राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के अध्यक्ष पद पर सुरेश कलमाड़ी की नियुक्ति के लिए राजग सरकार को जिम्मेदार बताने के खेल मंत्री अजय माकन के विवादास्पद बयान पर संसद के दोनों सदनों में हुई चर्चा के दौरान सत्तापक्ष की जैसी फजीहत हुई उसके लिए वह किसी और को दोष नहीं दे सकता। हालांकि अभी सरकार को विपक्ष के आरोपों का जवाब देना है, लेकिन इसमें संदेह है कि उसके पास अपने इस बयान को दोहराने के अलावा और कुछ कहने को होगा कि 2003 में राजग सरकार के एक फैसले के कारण ही कलमाड़ी आयोजन समिति के अध्यक्ष बने। यदि एक क्षण के लिए यह मान लिया जाए कि राजग सरकार ने कथित तौर पर एक ऐसे अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे जिसके तहत भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष को राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति की कमान सौंपी जानी थी तो भी यह सवाल उठेगा कि क्या भारत सरकार इस अनुबंध की गुलाम बन गई थी? क्या भारत उस समय भी ब्रिटिश कानूनों के तहत संचालित हो रहा था? क्या इस अनुबंध में यह भी लिखा था कि आयोजन समिति का अध्यक्ष कितने भी गलत काम क्यों न करे उसे हटाना संभव नहीं होगा? यदि अजय माकन की सफाई सही है तो फिर तब के खेल मंत्री सुनील दत्त को खुद के बजाय कलमाड़ी के आयोजन समिति का अध्यक्ष बनने पर दुख और आश्चर्य क्यों हुआ? क्या यह तथ्य नहीं कि उन्होंने कलमाड़ी के गुपचुप रूप से आयोजन समिति का अध्यक्ष बन जाने पर एतराज जताया था? अब तो देश को यह भी पता है कि कलमाड़ी के मनमाने तौर-तरीकों पर खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर प्रधानमंत्री को चिट्ठी पर चिट्ठी लिखते रहे, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। एक समय तो समस्त मीडिया कलमाड़ी की धांधलियों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था, लेकिन तब भी किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। सत्तापक्ष को अब तक यह अहसास हो जाना चाहिए कि वह कुतर्को के जरिये अपने मान-सम्मान की रक्षा नहीं कर सकती। इसी तरह यह भी तय है कि यदि वह हड़बड़ी का परिचय देगी तो उसकी मुश्किलें और बढ़ेंगी। यह समझना कठिन है कि राष्ट्रमंडल खेलों पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रपट सार्वजनिक होने के पहले ही खेल मंत्री को संसद में सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ गई? समय से पहले आधी-अधूरी सफाई देकर उन्होंने आफत मोल लेने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया। आखिर सरकार ने यह कैसे समझ लिया कि देश खेल मंत्री के इस हास्यास्पद बयान पर यकीन कर लेगा कि राजग सरकार के फैसले के बाद कलमाड़ी को आयोजन समिति का अध्यक्ष बनाए रखना अपरिहार्य हो गया था। कैग की रपट के संदर्भ में सत्तापक्ष ने संसद में यह भी दलील दी कि यदि ऐसी रपटों के आधार पर त्यागपत्र की मांग की जाने लगेगी तो फिर बहुत मुश्किल होगी। इस दलील में दम है, लेकिन क्या कांग्रेस को यह स्मरण नहीं कि कारगिल युद्ध के दौरान ताबूत खरीद पर कैग की रपट आने के बाद वह किस तरह तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नाडीज के पीछे हाथ धोकर पड़ गई थी? क्या कांग्रेस यह समझती है कि उसके लिए अलग नियम हैं और विरोधी दलों के लिए अलग? यदि कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता यह समझ रही है कि तथ्यों को छिपाने और देश को गुमराह करने से उसकी समस्या कम हो जाएगी अथवा उसकी गलतियों पर पर्दा पड़ा रहेगा तो ऐसा संभव नहीं।
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साभार:-दैनिक जागरण
Thursday, August 11, 2011
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