Tuesday, December 7, 2010

कठघरे में प्रधानमंत्री

2-जी स्प्केक्त्रम आवंटन घोटाले में ए राजा और संचार मंत्रालय के साथ-साथ प्रधानमंत्री की निष्कि्रयता को भी कठघरे में खड़ा कर रहे हैं ए सूर्यप्रकाश
कठघरे में प्रधानमंत्री जबसे 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट सार्वजनिक हुई है, कांग्रेस प्रधानमंत्री को आलोचना से बचाने का पुरजोर प्रयास कर रही है। संयुक्त संसदीय समिति की जांच का कड़ा विरोध करने के अलावा कांग्रेस के प्रवक्ता दिन-रात इस तथ्य से ध्यान हटाने पर काम कर रहे हैं कि जब देश में जनता के पैसे की सबसे बड़ी लूट चल रही थी, तब प्रधानमंत्री आंखें मूंदें बैठे थे। साथ ही वे लोगों को यह भी स्मरण कराना चाहते हैं कि मनमोहन सिंह एक सम्मानित व्यक्ति हैं। साक्ष्यों के अभाव में यह स्वीकार करना होगा कि फिलहाल मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत साख पर कोई कलंक नहीं लगा है। किंतु यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। कैग की रिपोर्ट लाइसेंसिंग प्रक्रिया का गहन और समग्र परीक्षण करती है। रिपोर्ट में सरकार को पूरी तरह निष्कि्रय बताया गया है। यद्यपि रिपोर्ट में सीधे-सीधे प्रधानमंत्री पर उंगली नहीं उठाई गई है, फिर भी इसमें दर्ज घटनाक्रम से यह सवाल जरूर उठता है कि क्या मनमोहन सिंह ने 2007 में सरकारी जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया था। यह सच है कि रिपोर्ट में तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा और संचार विभाग (डॉट) को दोषी ठहराया गया है, किंतु कहानी यहीं खत्म नहीं होती। कैग का निष्कर्ष है कि डॉट ने अक्टूबर, 2003 में मंत्रिमंडल द्वारा जारी लाइसेंसिंग नियमों का पालन नहीं किया, न ही उसने टेलीकॉम आयोग से सलाह ली। यही नहीं, उसने वित्त मंत्रालय के निर्देशों का उल्लंघन किया, प्रधानमंत्री की राय की अनदेखी की, कानून और वित्त मंत्रालय की सलाह की अवहेलना की कि लाइसेंसिंग प्रक्रिया मंत्रियों के समूह के हवाले कर देनी चाहिए, मनमर्जी से अंतिम तिथि में परिवर्तन किया और अयोग्य दावेदारों को थोक के भाव लाइसेंस जारी कर दिए गए। ऐसा कोई और उदाहरण देखने को नहीं मिलता जब किसी मंत्री ने इतने बड़े पैमाने पर सरकारी कायदे-कानून ताक पर रख दिए हों। जब यह सब हो रहा था तो मनमोहन सिंह जी आप कहां थे? कैग ने यह भी सवाल उठाया है कि वित्त मंत्री ने अपनी राय को लागू क्यों नहीं किया कि स्पेक्ट्रम का आवंटन और मूल्य निर्धारण के लिए मंत्रिमंडल की अनुमति लेनी जरूरी है। इस मंत्रालय ने सुनिश्चित किया कि यह फाइलों में बहुत ईमानदारी और कुशलता से काम करता है। कैग के अनुसार लंबे अरसे बाद इस साल के शुरू में बार-बार स्मरण भेजने के बाद भी डॉट ने अंतर-मंत्रालय चर्चाओं में हिस्सा नहीं लिया। डॉट के रवैये से इसके फैसलों की वैधता पर संदेह उभरता है। यद्यपि कैग ने प्रधानमंत्री को दोषी नहीं ठहराया फिर भी उनका आचरण संदिग्ध है। रिपोर्ट के अनुसार प्रधानमंत्री, कानून मंत्रालय, वित्त सचिव, डॉट के सचिव और विभाग में वित्त सदस्य कीमतें बढ़ाए बिना जल्दबाजी में 2-जी स्पेक्ट्रम का आवंटन करना नहीं चाहते थे। दूसरे शब्दों में, मंत्रिमंडल में राजा द्वारा घटी दरों पर मूल्यवान राष्ट्रीय संपत्ति को बेचने के खिलाफ काफी असंतोष था। हैरानी की बात यह है कि नवंबर, 2007 में प्रधानमंत्री ने खुद भी राजा को पत्र लिखकर आपत्तियां दर्ज कीं। जब जून से नवंबर 2007 के बीच कानून और वित्त मंत्रालयों ने महसूस किया कि मामला मंत्रियों के समूह के हवाले किया जाना चाहिए, तो प्रधानमंत्री ने इस सलाह की अवहेलना कैसे की? उनकी निष्कि्रयता जायज नहीं है, क्योंकि सरकार के निर्णय लेने की प्रक्रिया नियमों से बंधी होती है। इन नियमों को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया (ट्रांसेक्शन ऑफ बिजनेस) रूल्स, 1961 कहा जाता है। इन्हीं के तहत मंत्रालय की शक्तियां निर्धारित होती हैं। कैग ने इन प्रावधानों को इंगित करते हुए कहा कि जब किसी मामले के वित्तीय संदर्भ होते हैं और उस पर वित्त मंत्रालय की मुहर लगनी जरूरी होती है तथा यदि किसी मामले को लेकर दो या उससे अधिक मंत्रालयों में मतभेद हों तो उसे मंत्रियों के समूह को सौंप देना चाहिए। फिर ऐसा क्यों नहीं हुआ? हालांकि जब हम इस प्रकार के सवालों के जवाब तलाशते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस के प्रवक्ता, मनीष तिवारी और जयंती नटराजन मनमोहन सिंह को एक सम्मानित व्यक्ति बताते फिरते हैं। घटनाओं के क्रम से यह साफ हो जाता है कि मनमोहन सिंह में अपनी निर्देशों पर अमल के लिए संचार मंत्री को बाध्य करने की शक्ति नहीं थी। यह कटु लग सकता है, किंतु मनमोहन सिंह की निष्कि्रयता को कर्तव्यविमुखता ही कहा जा सकता है। किसी भी नौकरशाह की पहली सहज प्रवृत्ति न्यूनतम जोखिम उठाते हुए फाइल पर टिप्पणी करना होती है ताकि वह फंसने से बच सके। इसीलिए मनमोहन सिंह ने संभवत: यह मानने हुए टिप्पणी की कि इससे वह बच जाएंगे। प्रधानमंत्री ने अपनी निष्कि्रयता के कारण देश को 1।76 लाख करोड़ रुपये की चपत लगा दी। हालांकि इस सबके बावजूद, कांग्रेस के संकटमोचक रोजाना ही हमें घुट्टी पिलाने की कोशिश करते हैं कि मनमोहन सिंह एक सम्मानित व्यक्ति हैं! मनमोहन सिंह का आचरण चकराने वाला है। जब कानून और वित्त मंत्रालय ने इस पक्ष में राय जाहिर की कि 2-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस जारी करने का मामला मंत्रियों के समूह को सौंप देना चाहिए, कोई भी प्रधानमंत्री उनकी राय पर अमल न करने का जोखिम नहीं उठा सकता, खासतौर पर जब मामला एक ऐसे राष्ट्रीय संसाधन की बिक्री का हो, जिससे सरकार को मोटी रकम मिल सकती हो। तो भी, मनमोहन सिंह ने सुनिश्चित किया कि मामला मंत्रियों के समूह तक न पहुंच पाए। स्पष्ट तौर पर प्रधानमंत्री दोनों मंत्रालयों की सलाह को दरकिनार करने के लिए प्रधानमंत्री पर भारी दबाव पड़ा होगा। हर पहलू को ध्यान में रखते हुए और साथ ही मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व, उनकी पृष्ठभूमि और दो मंत्रालयों की सुलझी हुई सलाह की अवहेलना में भारी जोखिम को देखते हुए कहा जा सकता है कि दबाव एक गठबंधन सहयोगी की तरफ से ही पड़ सकता है। इसलिए प्रथम दृष्टया भारी-भरकम साक्ष्यों के आलोक में ए राजा के आचरण और उनके खिलाफ आपराधिक मामला चलाना तो केवल पहला कदम ही होना चाहिए। इस भारी-भरकम घोटाले में किसी भी जांच का अंतिम लक्ष्य प्रधानमंत्री की निष्कि्रयता के कारणों का पता लगाना तथा उन लोगों को चिह्नित करना होना चाहिए जिन्होंने इस निष्कि्रयता से लाभ उठाया है। इस बीच, हमें स्मरण रखना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी के प्रतिनिधि हमें बता रहे हैं कि मनमोहन सिंह एक सम्मानित व्यक्ति हैं! (लेखक संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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