।

मुझे लगता है सरकार में बैठे लोगों को जरा भी अंदाजा नहीं था कि अन्ना का आंदोलन इतना विशाल रूप ले लेगा। हर जगह लोग सड़कों पर उतर आए। इनमें बड़ी संख्या नौजवानों की है। प्रदर्शनकारियों में ऐसे युवा भी हैं, जिनका राजनीति से कोई वास्ता नहीं है। इसका असर राहुल गांधी की राजनीति पर पड़ सकता है, क्योंकि वे नौजवानों के नेता बनने के लिए जुटे हुए हैं।

कांग्रेस के नेताओं को भी अंदाजा नहीं था कि लोग भ्रष्टाचार से इतने परेशान हैं। पिछले साल भर में जिस तरह एक के बाद घोटाले सामने आए, उससे लोग गुस्साए हुए थे। अन्ना इसी गुस्से को जाहिर करने का बहाना बन गए हैं। यही अन्ना की ताकत है। जो लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान हैं, अन्ना उनकी नाराजगी का प्रतीक बन गए हैं, इसीलिए तिहाड़ जेल के बाहर, इंडिया गेट से लेकर जंतर-मंतर तक, छोटे-बड़े शहरों में लोग इस अभियान में अन्ना-अन्ना करते नजर आ रहे हैं।

सवाल ये है कि अगर अन्ना पहले दिन ही अनशन कर लेते, तो क्या हो जाता? सरकार क्यों इतनी बौखला गई? मुझे लगता है इसकी वजह है सरकार में बैठे कुछ लोगों का अहंकार। वे लोग, जो कुछ दिन पहले अन्ना हजारे और रामदेव के सामने नतमस्तक हो गए थे, उन्हें अचानक लगा कि अन्ना और रामदेव से बात करके गलती कर दी। सरकार का इकबाल तो डंडे से कायम होता है, इसीलिए पुलिस की आड़ में डंडा चलाने का फैसला किया गया। मजे की बात ये है कि जब डंडा फेल हो गया तो अपनी दुर्गति के लिए सरकार ने मीडिया को जिम्मेवार बता दिया।

कपिल सिब्बल की सुनें तो अन्ना हजारे को मीडिया ने हीरो बना दिया है। अगर टीवी चैनल न होते, तो इस आंदोलन का असर नहीं होता। लेकिन मुझे लगता है कि अगर जनता भ्रष्टाचार से परेशान न होती और सरकार इतना अहंकार न दिखाती तो टीवी कैमरों का इतना असर नहीं होता। फर्क ये है कि टीवी कैमरे आम आदमी का दर्द दिखा रहे हैं और इस सरकार के सबसे ज्यादा बोलने वाले मंत्री इस दर्द को छुपा रहे हैं।

इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने वाले अन्ना को उसी जेल में रखा गया, जहां राजा और कलमाडी कैद हैं। अन्ना अपराधी नहीं हैं। उन्होंने कोई कानून नहीं तोड़ा, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। उन्हें जेल भेजना कानूनन सही हो सकता है, लेकिन राजनीति की भाषा में इसे आत्मघाती कदम कहा जाएगा। आपातकाल में भी जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी को गिरफ्तार करके गेस्ट हाउस में रखा गया था, क्योंकि वे अपराधी नहीं थे।

मजे की बात ये है कि सरकार सब कुछ करने के बाद कह रही है कि अन्ना को गिरफ्तार करना पुलिस का फैसला है। क्या चिदंबरम लोगों को मूर्ख समझते हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि पुलिस अन्ना को बिना गृह मंत्री की अनुमति के गिरफ्तार कर ले? ये भी नहीं हो सकता कि चिदंबरम को जानकारी न हो कि अन्ना कहां हैं? एक बच्चा भी जानता है कि पुलिस कमिश्नर गृह मंत्री से पूछे बिना सांस भी नहीं ले सकते।

कपिल सिब्बल और चिदंबरम की इस गैरराजनीतिक शैली का नुकसान हुआ कांग्रेस को। एक तरफ तो लगा कि कांग्रेस के पास कोई दिशा नहीं है। कभी अन्ना के साथ पांच-पांच मंत्री बैठकर बिल बनाते हैं, फिर उसी अन्ना को सिर से पांव तक भ्रष्ट बताते हैं। कभी उन्हें जेल भेजते हैं, कभी सिर पर बिठाते हैं, कभी उन्हें खतरा बताते हैं, कभी उनसे खुद डर जाते हैं।

अब मुसीबत ये है कि अन्ना के सवाल पर कांग्रेस की विरोधी पार्टियां एक हो गई हैं। लेफ्ट के नेताओं ने भाजपा के साथ मिलकर प्रधानमंत्री से जवाब मांगा। चंद्रबाबू और मुलायम साथ हो गए। विरोधी दलों की एकता सरकार को भारी पड़ सकती है। दूसरी तरफ कांग्रेस के सहयोगी दल खामोश हैं। वे इसे सिर्फ कांग्रेस की लड़ाई मान रहे हैं।

यह गठबंधन की सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं है। संसद में विपक्ष और सड़क पर जनता, सरकार किस-किस को रोकेगी? अन्ना की गिरफ्तारी के बाद सवाल अब लोकपाल बिल तक ही सीमित नहीं रह गया है। सवाल ये है कि इस मुल्क में लोकतंत्र रहेगा या नहीं?

सवाल ये है कि आम आदमी को अपनी आवाज उठाने के लिए क्या सरकार से इजाजत लेनी होगी? क्या सत्ता के अहंकार में डूबे मंत्री हर आवाज उठाने वाले को भ्रष्ट करार देते रहेंगे? अगरये हुआ तो इतिहास 1970 के दशक की संपूर्ण क्रांति को दोहराएगा। देश का नौजवान फिर ‘दिनकर’ की कविता गाएगा : ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है..।’


सरकार की दिशाहीनता इसी से जाहिर होती है कि कभी अन्ना के साथ पांच-पांच मंत्री बैठकर बिल बनाते हैं, फिर उसी अन्ना को सिर से पांव तक भ्रष्ट बताते हैं, कभी उन्हें जेल भेजते हैं, कभी सिर पर बिठाते हैं, कभी उन्हें खतरा बताते हैं, कभी उनसे खुद डर जाते हैं।
rajat.sharma@indiatvnews.com
लेखक इंडिया टीवी के चेयरमैन और एडिटर-इन-चीफ हैं
साभार:-दैनिक भास्कर
Source: रजत शर्मा | Last Updated 00:47(19/08/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-up-the-road-from-parliament-2362627.html

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