Wednesday, December 29, 2010

मानव जीवन

ऊर्जा मानव जीवन सच्चरित्रता आत्मा की भाषा है, मानव हृदय की भाषा है। जब हम चारित्रिक रूप से निर्मल और उत्कृष्ट होंगे तभी हममें दूसरों के चरित्र को देखने की दृष्टि विकसित होगी। यह हमारा दृष्टिकोण ही है कि हम दूसरों में दोष ढूंढ़ते फिरते हैं। व्यक्ति सदैव निर्दोष रहता है, उसके अवगुण ही उसे दोषी बनाते हैं। यदि हम अपने को दोषों से मुक्त कर लें तो हम सभी के प्रिय होने के साथ ही प्रभु के भी प्रिय हो जाएंगे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है-निर्मल मन जन सो मोंहि पावा, मोंहि कपट छलछिद्र न भावा। हमारा चरित्र एक स्वच्छ तालाब की भांति है, यदि हम उस तालाब के जल को स्नानादि करके या वस्त्रादि धोकर दूषित करेंगे तो जल अवश्य दूषित होगा। साथ ही उपयोग करने लायक भी न होगा। मानव जीवन अपने में असीम शक्ति एवं साम‌र्थ्य समेटे होने के साथ ही उसकी व्यापकता भी असीम है, जिससे समाज को अपेक्षाएं भी हैं और उन अपेक्षाओं में प्रतिबद्धता के साथ खरा उतरना है। तभी मानव जीवन की सार्थकता है। यह जीवन केवल अपने लिए ही नहीं है। महानता कर्र्मो से मिलती है। हमारे कर्म जितने ही महान होंगे हम उतने ही महानता के शिखर की ओर अग्रसर होंगे, जो हमारे जीवन की वास्तविक पूंजी होगी। जीवन सतत् गतिशील रहता है, एक पल के लिए भी रुकता नहीं। तमाम लोग हमसे जुड़ते रहते हैं इन सबको हमसे अपेक्षाएं भी रहती हैं और होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि इन सबके भरण-पोषण का दायित्व भी हम पर ही रहता है। कभी-कभी जिम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते जीवन की संध्या भी हो जाती है और हम आशाओं के सहारे जीवन गुजार देते हैं। जब अवसर आता है तब विडंबना यह होती है कि हम नहीं होते। हमें निज स्वार्थ से ऊपर उठकर उदारता, स्नेह, सेवा, सद्भावना, सहनशीलता, दया, करुणा जैसे मानवीय अलंकरणों को अंगीकार करना होगा। यही आज की आवश्यकता भी है। संकीर्ण स्वार्थपरता हमारा सबसे बड़ा दुर्गुण है जो हमें अपनों से दूर करता है। इसे हमें मानवता की परिधि से दूर रखना ही होगा। इसी में हम सबका कल्याण है।
डॉ। राजेन्द्र दुबे
साभार:-दैनिक जागरण

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