Tuesday, December 7, 2010

राष्ट्रीय बेचैनी का विषय

जेपीसी के मुद्दे पर संसद में जारी गतिरोध में एक सकारात्मक संदेश देख रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

संसदीय गतिरोध से राजनीति निर्वस्त्र हो रही है। भ्रष्टाचार राष्टीय बहस के केंद्र में है। राष्ट्रमंडल खेल आयोजन का भारी भ्रष्टाचार छुपाया नहीं जा सका। दूरसंचार घोटाला देश के कोने-कोने में चर्चा का विषय है। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ भ्रष्टाचार में भी उदारीकरण चलाना संप्रग को महंगा पड़ा है। संप्रग कंपनी के प्रबंधक हलकान हैं। सर्वोच्च न्यायपीठ ने मुख्य सतर्कता आयुक्त को इंगित किया है। दूरसंचार घोटाले की परतें खुल रही हैं। केंद्र सरकार दबाव में है। केंद्र सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में सीबीआइ जांच को तैयार है उसने आरोपी मंत्री ए। राजा से पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन विपक्ष हमलावर है। विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से ही जांच की मांग कर रहा है। केंद्र ने इस मांग को खारिज कर दिया है। संसदीय कार्यवाही दो सप्ताह से ठप है। विपक्ष पर संसद न चलने देने के आरोप हैं। तर्क यह भी है कि नियंत्रक महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट अपने आप संसद की लोकलेखा समिति में जाएगी। समिति अनियमितताओं की जांच करेगी। तब अलग से जेपीसी की मांग का औचित्य क्या है? आम लोग लोकलेखा समिति और जेपीसी के फर्क नहीं जानते। सत्तापक्ष विपक्ष पर संसद न चलने देने का आरोप लगाकर भ्रष्टाचार के मुख्य मुद्दे को पीछे करना चाहता है, बावजूद इसके भ्रष्टाचार राष्ट्रीय बेचैनी है। जेपीसी और लोकलेखा समिति बेशक संसदीय समितियां हैं लेकिन लोक लेखा समिति संयुक्त संसदीय समिति नहीं होती। लोकसभा अध्यक्ष मावलंकर ने 10 मई 1954 के दिन लोकसभा में ही यह व्यवस्था दी थी कि यह संयुक्त समिति नहीं है। यह लोकसभा की समिति है। इसमें भी दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। लोकलेखा समिति के गठन का लक्ष्य सार्वजनिक धन के सदुपयोग को जांचना है। लोकसभा विभिन्न मदों के लिए बजट पारित करती है। नियंत्रक महालेखा परीक्षक इस खर्च के सदुपयोग को जांचकर एक रिपोर्ट बनाते हैं। लोकसभा इस भारी रिपोर्ट की विवेचना स्वयं नहीं करती, वह यह कार्य लोकलेखा समिति से कराती है। बेशक इस समिति को भी साक्ष्य लेने, कोई भी दस्तावेज मंगाने और संबंधित प्राधिकारी को बुलाकर तथ्य जांचने के अधिकार हैं, लेकिन यह समिति नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा तैयार रिपोर्ट का ही विवेचन करती है। वह कैग द्वारा खोजी गई वित्तीय अनुशासनहीनता को व्यापक फलक पर दस्तावेजी व मौखिक साक्ष्य लेकर जांचती है। तर्क हैं कि संप्रति इस समिति के सभापति मुरली मनोहर जोशी भाजपा नेता हैं तो भी जेपीसी की ही मांग क्यों की जा रही है? बेशक यह समिति दूरसंचार मामले से जुड़ी कैग रिपोर्ट का परीक्षण करेगी, लेकिन विपक्ष की मांग समग्र जांच की है। दूरसंचार घोटाला वित्तीय अनुशासनहीनता अथवा राजकोष अपव्यय का साधारण मसला नहीं है। यह मसला भ्रष्टाचार का है, मंत्री पद के दुरुपयोग का है, कतिपय संस्थाओं/व्यक्तियों को सीधे लाभ पहुंचाने और उनसे लाभ कमाने का है। इससे जुड़े भ्रष्टाचार का नेटवर्क बहुत बड़ा है। इसके खिलाडि़यों की संख्या, पहुंच और पकड़ का व्यापक दायरा है। जेपीसी की जांच का जाल दूर तक फैलाकर ही बड़े घोटाले के पीछे काम करने वाले बड़ों तक पहुंचने की राह आसान होगी। सरकार जेपीसी की जांच का सामना नहीं कर सकती। सीबीआइ जांच का दायरा भी बड़ा होता है, लेकिन सीबीआइ अपनी जांच प्रक्रिया में जांच दायरा तय करने व पूछताछ के लिए व्यक्तियों के चयन में चतुराई बरतती है। वह केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाली एजेंसी है। अपने बिगबास के संकेत पर काम करना उसकी विवशता है। सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी का अर्थ बहुत सीमित है। वह न्यायालय को जांच रिपोर्ट देती रह सकती है, न्यायालय समय-समय पर उचित मार्गदर्शन दे सकता है, पर सीबीआइ से व्यापक जांच की उम्मीद नहीं की जा सकती। ईमानदार जांच से नहीं डरते। प्रधानमंत्री सहित पूरी सत्ता ए. राजा को निर्दोष बताती रही है। प्रधानमंत्री ने पहले यों ही उनका पक्ष नहीं लिया होगा। अबकी बात दीगर है। अब मामला ज्यादा उछल गया है। पल्ला झाड़ने की बात ताजा रणनीति हो सकती है। आखिरकार सरकार जेपीसी की जांच से क्यों डरी हुई है? सरकार स्वयं अपनी ओर से जेपीसी के गठन का प्रस्ताव क्यों नहीं लाती? जाहिर है कि सरकार के सामने इस खेल के बड़े खिलाडि़यों के पर्दाफाश हो जाने का खतरा है। इसीलिए संसदीय गतिरोध दूर करने के लिए लोकसभाध्यक्ष द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में भी सरकार का रुख अडि़यल ही रहा। सत्तापक्ष ने जेपीसी गठन के विरोध में अनेक हास्यास्पद तर्क दिए और जेपीसी को बेकार की कसरत बताया गया। कांग्रेस संसदीय प्रणाली से प्रेरित नहीं होती। संसदीय गतिरोध का कारण सत्तापक्ष का अडि़यल रुख है। संसदीय संस्थाएं लोकतंत्र की रक्तवाही नलिकाएं होती हैं। सत्ता-विपक्ष को उनका सम्मान करना चाहिए। सत्तापक्ष के पास बहुमत है तो विपक्ष के पास सरकारी कामकाज की निगरानी करने का जनादेश। विपक्ष सच्चा चौकीदार है, सत्तापक्ष उससे आत्मसमर्पण क्यों चाहता है? बोफोर्स मसले पर 45 दिन के संसदीय गतिरोध के बाद 1987 में जेपीसी बनी थी। हर्षद मेहता मसले में संसद में 17 दिन बवाल हुआ, 1992 में गठित जेपीसी का कार्य उत्साहव‌र्द्धक था। समिति ने तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह को भी साक्ष्य के लिए बुलाकर एक नई परंपरा की शुरुआत की थी। 2001 में बनी जेपीसी ने 105 बैठकें की थीं। कोल्ड्र डिंक्स में रसायनों के सवाल पर 2003 में गठित जेपीसी ने उपयोगी संस्तुतियां की थीं। न्यायालय जेपीसी का विकल्प नहीं हो सकते। संसदीय गतिरोध शुभ नहीं होता, लेकिन इसका सारा अपयश विपक्ष के खाते ही डालना अनुचित है। संसद चलाना दोनों पक्षों की जिम्मेदारी है। विपक्ष ने परमाणु करार और उससे जुड़े तमाम कार्यो पर रचनात्मक भूमिका निभाई है। प्रश्नकाल विपक्ष का हथियार होता है। विपक्ष ने प्रश्नकाल जैसे महत्वपूर्ण अवसर का त्याग किया है। सत्तापक्ष ने इस मामले में बहुमत की बेजा ताकत दिखाई है। देश संसदीय बहसों पर टकटकी लगाता है। देश संसद का संदेश सुनता है। संसद की ताकत अपरिमित है। इस दफा बिना बहस ही उसने देश को एक उत्साहजनक संदेश दिया है कि यहां निरर्थक शोरगुल करने या मौन रहने वाले माननीय ही नहीं बैठते। यह प्राणवान संस्था है। ताजा संसदीय गतिरोध ने सारे राष्ट्र का ध्यान भ्रष्टाचार के मूल मुद्दे पर खींचने में भारी सफलता पाई है कि भ्रष्टाचारियों पर शिकंजा अपरिहार्य है। सत्तापक्ष कब तक बचेगा? (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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