Saturday, December 11, 2010

मैं प्रवासी हूं

बचपन से पहचान का यह सवाल परेशान करता रहा है। जब पटना शहर से गांव जाता था तो लोग ताने देते थे। बबुआ शहरी हो गया है। चूड़ा दही कम ब्रेड बटर खाता है। शहर और गांव के एक फर्क को जीता रहा। दोनों ही अस्थायी ज़मीन की तरह मालूम पड़ते थे। पटना आता था तो लगता था कि गांव जाना है। गांव जाता था तो लगता था कि छुट्टियां खत्म होते ही पटना जाना है। इस बीच बिहार की अराजकता ने पटरी चेंज कर दी। दिल्ली आ गया। अब तीन जगहों के बीच अस्थायी सफर शुरू हुआ। गांव वाले फिर से कहने लगे कि पटना से ही लौट जाते हो। अपनी ज़मीन पर आया करो। दिल्ली आता था तो बस में डीटीसी वाला कह देता था अरे बिहारी। मुझे अच्छा लगता था। बिहारी। पटना में स्कूल की किताब ने यही पढ़ाया कि गुजराती होते हैं,मराठी होते थे और मद्रासी होते हैं। उसमें बिहारी होते हैं नहीं लिखा था। लगा कि अरे हम भी गुजराती मराठी की तरह बिहारी हैं। अनेकता में एकता के एक फूल हम भी हैं। बाद में पता चला कि बिहारी कहने के पीछे सस्ते श्रम का अपमान छुपा है।

इतिहास के पन्नों ने समझाना शुरू किया जो मैं भुगत रहा हूं उससे कहीं ज्यादा पुरखे भुगत कर जा चुके हैं। गिरमिटिया बनकर। वेस्ट इंडीज़,मारिशस और आस्ट्रेलिया तक। बिहार और उत्तर प्रदेश के अभागे इलाके अपने गानों में हम जैसों के लिए तरसते रहे और हम उन गानों की याद में दिल्ली के कमरों में सिसकते रहे। छठ हो या दिवाली। ऐसी हूक उठती थी कि लगता था कि दीवार से सर दे मारे। कहां रोये और कब तक रोये। छह फुट के थुलथुल शरीर पर टपकते आंसू अजीब लगते थे। दोस्तों के फिल्म जाने का इंतज़ार करता था ताकि दरवाज़ा बंद कर रो लूं। जब गांव-पटना था तो लोगों को गाली देता था। अब दिल्ली आ गया तो उनकी याद आ रही है। पटना के बांसघाट से लाउडस्पीकर से आती आवाज़। कर्ज़ फिल्म का गाना। तुमने कभी किसी को दिल दिया है। मैंने भी दिया है। फिर हम सबका रास्ते को बुहारना और घाट से लौटती व्रतियों से चादर बिछाकर ठेकुआ प्रसाद मांगना। सार्वजनिक हिस्सेदारियों से शहर से इतना प्यार हो जाएगा कि आज तक वो किसी पहली लड़की की तरह याद आता रहेगा। सब छूट गया। क्या करें।

दिल्ली के गोविन्दपुरी की गलियां हर वक्त अपने को खोजती थी। दुकानदार से पूछ लेता था। कहां के हो। गोरखपुर। अरे वहीं पास के ज़िले में तो ननिहाल है। कोई रोटी वाला कहता था गाज़ीपुर है,तो कहता था अरे वहीं पास में बड़ी बहन की शादी हुई है। कोई बस्ती का बताता तो बहनों का ससुराल बताकर रिश्ता जो़ड़ लेता था। गोरखपुर वाला तो भाई कहने लगा और दाल में एक पीस मटन का रखने लगा। सीवान का दर्ज़ी फ्री में बटन लगा देता था क्योंकि वहां मेरी मां का ननिहाल था। इतने इलाके, इतने गांवों से रिश्तेदारी फिर भी गोविन्दपुरी की एक गली में अकेलापन। एक दिन चार बजे नार्थ ईस्ट ट्रेन पकड़ने जा रहा था। कोई ऑटो वाला नहीं जा रहा था। बस पूछ लिया कहां के हो जी। बोला मोतिहारी। बस बैठ गया और कह दिया कि हम भी तो वहीं के हैं। चलो स्टेशन। वो भी चल दिया। पैसा ही नहीं लिया। ट्रेन में सवार होते होते लगा कि फिर कोई रिश्तेदार छूट गया है। एक शहर के बदलने से हमारे कितने रिश्ते बदल गए।

अब इस तरह से परिचय पूछकर नाता जो़ड़ने का सिलसिला टूट गया है। अब नहीं पूछता कि तुम कहां के हो। अब मेरे जैसे बहुत से लोग इस शहर में हैं। पत्रकार बनकर प्रवासी मुद्दे पर बहस करने लगा। अचानक एक दिन ध्यान आया। मैं व्हाइट कॉलर प्रवासी हूं। कोई मुझसे परेशान नहीं है। जो मजदूर है उसी को प्रवासी बताकर धकियाया जा रहा है। प्रवासी का भी क्लास होता है। किसी को एलिट प्रवासी से प्रॉब्लम नहीं है। सबको गैर कुलीन प्रवासी से समस्या है। ख़ैर धीरे धीरे अहसास कमज़ोर होता चला गया। लगा कि मैं तो कास्मोपोलिटन हो रहा हूं। फिर भी शहर और गांव की याद तो तब भी आती रही। आज भी आती है।

जब भी बंबई से प्रवासियों की खबर आती है,दिल धड़क जाता है। ये राज ठाकरे कहता है कि बाहर से आए लोगों के कारण मलेरिया फैला है। शीला दीक्षित कहती है कि आबादी का बोझ दिल्ली नहीं सह पाएगी। मैंने प्रवासी होने की प्रक्रिया पर कोई किताब नहीं पढ़ी है। अपनी सहजबुद्धि से सोच रहा हूं।

प्रवासी होना एक आर्थिक प्रक्रिया है। आर्थिक ज़रूरत है। वर्ना दिल्ली और आस पास के इलाकों में रियल इस्टेट से लेकर कंपनियों को सस्ता श्रम नहीं मिलता। वर्ना पंजाब के लोग स्टेशन पर मुर्गा मोबाइल लेकर बिहार से आने वाले मज़दूरों का इंतज़ार न करते। हम प्रवासी छात्रों के कारण दिल्ली के बेरसराय,कटवारिया सराय,मुनिरका से लेकर जीया सराय तक धनी हो गए। उनकी झोंपड़ी महलों में बदल गई। दिल्ली विश्वविद्यालय के आस पास का इलाका चमक गया। दिल्ली में अकूत धन और सस्ते श्रम का इंतज़ाम हो गया। रोज़गार और बाज़ार का सृजन हुआ। सरकारी सिस्टम पर बोझ भी बढ़ा। लेकिन एक मंजिल के मकान पर चार मंज़िल मकान बनाकर क्या बोझ नहीं बढ़ाया गया। क्या सिर्फ प्रवासियों ने बोझ डाला?यहां के तथाकथित स्थाई लोगों ने नहीं।

उदारीकरण एक बेईमान आर्थिक अवधारणा है। यह बाजार के विकेंद्रीकरण और उत्पादन के केंद्रीकरण पर टिका है। तभी चंद शहरों के आस पास ही कंपनियां लगाई गईं। उन जगहों में भी कंपनियां लगाने से पहले रिश्वत दी गई। लेकिन बिहार उत्तर प्रदेश और उड़ीसा को छोड़ दिया गया। कहा गया कि कानून व्यवस्था नहीं है। आज भी प्लंबर और फिटिंग के मामले में उड़ीया मज़दूर सूरत से लेकर पुणे तक में प्रसिद्ध हैं। उनके कौशल का जवाब नहीं। दिल्ली को भी बनाने में बिहार,यूपी,उत्तराखंड और उड़ीसा के मज़दूरों से पहले पाकिस्तान से आए शरणार्थी पंजाबियों के सस्ते श्रम और अकूत लगन ने भूमिका अदा की है। उन्होंने दिल्ली को एक नई आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान दी। अपने ग़मों को छुपाकर रखा। उनकी सिसकियों की बुनियाद पर जब पसीने गिरे तो पंजाबीबाग से लेकर जंगपुरा तक के मोहल्ले आबाद हो गए। अब हिन्दी ह्रदय प्रदेशों के मज़दूर इसे आबाद कर रहे हैं। दिल्ली के बदरपुर,मीठापुर,आलीगांव,करावलनगर,भजनपुरा और संगम विहार। यहां भी सस्ते श्रम से धीरे धीरे पूंजी बन रही है। सारे प्रोडक्ट ने अपनी दुकान लगा ली है। लेकिन इन गलियों की सड़न देखकर जी आहें भरता है। रोता है मन। इनको मिला क्या। गैरकानूनी दर्जा। इनके वोट से न जाने कितने नेताओं की दुकानें भी चलीं। अर्थव्यवस्था के साथ साथ राजनीति भी प्रवासियों से फायदा उठाती है। मनमोहन सिंह खुद प्रवासी प्रधानमंत्री हैं। पंजाब के होकर असम से राज्य सभा के सांसद हैं।

तो क्या प्रवासियों को वापस भेजा सकता है? प्रवासी का मतलब मज़दूर से क्यों हैं। ग्लोबल प्रवासी भी तो हैं। जो दिल्ली से जाकर बंगलौर में नौकरी करते हैं। वहां से अमेरिका जाते हैं। प्रवास सिर्फ श्रम का नहीं है। टेक्नॉलजी का भी तो है। एक जगह की कार दूसरी जगह बिक रही है। बाज़ारवाद ही प्रवास पर टिका है। वो स्थायी नहीं है। उसकी कोई स्थायी ज़मीन नहीं है। उत्पाद बिकने के लिए प्रवास करते हैं। चीन का माल भारत आता है। दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रवासी उत्पाद और प्रवासी उपभोक्ता के दम पर चल रही है। एयरलाइन्स का कारोबार काम से प्रवास पर निकले लोगों से चल रहा है।

किस किस को भगायेंगे आप। जब मज़दूर भगाये जायेंगे तो टेक्नॉलजी भी लौटा दी जाए। सब अपनी अपनी भाषा में टेक्नॉलजी का विकास कर लें और जी लें। जब टेक्नॉलजी का हस्तातंरण हो सकता है तो श्रम का क्यों नहीं। उसे रोकने का नैतिक आधार क्या है? इस दौर में स्थानीय रोज़गार की अवधारणा खत्म हो चुकी है। क्या अमेरिका को सिलिकॉन वैली से भारतीय प्रवासियों को लौटा नहीं देना चाहिए? अगर सरकार आर्थिक उत्पादन का विकेंद्रीकरण नहीं कर सकती,राज्यों में संस्थाओं का विकास नहीं कर सकती तो प्रवासी होने के अलावा चारा क्या है। आखिर क्यों आईआईएम अहमदाबाद और आईआईटी के लोग बाहर जाते हैं.क्या ये प्रवासी होना नहीं है। ये तो बेज़रूरत प्रवासी होना है। इन्हें अपनी जड़ों से बांध कर रखने के लिए क्या किया जा रहा है। आईआईएम अहमदाबाद का मैनेजर किसी अमेरिकी कंपनी के लिए सस्ता प्रवासी श्रम है। प्रवासी होना एक आर्थिक स्वाभिमान है। गर्व से कहना चाहिए कि हम श्रम,बाज़ार और उत्पादन का सृजन कर रहे हैं। इतना ही नहीं प्रवासी होकर हम उत्पाद की प्रक्रिया में अपने श्रम का मोलभाव करने का हक रखते हैं। जहां भी ज्यादा दाम मिलेगा,जहां भी काम मिलेगा, जायेंगे।

हम सस्ते और लाचार प्रवासियों की वजह से ग्लोबल अर्थव्यवस्था में जान आई है। कौन खरीदता नोएडा और ग्रेटर नोएडा के मकानो को। उड़ीसा और झारखंड के लोग उजड़ें हैं तभी तो कंपनियों को ज़मीन मिली है। सस्ता श्रम मिला है। ऐसा नहीं हो सकता कि अर्थव्यवस्था प्रवासी से लाभ ले और राजनीति दुत्कार दे। नहीं चलेगा। प्रवासियों को अर्थव्यवस्था का हिस्सा मानकर उन्हें स्वीकार करना होगा। आज कल तो धंधे की प्रतिस्पर्धा में लोगों ने पीछे छूट चुके राज्य को पहचानना शुरू कर दिया है। डीटीसी के ड्राइवर ने जब बिहारी कहा था तब अच्छा लगा था। अब कोई बिहारी कहता है तो राजनीतिक लगता है। बुरा लगता है। इस देश में सब प्रवासी हैं। जो आज नहीं हैं वो कल हो जायेंगे। वो नहीं होंगे तो उनके बच्चे हो जाएंगे। इसलिए अब प्रवासी होने को मौलिक अधिकार में जोड़ा जाना चाहिए।

संविधान में कानून बदल कर प्रवासी होने के अधिकार को जो़ड़ा जाना चाहिए। ताकि किसी को कहने में शर्म न आए और जो कहे कि देखो वो प्रवासी है,मलेरिया लेकर आया है तो उसे किसी धारा के तहत जेल में ठूंस दिया जाए। अगर राज ठाकरे कहीं से आकर मुंबई और दिल्ली में अपनी ज़मीन बना सकते हैं,दावा कर सकते हैं तो फिर सबको हक है। दक्षिण के राज्यों की हालत तो अच्छी है। फिर वहां के लोग मुंबई,दिल्ली क्यों आते हैं? भारत के सभी राज्यों के लोग यहां से वहां जा रहे हैं।

इसीलिए खुद को प्रवासी कहने में शर्म नहीं आनी चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं है। अगर आप एक राज्य के भीतर एक ज़िले से दूसरे ज़िले में जाते हैं तो भी प्रवासी हैं। अगर प्रवासियों को वापस भेजना है तो ग्लोबलाइजेशन को रोक दो। राज ठाकरे से पूछों कि वो ऐसा कर सकते हैं? अमर्त्य सेन या शीला दीक्षित से पूछ लो। शहर बोझ नहीं सह रहा तो सबको मिलकर सबसे बातकर हल निकालना होगा। किसी एक को भगाकर नहीं। हर शहर संकट में हैं। मुंबई की गत पर बात हो रही है सतारा और पुणे की क्यों नहीं हो रही है। नागपुर भी तो चरमरा गया है। बंगलौर में क्या कमी थी? कर्नाटक से लोग दिल्ली में काम करने आए और अब दिल्ली के लोग वहां नौकरी कर रहे हैं। क्या दिल्ली और मुंबई के लोग दूसरे राज्यों में जाकर काम नहीं कर रहे। प्रवासी होना एक आर्थिक सामाजिक प्रक्रिया है। इसे कोई नहीं रोक सकता।
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साभार:-क़स्बा ब्लॉग

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