देश अन्ना हजारे और उनकी टीम का कृतज्ञ रहेगा। उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन-मन में पैठे आक्रोश को आवाज दी और उसे एक दृढ़ आंदोलन का स्वरूप प्रदान करने में सफलता पाई। आज हमारे सामने तीन प्रस्तावित लोकपाल हैं : एक तो टीम अन्ना का जनलोकपाल, दूसरा सरकार का लोकपाल और तीसरा अरुणा रॉय के नेतृत्व वाले एनसीपीआरआई का लोकपाल। यह इतना महत्वपूर्ण कानून है कि उसे तुरत-फुरत पारित करना उचित नहीं होगा। भारत पहले ही कई लचर कानूनों के बोझ तले दबा है, जो अपना लक्ष्य तो प्राप्त कर नहीं पाए, उलटे प्रताड़ना और अत्याचार का एक सुविधापूर्ण उपकरण बन गए। जहां सरकारी लोकपाल को ‘जोकपाल’ बताया गया है और यह उचित भी है, वहीं टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावित बिल में भी कुछ खामियां हैं।
यदि यूपीए सरकार विवेकशील है तो उसे संसद से अपना बिल वापस ले लेना चाहिए और एक टास्क फोर्स का गठन करना चाहिए, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गो का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति हों। इन व्यक्तियों के पास लोकतांत्रिक शक्तियां हों और वे देशभर के लोगों से राय-मशविरा करते हुए भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए एक सशक्त कानून पर एकमत हों। हमारे समाज में एड्स वायरस की तरह फैली घूसखोरी, छीना-झपटी और अत्याचार की संस्कृति से निजात पाने के लिए कोई एक संस्था या कोई एक कानून काफी नहीं हो सकता। इसके लिए सरकार के हर महकमे, हर दफ्तर में सुधार लाना होगा। एक नागरिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करना होगा और ऐसे नियम-कायदों और कानूनों को चिह्न्ति करना होगा, जो अफसरों और राजनेताओं के हाथों में असीमित शक्तियां सौंप देते हैं। मौजूदा प्रशासनिक तंत्र केवल दो सिग्नल समझता है : ऊपर से मिलने वाली चेतावनी और नीचे से मिलने वाली घूस।
यह स्थिति तब तक नहीं बदल सकती, जब तक कि अधिकारियों और कर्मचारियों को एक निश्चित समय सीमा में काम पूरा करने के लिए उत्तरदायी न बनाया जाए। ऐसा न कर पाने की स्थिति में उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए और जनता के पास भी यह अधिकार होना चाहिए कि वह उनसे जवाबतलब कर सके। मिसाल के तौर पर नगर निगम के अधिकारी लोगों को भारी-भरकम हाउस टैक्स बिल भेज देते हैं। कई साल पहले साउथ दिल्ली के एक डबल बेडरूम फ्लैट में रहने वाले मेरे एक पड़ोसी को १.६५ लाख रुपए का हाउस टैक्स बिल मिला था। वे चिंतित हो गए और एक स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ता से जाकर मिले, जो यह दावा करता था कि नगर निगम अधिकारियों से उसके अच्छे ‘कनेक्शन’ हैं। वह कार्यकर्ता दफ्तर पहुंचा और संबंधित बाबुओं से बात की। मेरे पड़ोसी से कहा गया कि १.६५ लाख के बिल को घटाकर ७क्क्क् रुपए प्रति वर्ष कर उत्तरदायित्व करने के लिए उन्हें २५ हजार रुपयों का भुगतान करना होगा। मेरे पड़ोसी ने इसे ‘फायदे का सौदा’ मानते हुए खुशी-खुशी यह प्रस्ताव स्वीकार लिया। इस तरह की घटनाएं आम हैं। देश के तकरीबन हर मकान मालिक को इस तरह के ब्लैकमेल का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे नहीं चाहते कि फर्जी बिलों के आधार पर उनकी संपत्ति सील कर दी जाए और वे अदालतों में अंतहीन मुकदमे लड़ते रहें।
भ्रष्टाचार का यह दुर्ग तब महज एक आघात में धराशायी हो गया था, जब वर्ष २क्क्४ में अहमदाबाद, पटना और बेंगलुरू की राह पर चलते हुए दिल्ली नगर निगम ने भी संपत्ति कर की गणना और संग्रह की प्रणाली में सुधार किया और स्पष्ट मानकों के साथ एक स्वनिर्धारण योजना लागू की। जनता की सुविधा के लिए वेबसाइट पर विवरण डाले गए। आज दिल्ली में कोई भी व्यक्ति इंटरनेट पर एमसीडी के पेमेंट पोर्टल के मार्फत संपत्ति कर का भुगतान कर सकता है। इससे भ्रष्टाचार के अवसर कम हो जाते हैं। वास्तव में आज मेरे पड़ोसी उसी संपत्ति के लिए ३८क्क् रुपए से अधिक कर का भुगतान नहीं करते, जिसके लिए उन्हें पहले १.६५ लाख का बिल भेजा गया था। एक और उदाहरण है मानुषी संगठन के प्रयासों से साइकिल रिक्शा चालकों के साथ होने वाले भ्रष्टाचार और र्दुव्यवहार में आई गिरावट। लाइसेंस के बिना रिक्शा चलाना गैरकानूनी है, लेकिन मोटरयान के विपरीत रिक्शा चालक मांग के आधार पर लाइसेंस नहीं पा सकते। लाइसेंस के लिए आवेदन करने के बाद लंबे समय इंतजार करना पड़ता है और इस ढीलपोल के लिए निगम अधिकारी किसी तरह से जवाबदेह नहीं होते। लेकिन उनके पास यह अधिकार जरूर है कि वे बिना ऑनर्स और पुलर्स लाइसेंस के संचालित हो रहे रिक्शा जब्त कर लें। किसी व्यक्ति के पास एक से अधिक कारें, ट्रक या हवाई जहाज भी हो सकते हैं, लेकिन एक से अधिक रिक्शा होना गैरकानूनी है। साथ ही रिक्शा को किराये पर भी नहीं दिया जा सकता। इस तरह के बेतुके कानूनों के कारण रिक्शा चालक भ्रष्टाचार के शिकार हो जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली के रिक्शा चालक पुलिस व नगर निगम अधिकारियों को एक साल में ३५क् करोड़ से भी अधिक रुपए घूस के रूप में चुकाते हैं। वहीं अकेले दिल्ली में ही स्ट्रीट वेंडर्स प्रतिवर्ष घूस के रूप में ५क्क् करोड़ रुपए चुकाते हैं।
लोकपाल ज्यादा से ज्यादा वही भूमिका निभा सकता है, जो एंटीबायोटिक्स निभाते हैं। लेकिन एंटीबायोटिक्स केवल तभी कारगर साबित होते हैं, जब उन्हें आपात स्थिति में उचित मात्रा में संक्रमित रोगी को दिया जाए, अन्यथा रोगी के शरीर पर उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। ओवरडोज जहर भी साबित हो सकती है और मरीज की जान भी ले सकती है। अच्छे से अच्छा लोकपाल भी तब तक रोजमर्रा के भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं कर सकता, जब तक बुनियादी कानूनों में बदलाव न लाया जाए। सबसे जरूरी बात है पुलिस, राजनेताओं और अपराधियों के गठजोड़ को ध्वस्त करना और पुलिस प्रणाली में दूरगामी सुधार लाना, ताकि नागरिकों को आश्वस्त किया जा सके कि लोकपाल में शिकायत दर्ज कराने से उनकी जान को कोई खतरा नहीं होगा।
Source: मधु किश्वर | Last Updated 00:32(23/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-problem-in-the-way-of-lokpal-2371906.htmlसाभार:-दैनिक भास्कर
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