Wednesday, December 29, 2010

फिर महंगाई की मार

महंगाई को लेकर संप्रग सरकार के रवैये को आम जनता के प्रति उसके संवेदनहीन आचरण का प्रमाण मान रहे हैं संजय गुप्त
एक बार फिर प्याज आम आदमी को तो रुला ही रहा है, केंद्र सरकार के सामने भी संकट बनकर खड़ा हो गया है। एक सप्ताह पहले तक जो प्याज 25-30 रुपये किलो बिक रहा था वह अचानक 70-80 रुपये में बिकने लगा। वैसे तो प्याज के बिना भी खाना खाया जा सकता है, लेकिन भोजन को स्वादिष्ट बनाने में उसका अपना महत्व है। यदि भोजन में प्याज की महत्ता और उसके औषधीय प्रभाव को दरकिनार कर दिया जाए तो भी उसके बगैर भारतीय रसोई अधूरी सी रहती है। प्याज मुख्य फसल नहीं है और यह देश के सभी हिस्सों में नहीं उगाई जाती, लेकिन बावजूद इसके यह आम और खास आदमी के लिए आवश्यक है। प्याज राजनीतिक दृष्टि से एक संवेदनशील फसल है। कुछ वर्षो पहले केवल प्याज के बढ़े दामों ने दिल्ली की भाजपा सरकार को पराजित करने का काम किया था। प्याज कई बार राजनीतिक मुद्दा बन चुका है, लेकिन देश में सब्जियों और अनाज की आपूर्ति पर नजर रखने वाला केंद्रीय खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय प्याज के मामले में एक बार फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे नजर आया और वह भी तब जब यह मंत्रालय उन शरद पवार के पास है जिनके गृह राज्य महाराष्ट्र में प्याज का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है। यह भी ध्यान रहे कि पवार के पास कृषि मंत्रालय का भी प्रभार है। यह पहली बार नहीं जब पवार अपने दायित्वों के निर्वहन में असफल साबित हुए हों। वह ऐसी ही असफलता चीनी और दालों के दामों को नियंत्रित करने के मामले में भी दिखा चुके हैं। यह आश्चर्यजनक है कि जब प्याज के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि की खबर मीडिया में आई तो प्रधानमंत्री ने इस पर हैरानी जताई कि ऐसा कैसे हो गया? बाद में उन्होंने यही सवाल खुद शरद पवार से भी पूछा। इसका मतलब है कि खाने-पीने की वस्तुओं की आपूर्ति एवं उनके मूल्यों में नियंत्रण रखना केंद्र सरकार के एजेंडे में ही नहीं। विडंबना यह है कि यही सरकार आम आदमी के हितों की सबसे ज्यादा दुहाई देती है। जिस देश में आम आदमी को दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है वहां खाद्य पदार्थों के दामों में बेतहाशा तेजी के बाद सरकार से सिर्फ कोरे आश्वासन मिलना सत्ता का संवेदनहीन आचरण ही कहा जाएगा। प्याज के दाम जिस तरह रातों-रात आसमान छूने लगे उससे यही संकेत मिलता है कि कहीं न कहीं दाल में कुछ काला है। प्याज के दामों में उछाल आने के पहले उसका जमकर निर्यात किया जा रहा था और वह भी तब जब सरकार को यह सूचना थी कि नासिक में प्याज की 20-30 प्रतिशत फसल खराब हो गई है। आखिर जो प्याज प्रमुख मंडियों में 20-30 रुपये में उपलब्ध है वह आम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते 70-80 रुपये किलो कैसे हो जाता है? यह जो मुनाफाखोरी हो रही है उस पर सरकार लगाम लगाने में अक्षम क्यों है? उसकी ओर से ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं बनाई गई जिससे फल-सब्जियों और खाद्यान्न की जमाखोरी न होने पाए? चूंकि प्याज के दाम सारे देश में तेजी से बढ़े इसलिए यह स्पष्ट है कि मुनाफाखोरों का ऐसा कोई जाल है जिससे जमाखोर भी जुड़े हुए हैं। आश्चर्य नहीं कि इन तत्वों को किसी न किसी स्तर पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो। यह निराशाजनक है कि आम आदमी के हित की बातें करने वाली संप्रग सरकार के शासनकाल में महंगाई हमेशा मुंह बाए नजर आती है। सरकार महंगाई पर लगाम लगाने के जितने दावें करती है वह उतनी ही बेकाबू होती जाती है। इस वर्ष चार-छह हफ्तों को छोड़कर खाद्य मुद्रास्फीति दहाई के नीचे नहीं रही। अब तो वह 12 प्रतिशत के ऊपर चली गई है और आशंका है कि यह सिलसिला कायम रहेगा। एक तथ्य यह भी है कि आम उपभोग की जिन वस्तुओं के दाम आसमान छूने लगते हैं वे सामान्य स्तर पर कभी नहीं आ पाते। देश जानना चाहेगा कि बेहतर मानसून और अच्छी उपज के बावजूद खाद्य मुद्रास्फीति बेकाबू क्यों है? देश को इस सवाल का भी जवाब चाहिए कि जब कृषि एवं खाद्य मंत्री इससे परिचित थे कि नासिक में बारिश के कारण प्याज की कुछ फसल खराब हो गई है तब फिर उनकी ओर से आवश्यक कदम क्यों नहीं उठाए गए? क्या कारण है कि जब प्याज दोगुने दामों में बिकने लगा तब उसका निर्यात रोका गया? हालांकि पाकिस्तान से प्याज का आयात किया जा रहा है, लेकिन फिलहाल यह कहना कठिन है कि शीघ्र ही प्याज के दाम सामान्य स्तर पर आ आएंगे। अब तो प्याज के साथ-साथ अन्य फल-सब्जियों के दाम भी बढ़ते दिख रहे हैं। टमाटर प्याज की तरह रंग दिखा रहा है। नि:संदेह यह नहीं कहा जा सकता कि फल-सब्जियों के बढ़े मूल्यों का लाभ किसानों को मिलता है। सच तो यह है कि किसानों को अपनी उपज का जो मूल्य मिलता है और वह उपभोक्ताओं को जिस मूल्य पर उपलब्ध होती है उसमें भारी अंतर रहता है। कभी-कभी तो यह 80 से 200 प्रतिशत तक नजर आता है। इस अंतर के पीछे कृषि उपज को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में होने वाला खर्च कदापि नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि इस अंतर के पीछे कोई गोरखधंधा है। यह गोरखधंधा तब जारी है जब सरकारें और राजनीतिक दल किसानों की बदहाली पर आंसू बहाते नहीं थकते। यह ठीक है कि सरकार ने कुछ फसलों के न्यूनतम खरीद मूल्य बढ़ाए हंै, लेकिन उससे किसानों को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ है। अब यह आवश्यक हो गया है कि खाद्य एवं आपूर्ति विभाग किसी सजग और दूरदर्शी व्यक्ति के हवाले किया जाए। इसके साथ ही फल-सब्जियों एवं खाद्यान्न के भंडारण और वितरण की व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन भी आवश्यक है और किसानों की सुधि लेना भी, क्योंकि अभी वे उतना उत्पादन मुश्किल से कर पा रहे हैं जिससे देश की आबादी का पेट आसानी से भर सके। अब तो यह माना जाने लगा है कि हमें अपनी आवश्यकता भर अनाज पाने के लिए विदेशों में खेती करनी पड़ेगी। मंत्रियों के एक समूह ने तो इसकी सिफारिश भी की है। ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकार कृषि की मौजूदा स्थिति से अवगत न हो, लेकिन यह समझना कठिन है कि वह खेती-किसानी के तौर-तरीकों में बदलाव के लिए कोई ठोस प्रयास क्यों नहीं कर रही है। ऐसे प्रयासों का अभाव खाद्यान्न की भंडारण व्यवस्था में भी नजर आता है और वितरण व्यवस्था में भी। यही कारण है कि प्रतिवर्ष हजारों टन अनाज सरकारी गोदामों में सड़ जाता है। इस वर्ष भी ऐसा हुआ। ऐसे कृषि प्रधान देश का कोई मतलब नहीं जहां राजनीतिक दल किसानों को सब्जबाग भी दिखाएं और उनकी उपेक्षा भी करें। राजनीतिक दलों का यह रवैया किसानों को ठगने वाला तो है ही, देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालने वाला भी है।
साभार:-दैनिक जागरण

No comments: