यह केंद्रीय जांच ब्यूरो ही बता सकता है कि उसे पूर्व दूरसंचार मंत्री ए। राजा और उनके सहयोगियों के यहां छापों के दौरान क्या मिला और वह कितना महत्वपूर्ण है, लेकिन देर-बहुत देर से की गई इस कार्रवाई ने इस धारणा पर मुहर लगा दी कि सीबीआइ एक कठपुतली जांच एजेंसी है और वह अपने विवेक से काम नहीं करती। घोटाले के आरोपों से घिरा कोई महामूर्ख ही ऐसा होगा जो खुद को परेशानी में डालने वाले दस्तावेज अपने पास संभाल कर रखेगा। क्या सीबीआइ यह कहना चाहती है कि राजा और उनके सहयोगी उसके छापों का इंतजार कर रहे थे? सीबीआइ को इस पर शर्मिदा होना चाहिए कि उसने संदिग्ध घोटालेबाजों और उनके सहयोगियों के यहां इस मामले में रिपोर्ट दर्ज होने के 13 माह बाद छापे डालने की जरूरत समझी। क्या 13 माह इस पर विचार-विमर्श करने में लग गए कि आगे क्या किया जाना चाहिए या फिर उसे कुछ करने की इजाजत ही नहीं मिली? इस पर भी गौर करें कि सीबीआइ को तब भी होश नहीं आया जब खुद सुप्रीम कोर्ट ने करीब 10 दिन पहले उससे यह पूछा था कि आखिर राजा से कोई पूछताछ क्यों नहीं हुई? अभी राजा के यहां केवल छापे ही पड़े हैं। कोई नहीं जानता कि सीबीआइ उनसे पूछताछ कब करेगी? आश्चर्य नहीं कि यह पूछताछ हो ही न, क्योंकि इसके लिए उसे केंद्र सरकार की हरी झंडी चाहिए होगी। और कोई देश होता तो शायद अब तक राजा को गिरफ्तार कर लिया जाता, लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। न केवल द्रमुक राजा का बचाव करने में लगी हुई है, बल्कि केंद्र सरकार के अनेक नेता भी यह साबित करने में लगे हुए हैं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है। सबसे हास्यास्पद यह है कि केंद्र सरकार की ओर से अभी भी यह कहा जा रहा है कि सीबीआइ एक स्वायत्त-सक्षम संस्था है और वह जो कुछ करती है अपने हिसाब से करती है। यह केवल सफेद झूठ ही नहीं, बल्कि देश की जनता की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश भी है। सीबीआइ स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच को लेकर चाहे जैसे दावे क्यों न करे, आम जनता इस पर यकीन करने वाली नहीं है कि वह दूध का दूध और पानी का पानी करने में सक्षम रहेगी। उसका अब तक का रिकार्ड यदि कुछ कहता है तो यही कि नेताओं से जुड़े बड़े घपले-घोटालों में वह असफल ही रहती है। वस्तुत: इसके लिए दोषी यह जांच एजेंसी नहीं, बल्कि केंद्र सरकार है। केंद्र सरकार ने जानबूझकर सीबीआइ को नख-शिख-दंत विहीन बना रखा है ताकि उसका मनमाना राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सके। वैसे तो केंद्रीय सतर्कता आयोग को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वह सीबीआइ पर निगाह रखे, लेकिन वह खुद भी अक्षम है और अब तो इस आयोग का मुखिया उन पीजे थॉमस को बना दिया गया है जो एक मामले में खुद ही अभियुक्त हैं। इसके अतिरिक्त यह भी किसी से छिपा नहीं कि जब वह दूरसंचार सचिव थे तो राजा की जी हुजूरी करने में लगे हुए थे। बेहतर होगा कि सुप्रीम कोर्ट सीबीआइ को केंद्र सरकार के शिकंजे से मुक्त कर वास्तव में स्वायत्त संस्था बनाने की पहल करे। यदि ऐसा नहीं होता तो यह शीर्ष जांच एजेंसी और अधिक बदनाम ही होगी।
साभार:-दैनिक जागरण १०-१२-२०१०
Friday, December 10, 2010
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