संसद में जारी गतिरोध को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष के नेताओं के बीच जिस लहजे में एक-दूसरे पर आरोप मढ़े गए उससे राजनीति के गिरते स्तर का ही पता चलता है। यह भी भारतीय राजनीति में गिरावट का एक प्रमाण है कि पिछले एक पखवारे से संसद ठप पड़ी हुई है और फिर भी सत्तापक्ष के माथे पर शिकन नहीं। यह सही है कि संसद की कार्यवाही दोनों पक्षों के सहयोग से ही चल सकती है, लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि मौजूदा गतिरोध के लिए सत्तापक्ष अधिक उत्तरदायी है। आखिर यह सत्तापक्ष ही है जो इस पर अड़ गया है कि चाहे जो हो जाए, स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति नहीं गठित की जाएगी। चूंकि जांच के एक प्रभावी तरीके से कन्नी काटने का काम सत्तापक्ष कर रहा है इसलिए यदि विपक्ष संसद में गतिरोध के लिए उसे जिम्मेदार ठहरा रहा है तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं, लेकिन विपक्षी दलों के इस रवैये को समझना कठिन है कि एक ओर वे संसद न चलने देने पर अडिग हैं और दूसरी ओर सरकार को जरूरी विधायी कामकाज निपटाने की सुविधा भी दे रहे हैं। आखिर यह कौन सी संसदीय परंपरा है? यदि संसद ठप है तो फिर वहां विधायी कामकाज होने का क्या मतलब? बिना बहस के विधायी कामकाज निपटाना तो संसद का उपहास उड़ाना है। यह आश्चर्यजनक है कि देश-दुनिया के लिए जो भारतीय संसद ठप है उसमें अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों को या तो पेश किया गया या फिर उन्हें एक सदन से दूसरे सदन भेजा गया। कुछ विधेयक तो पारित भी हो गए। यदि जरूरी विधायी कार्यो के लंबित रहने से सरकार संकट में पड़ जाती तो इसकी चिंता तो खुद उसे करनी चाहिए, न कि विपक्ष को। यदि विपक्षी दल यह मान रहे हैं कि स्पेक्ट्रम घोटाला इतना बड़ा है कि उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती-भले ही संसद की कार्यवाही ठप रहे तो फिर इसका क्या मतलब कि वह सरकार के समक्ष उपस्थित होने वाले किसी भी तरह के संकट की परवाह कर रहे हैं? यह विचित्र है कि जो विपक्ष सरकार को यह बताने में लगा है कि संयुक्त संसदीय समिति गठित हुए बगैर संसद नहीं चलने देगा वही सरकार को राहत देने में लगा हुआ है। आखिर आम जनता इस नतीजे पर क्यों न पहुंचे कि विपक्ष का रवैया राजनीति से प्रेरित है? यदि विपक्ष स्पेक्ट्रम घोटाले में पूरी केंद्रीय सत्ता को शामिल मान रहा है तो फिर उसे इसकी स्थिरता की परवाह क्यों करनी चाहिए? ऐसा लगता है कि विपक्ष सत्ता पक्ष पर कोई ठोस दबाव बनाने के स्थान पर ऐसा करते हुए अधिक दिखना चाहता है। जो भी हो, यह ठीक नहीं कि संसद में जारी गतिरोध को लेकर आम जनता को हर दिन पक्ष-विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोप के अतिरिक्त और कुछ सुनने को नहीं मिल रहा है। आरोप-प्रत्यारोप का यह जो दौर जारी है वह कुतर्को की राजनीति के अतिरिक्त और कुछ नहीं। पक्ष-विपक्ष खुद को एक-दूसरे से बेहतर बताने के लिए जिस तरह एक-दूसरे के अतीत की खामियों का उल्लेख करने में जुटे हुए हैं उससे तो लगता है कि गड़े मुर्दे उखाड़ने की होड़ शुरू हो गई है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण ही है और अरुचिकर भी कि इतना बड़ा घोटाला हो गया और फिर भी इसके आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आते कि भविष्य में ऐसा कुछ नहीं होने दिया जाएगा।
साभार:-दैनिक जागरण ०४-१२-२०१०
Friday, December 10, 2010
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