Wednesday, December 29, 2010

यह चीज हमें असफलता से बचाएगी Source: पं. विजयशंकर मेहता

सीधी सी बात है यदि खड़े रहना चाहते हैं तो धरती पर थोड़ी सी जगह चाहिए और यदि चलना चाहते हैं तो मार्ग। ये दोनों बातें जीवन में होती रहे इसके लिए अध्यात्म ने एक शब्द दिया है श्रद्धा। श्रद्धा जीवन की निरूद्देश्यता पर प्रतिबंध लगाती है।
बुद्ध ने एक जगह कहा था हमारी एक ऐसी प्रकृति होती है जो हिरण की कल्पना जैसी रहती है। हिरण को प्यास के दबाव के कारण रेगिस्तान में वहां पानी दिखता है जहां होता नहीं है। इसे मृग-मरीचिका कहा गया है। जो है नहीं उसे मान लेना, देख लेना। हमने परमात्मा के साथ ऐसा ही किया। वह बैठा है भीतर हम ढूंढ रहे हैं बाहर। जहां नहीं है वहां ढूंढने पर एक नुकसान यह होता है कि जहां वह है वहां हम नहीं पहुंच पाते।
इस मामले में बुद्ध जैसे संत तो और गहरे निकल गए। वे कहते हैं जिसे तुमने खोया ही नहीं उसे क्या ढूंढना। उसका हमारे भीतर होना ही पर्याप्त है। खोजने की जगह महसूस करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऊपर वाला जब भी किसी इन्सान को धरती पर भेजता है तो स्वयं को उसमें स्थापित करके ही भेजता है। मैन्यू फेक्चरिंग डिफेक्ट जैसा काम उसके यहां नहीं होता।
वह पहली पैदाईश से ही कम्पलीट उतारता है। संसार में आते ही अबोध होते में गड़बड़ हमारे लालन-पालन करने वाले और होश संभालते ही हम स्वयं शुरु करते हैं। अपने भीतर बेहतर जोडऩे से ज्यादा अच्छा घटाने का काम हम ही शुरु कर देते हैं। ऐसे में श्रद्धा वह तत्व है जो मृग मरीचिका की वृत्ति से हमें बचाएगी।




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