Wednesday, December 8, 2010

विकास का बिहार मॉडल

नीतीश कुमार की नीतियों में सतत, स्थिर और समताकूर्ण विकास की संभावनाएं देख रहे हैं देविंदर शर्मा

विकास का बिहार मॉडल बिहार में नीतीश कुमार दोबारा सत्ता में वापसी करने में सफल रहे। इससे आम लोगों को अपनी बेहतरी के लिए उम्मीद की किरण दिख रही है। पाकिस्तान के पूर्व वित्त मंत्री और जाने-माने अर्थशास्त्री महबूब उल हक ने एक बार मुझसे कहा था कि 1960 में वित्त मंत्री रहते समय वह पाकिस्तान की आर्थिक विकास दर सात प्रतिशत पहंुचाने में समर्थ थे, बावजूद इसके लोगों ने उन्हें हराने के लिए मतदान किया। यह मेरे लिए एक बहुत ही कठोर सबक था। इससे मैंने महसूस किया कि उच्च आर्थिक विकास दर मानव विकास का बेहतर संकेतक नहीं माना जा सकता। महबूब उल हक ने इस रूप में मुझे एक यादगार चीज दी। हमारा यह कहना गलत है कि यदि हम जीडीपी पर ध्यान देंगे तो इससे खुद-ब-खुद हमारी गरीबी भी कम होगी। सच्चाई यह है कि यदि हम गरीबी कम करने पर ध्यान देंगे तो इससे खुद-ब-खुद हमारा आर्थिक विकास भी तेज होगा। नीतीश कुमार ने भी ठीक यही किया। यहां महबूब उल हक की भविष्यवाणी सही साबित हुई और बिहार की जनता ने दोबारा नीतीश को सत्ता में लौटने के लिए मतदान किया। नीतीश ने लोगों पर निवेश किया और लोगों ने उन्हें मतदान के रूप में इसका पुनर्भुगतान किया। नीतीश कुमार की सत्ता में वापसी का वास्तविक कारण 2004 से 2009 के दौरान 11।5 प्रतिशत की विकास दर नहीं थी। अपहरण उद्योग को खत्म कर लोगों के स्वतंत्रता के अधिकार की बहाली इस दिशा में पहला कदम था। इसके साथ-साथ नीतीश ने कई तरह के विकास कार्यो की शुरुआत की। स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिल बांटने और पंचायतों व स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटों का आरक्षण जैसे सोशल इंजीनियरिंग के कामों को उन्होंने पूरा किया। इस तरह बिहार में एक अच्छी नींव रखने के बाद नीतीश कुमार के सामने उनके दूसरे कार्यकाल में नई चुनौतियां हैं, लेकिन यदि और अधिक यथार्थवादी और समग्रता से इन कामों को पूरा करते हैं तो वह देश के लिए एक नया भविष्य गढ़ सकते हैं। निश्चित रूप से बिहार देश के लिए विकास का नया मॉडल बन सकता है। शाइनिंग इंडिया मॉडल के बजाय बिहार के पास एक बड़ा अवसर है, जिससे वह देश को सतत, स्थिर, समतापूर्ण विकास का नया रास्ता दिखा सकता है। दूसरे राजनेताओं से अलग गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की जरूरतों के प्रति मैं नीतीश कुमार को अधिक विचारवान और संवेदनशील पाता हूं। बिहार चुनाव में बड़ी संख्या में लोगों के समर्थन और जनादेश द्वारा उनकी इसी इच्छा का इजहार दिखता है। एक बार एक संक्षिप्त मुलाकात के दौरान नीतीश कुमार ने वर्षो पहले मुझसे पूछा था कि बिहार में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के पीछे मेरी नजर में मुख्य कारण क्या है? मेरी उनसे यह बातचीत 2000-01 के दौरान हुई थी, जब वह केंद्रीय कृषि मंत्री थे। यह वह समय था जब किसान बैंक और साहूकारों से लिए गए पैसे न चुका पाने के कारण परेशान थे। उस समय ऋणदाताओं द्वारा पैसे वसूलने के लिए किए जा रहे अपमान के कारण हताश होकर हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या करने को विवश हो रहे थे। रिकवरी एजेंट अकसर किसानों के साथ गाली-गलौज करते थे, उनके खेत लिखा लेते थे और ट्रैक्टर आदि सामान उठा ले जाते थे, जिससे किसान पूरे गांव में बेइज्जती के कारण आत्मसम्मान को ठेस पहुंचने से बेहतर मर जाना समझते थे। जब मैंने नीतीश कुमार को इसकी वजह ब्रिटिश राज से चले आ रहे कानूनों का होना बताया तो वह चौंक गए। मैंने उन्हें बताया कि 1904 से 1912 के दौरान ब्रिटिश शासकों ने पब्लिक डिमांड रिकवरी ऐक्ट बनाया था, जिसके तहत सरकार का पैसा न चुका पाने पर किसानों को जेल भेजा जा सकता था। इसके अगले ही दिन सुबह नीतीश ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस कानून को खत्म करने की अपील की, क्योंकि तब कृषि राज्य का विषय था। हालांकि राज्य सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। बिहार का भविष्य भी कृषि पर निर्भर करता है, क्योंकि यहां तकरीबन 81 प्रतिशत आबादी खेती से जुड़ी हुई है। खाद्य उत्पादकता में बिहार अब आत्मनिर्भर है और दुग्ध का अतिरिक्त उत्पादनकर्ता है। इसके बावजूद बीमारू राज्य में एक बड़ी आबादी भूखी रहती है और गरीबी व कु पोषण से त्रस्त है। कृषि और खाद्य सुरक्षा के बीच आज तालमेल बिठाने की आवश्यकता है। कृषि को आर्थिक रूप से लाभप्रद, पारिस्थितिकीय रूप से निर्वहनीय और खाद्य व पोषण की उपलब्धता बनाए बिना किसानों को आत्महत्या से नहीं रोका जा सकता। कृषि क्षेत्र का विकास नक्सलवाद की समस्या को खत्म करने में भी अग्रणी भूमिका निभा सकता है। बिहार में उस हरित क्रांति की धारणा में भी बदलाव लाना होगा, जो मिट्टी को जहरीला बना रही है, पानी को प्रदूषित और वातावरण को दूषित कर रहा है। बिहार में पशुपालन उद्योग के लिए बेहतर संभावनाएं हैं। यहां डेयरी और सूती उद्योग को बढ़ावा दिए जाने से किसानों की समस्याओं को कम किया जा सकता है। इससे लोगों को बड़ी तादाद में यहीं रोजगार मिल सकेगा। बिहार को कृषि विकास का औद्योगिक मॉडल त्यागकर भविष्य को ध्यान में रखते हुए पारिस्थितिक आधार पर कृषि तंत्र अपनाना चाहिए। कृषि क्षेत्र का पुनर्गठन होना चाहिए और समय की कसौटी पर खरी उतरी परंपरागत गोला वितरण प्रणाली लागू करनी चाहिए। इस पद्धति में कृषक समुदाय ही गांव की खाद्यान्न वितरण का नियंत्रण और प्रबंधन करता है। गिर और कंकरेज जैसी उन्नत प्रजातियों के पशुओं के साथ स्थानीय प्रजातियों को क्रॉस ब्रीड करके बिहार पशुपालन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर सकता है। डेयरी उद्योग को बढ़ावा देने से निश्चित तौर पर किसानों को कृषि संकट से निकालने में मदद मिलेगी। रासायनिक खादों के बजाय देसी खाद को बढ़ावा देकर इसे कुटीर उद्योग के रूप में प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल पूरी तरह बंद होना चाहिए। बिहार आंध्र प्रदेश के कीटनाशकरहित प्रबंधन से सीख ले सकता है। आंध्र प्रदेश में 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में किसी भी प्रकार के रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है और फिर भी वहां पैदावर की दर उच्च है। उत्साहित आंध्र प्रदेश अब करीब एक करोड़ हेक्टेयर में इस प्रयोग को बढ़ाना चाहता है। नीतीश कुमार के पास इतिहास बनाने और दुनिया को विकास का सही अर्थ समझाने का अवसर है। (लेखक कृषि नीतियों के विश्लेषक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण ०८-१२-२०१०

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