Thursday, August 4, 2011

महंगाई के आगे समर्पण

सरकार की गलत आर्थिक और कृषि नीति को बेलगाम महंगाई का कारण बता रहे हैं रमेश कुमार दुबे

पिछले दो साल से महंगाई जिन वजहों से बेलगाम बनी हुई है उनमें कच्चे तेल और कमोडिटी के दामों में बढ़ोतरी की मुख्य भूमिका है। फिर कृषि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में वृद्धि और मनरेगा जैसी नकद भुगतान वाली योजनाओं के चलते ग्रामीण क्षेत्रों में पैसे का प्रवाह बढ़ा है, जिससे मांग में तेजी आई है। मांग में तेजी के कारण केवल भारत में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी महंगाई बढ़ रही है। भारत की भांति चीन व दूसरे उभरते देशों में गरीबी का स्तर घटा है। ताजा आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि पिछले तीस वषरें के दौरान विकासशील देशों में अनाज की खपत में 80 फीसदी का भारी इजाफा हुआ है, जबकि विकसित देशों में अनाज की खपत में सिर्फ 22 फीसदी की ही बढ़ोतरी हुई है। इसके अलावा नवधनाढ्यों की थाली में मांस की आमद बढ़ी है। भारत की भांति चीन में भी जब महंगाई ने सिर उठाया तो उसने महंगाई की जड़ पर सीधा हमला बोला। चीन ने मुक्त बाजार के दौर में भी सीधे मूल्य नियंत्रण की नीति अपनाई और कंपनियों को दोटूक आदेश दिया कि जरूरी चीजों की कीमतें किसी भी स्थिति में पांच फीसदी से ज्यादा न बढ़ें। आटा व खाद्य तेल के निर्माताओं को तो पांच फीसदी मूल्य वृद्धि की भी छूट नहीं है। भारत में खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर 2009 की गर्मियों से खतरनाक चेतावनी मिलने लगी थी, जब देश के कई हिस्से सूखे की चपेट में थे। लेकिन सरकार कभी सूखा तो कभी अगले रबी मौसम के बहाने महंगाई के सामने घुटने टेकती रही। न अनाज उत्पादन में बढ़ोतरी काम आई और न मौद्रिक कोशिशें। कीमतों की निगरानी का दिखावा तक नहीं होता। इसी का परिणाम है कि भारत इस समय कर्ज, ऊर्जा और कच्चे माल तीनों ही मोचरें पर दुनिया की सबसे महंगी अर्थव्यवस्था हो गई है और महंगी अर्थव्यवस्थाएं हमेशा महंगाई ही पैदा करती हैं। अब तो महंगाई रोकने के मौद्रिक उपाय ही महंगाई बढ़ाने लगे हैं। प्रशासनिक नियंत्रण सिरे से नदारद है, केंद्र बेसुध और राज्य बेफिक्र। दरअसल बार-बार मौद्रिक उपायों का सहारा लेना यह बताता है कि सरकार महंगाई के असल कारणों का सामना करने से बचना चाहती है। महंगाई पर लगाम कसने के लिए रिजर्व बैंक पिछले साल मार्च से अब तक 11 बार नीतिगत दरें बढ़ा चुका है। लेकिन ऐसा करते समय वह यह नहीं सोचता कि क्या खाने-पीने की वस्तुएं खरीदने के लिए कोई बैंक से कर्ज लेता है या फिर ब्याज दरें बढ़ने पर इन चीजों की खपत कम हो जाती है। यही कारण है कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी महंगाई की बढ़त रोकने में नाकाम रही है। देखा जाए तो महंगाई का एक दुष्चक्र पैदा हो गया है। महंगाई बढ़ती है और रिजर्व बैंक पॉलिसी दरें बढ़ा देता है। उद्योगों के लिए कर्ज महंगा होता है और विनिर्मित वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं। इससे महंगाई में और वृद्धि हो जाती है। इस महंगाई को कम करने के लिए रिजर्व बैंक फिर दरों को बढ़ाता है। इसी को देखते हुए कई अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि बार-बार नीतिगत दरें बढ़ाने के बजाय मूल्य नियंत्रण के दूसरे उपाय तलाशने चाहिए। अच्छे मानसून और गोदामों के भरे होने के बावजूद खाद्य पदाथरें की कीमतें चढ़ रही हैं तो इसका कारण बिचौलिए हैं। लेकिन सरकार जमाखोरों, बिचौलियों, कालाबाजारियों पर लगाम कसने और आपूर्ति व्यवस्था की खामियां दूर करने की कोई ठोस पहल नहीं कर रही है। सरकारी खाद्य प्रबंधन का हाल यह है कि हर साल हजारों करोड़ रुपये का अनाज बर्बादी की भेंट चढ़ जाता है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने ब्याज दरों में बढ़ोतरी के समय स्वीकार किया कि महंगाई कम करने के लिए बैंक के प्रयासों को ठोस राजनीतिक कदमों के जरिए समर्थन दिया जा सकता है। लेकिन भारत में ऐसे कदम तभी उठाए जाते हैं जब चुनाव सिर पर हों। उदाहरण के लिए, सरकार कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर पेट्रोलियम पदाथरें के दामों में वृद्धि रोके रही, लेकिन जैसे ही चुनाव संपन्न हुए वैसे ही उसे तेल कंपनियों के नुकसान और अपने राजस्व घाटे की फिक्र सताने लगी। उदारीकरण के दौर में दीर्घकालिक कृषि विकास नीतियों के अभाव ने भी समस्या को बढ़ाया। अब भी ग्रामीण इलाकों में आय का प्रमुख श्चोत कृषि क्षेत्र ही है, लेकिन कृषि में ढांचागत सुधारों को लेकर कुछ नहीं हो रहा है। कृषि विकास को निर्धारित करने वाले मोचरें पर हम मात खा रहे हैं। सिंचाई योजनाओं पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद देश का महज 40 फीसदी क्षेत्र ही सिंचित हो पाया है। देश में अब भी खेती-बाड़ी मानसून का जुआ बनी हुई है। उर्वरक नीति पर भी लचर रवैया अपनाया जा रहा है। कृषि ऋणों पर प्राय: छूट मिल जाती है, लेकिन इसका लाभ बड़े किसान उठा रहे हैं। सहकारी बैंकों के पास पर्याप्त पूंजी नहीं है। समावेशी बैंकिंग के मामले में हम ज्यादा उन्नति नहीं कर पा रहे हैं। देश के कृषि अनुसंधान संस्थानों में शोध और विकास की स्थिति अच्छी नहीं है। भारी अनुदानों और सरकारी सहायता के बावजूद हम बीजों के अनुसंधान में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुंह ताकते हैं। अभी भी 51 फीसदी गांव पशु चिकित्सालयों से पांच किलोमीटर से अधिक दूरी पर हैं। 47 फीसदी गांव नजदीकी बैंक शाखा से पांच किमी दूर हैं। अधिकांश जिलों में सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था नहीं है। 78 फीसदी गांवों में पोस्ट ऑफिस नहीं है। स्पष्ट है बुनियादी सुविधाओं की चौतरफा कमी के चलते देश के ज्यादातर हिस्सों में कृषि विकास की रफ्तार बेहद धीमी है। ऐसे में बुनियादी सुविधाओं की बहाली सरकार और कॉरपोरेट सेक्टर दोनों की प्राथमिकता होनी चाहिए, लेकिन दोनों का ध्यान आर्थिक विकास दर बढ़ाने तक ही सिमटा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717919774123640

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