Friday, December 10, 2010

लॉबिस्टों का मकड़जाल Source: प्रीतीश नंदी

तथ्यों के साथ ही बात शुरू करें। नीरा राडिया जानी-मानी फिक्सर हैं। वे बीते दो दशकों से लॉबिंग के मैदान में हैं और इतनी अवधि से वे अमीरों और रसूखदारों के लिए डील फिक्स करती आ रही हैं। उनके अधिकांश ग्राहक नामी-गिरामी कॉपरेरेट हाउस हैं। अब जाकर पता चला कि राजनेता भी उनके ग्राहक हैं। क्या मीडिया के लोग भी उनके ग्राहक हैं? मुझे नहीं पता। लेकिन मेरे सहित हर वह व्यक्ति, जो जानता है कि दिल्ली में राजनीति का चलन क्या है, यह भी जानता था कि नीरा राडिया कौन हैं और वह क्या कर रही हंै। हम सभी जानते थे कि उन्हें किस काम में महारत हासिल है। लेकिन इसके बावजूद हममें से किसी ने उनका भंडाफोड़ नहीं किया। इससे भी बुरी बात यह है कि हममें से कई लोग तो सराहना के भाव से उनकी तरफ देखते थे कि वह सरकार में कोई भी काम करवा सकती हैं।


क्यों? मैं राडिया को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता, फिर भी मैंने उनके बारे में क्यों नहीं लिखा? कारण सरल है। हम राडिया के बारे में जो कुछ भी जानते थे, उसका बड़ा हिस्सा हमें राजनीतिक गपशप के मार्फत पता चला था। गपशप के इसी नेटवर्क से हमें सियासी जगत की ताजा हलचलों और खबरों के बारे में पता चलता है। यहां तक कि हाल ही में जिन टेप्स का खुलासा हुआ, उन पर भी पिछले छह माह से अधिक समय से चर्चाओं का दौर जारी था। यदि आप इंटरनेट खंगालें, तो आपको पता चलेगा कि २जी स्पेक्ट्रम घोटाला और उसमें नीरा राडिया की भूमिका कोई नई खोज नहीं है। यह खबर काफी समय से चर्चाओं में थी। लेकिन जब तक दो पत्रिकाओं ने टेप्स की प्रतिलिपि से कुछ अंश प्रकाशित नहीं किए, तब तक यह मामला केवल निजी बातचीत और अटकलों तक ही सीमित था। उसने सार्वजनिक बहस का रूप अख्तियार नहीं किया था।


क्या इसका मतलब यह है कि टीवी और इंटरनेट पत्रकारिता की तुलना में अखबार और पत्रिकाएं आज भी ज्यादा विश्वसनीय हैं? क्या इसका मतलब यह है कि जब तक कोई मामला प्रिंट मीडिया में प्रकाशित नहीं होता, तब तक वह कयासों और चर्चाओं की श्रेणी में ही रहता है और लोग उसे गंभीरता से नहीं लेते? हाल के दिनों में मैंने ऐसी कई खबरें देखीं, जो टीवी पर अवतरित हुईं लेकिन कुछ समय बाद उनका नामोनिशान भी नहीं रहा। जब प्रिंट मीडिया किसी खबर को नहीं छापता है तो जनमानस पर उसका ज्यादा असर नहीं पड़ता। दूसरी तरफ, ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किग साइटें ऐसा माहौल बना देती हैं कि किसी ब्रेकिंग न्यूज को नजरअंदाज करना तकरीबन नामुमकिन हो जाता है। संक्षेप में किसी खबर को उसका सही स्थान देने के लिए मीडिया के हर स्वरूप को मिलजुलकर काम करना होगा। यहां विकीलीक्स से बेहतर उदाहरण कोई दूसरा नहीं हो सकता। विकीलीक्स संस्थापक जूलियन असांज के आलोचक उनकी छवि को चौपट करने के लिए चाहे जो कर लें, यह तय है कि वे इस वर्ष के मैन ऑफ द ईयर बनकर उभरेंगे।


रतन टाटा यहीं गलती कर रहे हैं। निजता और गोपनीयता के नियम चाहे कितने ही पवित्र क्यों न हों, लेकिन एक स्थिति ऐसी आती है, जब जनहित को प्राथमिकता देनी पड़ती है। टेप्स के खुलासों को रोकने की टाटा जितनी कोशिश कर रहे हैं, उतना ही लोगों में उन टेप्स को लेकर जिज्ञासा बढ़ती जा रही है कि आखिर उनमें ऐसा क्या है? लोग जानना चाहते हैं कि क्या उन टेप्स में कुछ और ऐसा है, जो टाटा की छवि को और नुकसान पहुंचा सकता है? जिस किसी ने भी टाटा को सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाने की सलाह दी थी, उसने उनका भारी नुकसान किया है। यदि अदालत राडिया टेप्स के प्रकाशन पर रोक लगा देती है तो उससे उनकी छवि को जो नुकसान पहुंचेगा, वह इन टेप्स के खुलासों से होने वाले नुकसान से भी अधिक है। जब कोई व्यक्ति भेद छुपाने की कोशिश करता है तो उसके प्रतिद्वंद्वियों को उसके बारे में मनमानी अफवाहें फैलाने का अच्छा मौका मिल जाता है। और यह तो हम जानते हैं कि अफवाहें तथ्यों से भी ज्यादा मारक होती हैं।


लेकिन मैं टाटा की मुसीबत भी समझ सकता हूं। हमने अपने देश में ऐसा घृणित भ्रष्ट तंत्र रचा है कि फिक्सरों और बिचौलियों की शरण में जाए बिना किसी भी उद्यमी के लिए अपना अस्तित्व बचाए रखना तकरीबन नामुमकिन हो जाता है। इसी वजह से नीरा राडिया जैसे लोग पनपते हैं। यह स्थिति केवल उन उद्यमियों के कारण ही नहीं है, जो मदद के लिए हमेशा तैयार राजनेताओं और नौकरशाहों से विशेष सहयोग प्राप्त करना चाहते हैं। देश में कुछ ऐसे व्यावसायिक प्रतिष्ठान भी हैं, जो ईमानदारी के साथ काम करना चाहते हैं, लेकिन वे यह बिल्कुल नहीं समझ पाते कि एक ऐसे तंत्र में ईमानदारी से कैसे काम किया जाए, जिसमें भ्रष्टाचार निचली पायदान तक पैठा हुआ है। झंझावातों में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उन्हें किसी धूर्त मार्गदर्शक की जरूरत महसूस होती है, जो उन्हें बता सके कि भ्रष्टों से कैसे निपटा जाए, जो हर कदम पर उनसे पैसा ऐंठने और उन्हें लूटने-खसोटने को तैयार हैं। हमारा यह भ्रष्ट तंत्र ही नीरा राडिया जैसे लोगों को जन्म देता है। आज जो लोग वीर और बरखा पर पत्थर उछाल रहे हैं, उन्हें किसी भी समय यह पता चल सकता है कि पिछले सप्ताहांत पार्टी में वे जिस महिला के साथ मजे से बात कर रहे थे और जिसने बाद में उन्हें फोन कर उनसे अपना कोई काम करवाने का अनुरोध किया था, वह वास्तव में उन्हें फंसाने के लिए बिछाया गया एक जाल था।


शीशे के घर में बैठकर दूसरों पर पत्थर उछालने से अच्छा यह होगा कि हम सभी मिलकर घर की सफाई करें। निश्चित ही भ्रष्ट तंत्र की मरम्मत किए बिना और दोषियों को कड़ी सजा दिए बिना यह नहीं हो सकता। साथ ही आपको और मुझे इस धारणा को बल देना भी बंद करना होगा कि भारत में भ्रष्टाचार एक स्वाभाविक स्थिति बन चुका है और अब इससे लड़ा नहीं जा सकता। जापान में प्रधानमंत्रियों तक को जेल जाना पड़ा है। चीन में शीर्ष प्रशासनिक अधिकारियों तक को मौत की सजा सुनाई जा चुकी है। लॉबिस्टों को नैतिक सीख देने के बजाय हमारे लिए यह बेहतर होगा कि हम अपनी संस्थाओं और प्रतिष्ठानों को इतना दुरुस्त कर लें कि भ्रष्टाचार का सामना किया जा सके। लेकिन यह तभी संभव हो सकेगा, जब हम इस बात में विश्वास करें कि यह संभव है।


सभी को लगता था कि बिहार का उद्धार नहीं हो सकता, लेकिन नीतीश कुमार ने इसे कर दिखाया। हालात को बदलने के लिए इसी तरह के परिवर्तनों की जरूरत होती है। हमें कुछ ठोस और सख्त कदम उठाने होंगे जिनसे हम भ्रष्टाचार की समस्या से निजात पा सकते हैं। सवाल यही है कि क्या हम फिक्सरों को सबक सिखाएंगे या फिर इसी तरह आत्मदया में डूबे रहेंगे।


प्रीतीश नंदी लेखक वरिष्ठ पत्रकार और फिल्मकार हैं।

1 comment:

ZEAL said...

आपके लेख ने एक सच को उजागर किया है। किसी न किसी को हिम्मत करनी ही होगी सच को कहने की । कहीं से तो शुरुवात होनी ही चाहिए , घर की सफाई की।