Wednesday, December 8, 2010

भ्रष्ट नहीं भारत Source: प्रीतीश नंदी

घोटाले, घोटाले, घोटाले। जहां देखो, वहां घोटाले। इतने कि अब लोगों का भरोसा ही उठ चला है। लोग हर चीज में अपना भरोसा खोते जा रहे हैं। सत्ता में बैठा हर व्यक्ति जिस तरह हमारे देश को लूट-खसोट रहा है, उससे सभी को तकलीफ पहुंचना स्वाभाविक है, बशर्ते आप सिनिकल व्यक्ति न हों और यह न कहें (जैसा कि कई लोग कहते हैं) कि भ्रष्टाचार ही देश की सबसे बड़ी सरकार है।

देश पर किसी भी सरकार का इतना दबदबा नहीं है, जितना भ्रष्टाचार का है। पिछले सप्ताह आई ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद से भारत में अब तक 462 अरब डॉलर की आर्थिक अनियमितताएं हुई हैं, जिनमें से ज्यादातर का कारण था भ्रष्टाचार और घूसखोरी।

मुझे नहीं पता 462 अरब में कितने शून्य होते हैं, लेकिन यह तो तय है कि यह बहुत बड़ा आंकड़ा है। महज 64 करोड़ रुपयों के बोफोर्स घोटाले के लिए हमने राजीव गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया था, अलबत्ता हमें पता था कि भ्रष्टाचार का आंकड़ा इससे ज्यादा है। फिर भी आजकल के घोटालों की तुलना में तो वह कुछ भी नहीं था। कॉमनवेल्थ घोटाला 70 हजार करोड़ से भी ज्यादा का है। 2जी घोटाला 1 लाख 70 हजार करोड़ का है। मैं धीरे-धीरे शून्य की गिनती करना सीख रहा हूं। लेकिन यहां सवाल गणित का नहीं है। यहां सवाल ईमानदारी और निष्ठा का है। क्या हमने ईमानदारी को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है? हाल ही में एक अज्ञात व्यक्ति ने मुझे ट्वीट किया : क्या सभी चोर हैं? मैं भी यही सवाल पूछना चाहता हूं : क्या सभी चोर हैं? मैं उस व्यक्ति के शब्दों को शालीन रूप में प्रस्तुत कर रहा हूं। उसके वास्तविक शब्द थे : सब साला चोर!

यकीन नहीं होता। मैंने पत्रकारिता की कठिन दुनिया में तीन दशक बिता दिए। इस दौरान हर तरह के वाहियात और बेहूदा लोगों से मेरा आमना-सामना हुआ। फिर भी मुझे इस पर यकीन नहीं होता। मैं नहीं मानता कि भारत भ्रष्ट देश है। मैं नहीं मानता कि हम सभी भ्रष्ट हैं। यह कोई खुशफहमी नहीं है। मेरे इस यकीन की बुनियाद में वे लोग हैं, जिनसे रोज मेरी भेंट होती है। हमारे देश के बहुतेरे लोग ईमानदार और मेहनती हैं। मुश्किल हालात होने के बावजूद वे कड़ी मेहनत करते हैं और अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं। जीडीपी की विकास दर और शेयर बाजार की उछाल से उनके संघर्ष में बहुत अंतर नहीं पड़ता। उनमें से बहुतों के लिए जिंदगी की डगर बड़ी कठिन है। फिर भी वे हमारे सामने साहस, गरिमा और भरोसे की अद्भुत मिसाल हैं।

लेकिन वे निराश होते हैं सत्ता में बैठे कुलीनों से। देश के दस फीसदी उन लोगों से, जिन्होंने लूट की कमाई हथिया ली है। हर जगह इन्हीं डकैतों और लुटेरे सामंतों का दबदबा है और उनका नेटवर्क इतना मजबूत है कि बाकी नब्बे फीसदी लोगों के लिए इस चक्रव्यूह को भेद पाना तकरीबन नामुमकिन है। ये लोग हमारे आसपास ही हैं। ये हर जगह मौजूद हैं। ये ही दस फीसदी लोग सियासत के फैसले लेते हैं, नीतियां बनाते हैं और इनमें से किसी पर आंच आने पर एक-दूसरे को बचाते भी हैं। संरक्षण के सामंती ठिकानों में जिस तरह सभी के हित एक-दूसरे से जुड़े होते हैं, ठीक उसी तरह इन लोगों का भी एक-दूसरे से गठजोड़ है। जहां कोई गठजोड़ नहीं होता, वहां उनकी मदद करने के लिए पर्याप्त मात्रा में बिचौलिए और दलाल इर्द-गिर्द होते हैं। इसीलिए तो पार्टियां बदल जाती हैं, नेता बदल जाते हैं, वोट देने के तौर-तरीके और दस्तूर बदल जाते हैं, लेकिन भ्रष्टों के गठबंधन को कोई भी तोड़ नहीं पाता। संसद में भले ही वे एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते रहें, लेकिन वे सभी मौसेरे भाई हैं। रंगेहाथों धर लिए जाने के बावजूद वे बच निकलते हैं। उन्हें कभी सजा नहीं सुनाई जाती।

राजनेताओं के हाथ मजबूत करते हैं नौकरशाह, जिनकी खुद की कोई राजनीति नहीं होती। वे पलक झपकते ही पाला बदल लेते हैं। उन्हें खूब अच्छी तरह पता होता है कि सत्ता का केंद्र कहां है और वे उस तरफ रुख करने में जरा भी देर नहीं लगाते। निश्चित ही मैं कई ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों को भी जानता हूं, जो ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हैं। लेकिन उनमें से अधिकतर को जिंदगी में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। कुछ चुपचाप सहन कर लेते हैं और बेहतर पोस्टिंग या रिटायरमेंट की राह देखते रहते हैं। कुछ राजनीतिक आकाओं की मुखालफत करने का जोखिम उठाते हैं और उसकी भारी कीमत चुकाते हैं।

यही बात व्यापारियों के बारे में भी कही जा सकती है। हमारे बहुतेरे व्यापारी ऐसे हैं, जिन्हें ईमानदारी की मिसाल नहीं कहा जा सकता। लेकिन कुछ अपवाद भी हैं। कई ऐसे मेहनती उद्यमी और पेशेवर हैं, जिन्होंने ऐसी कंपनियां निर्मित की हैं, जो दुनिया की किसी भी कंपनी को टक्कर दे सकती हैं और जिन पर हमें गर्व होता है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि नेताओं और बाबुओं का तंत्र उन्हें समझौते करने पर मजबूर कर देता है। कुछ ऐसे साहसी उद्यमी होते हैं, जो उन्हें ना कहने की ताकत रखते हैं और इसके नतीजे भुगतने को तैयार रहते हैं। बाकी सभी उनकी मांगों को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। बहुतेरे डर के मारे अपना पैसा सात समुंदर पार भिजवा देते हैं, क्योंकि उन्हें पता नहीं होता कि अगली चोट कब पड़ने वाली है। इसका नतीजा यह है कि जितना पैसा गैरकानूनी रूप से बाहर भिजवा दिया गया है और विदेशी बैंकों में सुरक्षित है, वह काले धन की अर्थव्यवस्था के 72 फीसदी के बराबर है। यह बहुत बड़ी रकम है।

सभी जानते हैं कि अगर हम यह पैसा वापस ले आएं तो भारत में कोई भी बेरोजगार नहीं होगा, किसी को भूखे नहीं सोना पड़ेगा, किसी को टैक्स भी नहीं चुकाने होंगे और केवल सांसदों ही नहीं, बल्कि हर व्यक्ति को मुफ्त मेडिकल सुविधाएं और पेंशन मुहैया होंगी। लेकिन यह कभी नहीं होगा। हम पर राज करने वाले दस फीसदी लोगों का यह सारा पैसा विदेशी बैंकों में खुफिया ढंग से बंद रहेगा।

देश के शेष नब्बे फीसदी लोग चाहे कितना ही विरोध-प्रदर्शन करते रहें, लेकिन फिलहाल तो ऐसा कोई रास्ता सूझता नहीं कि हम आगे बढ़कर उन दस फीसदी लोगों तक पहुंचें और उनका वह काला धन उनसे वापस प्राप्त कर लें, जो कि वास्तव में हमारी ही मेहनत की कमाई का पैसा है। जिस पर हमारा अधिकार है। गांधीजी ने हमारे लिए लड़ाई लड़ी और जान दे दी। सुभाषचंद्र बोस और बाकी नेताओं ने भी यही किया। ऐसे में हम चंद लोगों के हाथ में सारी ताकत कैसे सौंप दें और उनसे यह कैसे कह दें कि देश को चाहे जैसे चलाएं। हम इस बेहूदे अहसास के साथ क्यों जीते रहें कि : सब साला चोर!

प्रीतीश नंदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और फिल्मकार हैं।

No comments: