भ्रष्टाचार के बुनियादी मुद्दे पर समूचे राजनीतिक वर्ग के रवैये को निराशाजनक मान रहे हैं संजय गुप्त
संसद का शीतकालीन सत्र 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के कारण जिस तरह पिछले 15 दिनों से बाधित है वह अपने आप में एक अभूतपूर्व संसदीय घटनाक्रम है। संसद के दोनों सदनों में कोई कामकाज नहीं हो पा रहा है और जो हो भी रहा है वह शोर-शराबे के बीच कामचलाऊ तरीके से। चूंकि स्पेक्ट्रम घोटाला देश का सबसे बड़ा घोटाला है इसलिए उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इस घोटाले की अनदेखी करने का मतलब है भ्रष्टाचार की जड़ों को मजबूत करना और कुशासन को मान्यता देना। विपक्ष चाहता है कि इस घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराई जाए, लेकिन सरकार यह समिति गठित न करने पर अड़ी हुई है। वह विपक्ष को मनाने के लिए उसके समक्ष तरह-तरह के प्रस्ताव तो रख रही है, लेकिन यह नहीं बताना चाहती कि उसे संयुक्त संसदीय समिति से क्या परेशानी है? सरकार कभी सीबीआइ को इस घोटाले की जांच के लिए पर्याप्त सक्षम बताती है और कभी लोक लेखा समिति को। विपक्ष का मानना है कि इस घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से ही सही तरह से हो सकती है। यह मान्यता उचित ही है, लेकिन यह ठीक नहीं कि वह सरकार को विधायी कामकाज की अनुमति भी दे रहा है। यह विचित्र है कि जो विपक्ष जेपीसी गठन के लिए सत्तापक्ष पर दबाव बनाने के लिए संसद नहीं चलने दे रहा वही सरकार को संसद में विधायी कामकाज निपटाने का अवसर दे रहा है। यदि वह यह मान रहा है कि स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच पर सत्तापक्ष का रवैया हर हाल में अस्वीकार्य है तो फिर वह ठप संसद में सरकार को राहत क्यों दे रहा है? स्पेक्ट्रम घोटाला न केवल सबसे बड़ा है, बल्कि अलग किस्म का भी है। दो वर्ष पूर्व द्रमुक के दूरसंचार मंत्री ए राजा ने पहले तो सरकार को इसके लिए राजी किया कि उनका मंत्रालय ही स्पेक्ट्रम आवंटन की प्रक्रिया पूरी करेगा। इसके बाद जब इस प्रक्रिया को मनमाने तरीके से आगे बढ़ाया गया और दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने कहा कि मौजूदा प्रक्रिया से राजस्व को नुकसान होगा तो उसकी अनदेखी कर दी गई। यही नहीं राजा ने इस संदर्भ में विधि मंत्रालय और प्रधानमंत्री की भी सलाह खारिज कर दी। उच्चतम न्यायालय में स्पेक्ट्रम घोटाले की सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि राजा ने किस हद तक मनमानी की। उच्चतम न्यायालय की मानें तो राजा ने प्रधानमंत्री का अनादर भी किया। राजा ने न केवल स्पेक्ट्रम आवंटन के नियम बदले, बल्कि आवेदन प्राप्त करने की तिथि में भी हेरफेर किया। हद तो यह रही कि मात्र 45 मिनट में आवंटन प्रक्रिया पूरी कर दी गई और 85 ऐसी कंपनियों को लाभान्वित किया गया जो आवेदन करने की पात्रता भी नहीं रखती थीं। बाद में इन कंपनियों ने अपनी हिस्सेदारी बेच कर अरबों रुपये बटोरे। इन कंपनियों के वारे-न्यारे इसलिए हो गए, क्योंकि उन्होंने कारपोरेट जगत की नई तकनीक लाबिंग का सहारा लिया। कारपोरेट लाबिस्ट नीरा राडिया की कुछ नेताओं, उद्यमियों और वरिष्ठ पत्रकारों से बातचीत के जो टेप सार्वजनिक हुए हैं उससे इन सबकी तो किरकिरी हुई ही है, यह भी स्पष्ट हुआ कि हमारे देश में एक खास समूह सरकार को किस तरह अपने इशारों पर नचा सकता है? कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2 जी स्पेक्ट्रम के मनमाने आवंटन से देश को पौने दो लाख करोड़ रुपये के राजस्व की क्षति हुई है। बावजूद इसके सरकार अपनी गलती स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। इसका कारण यह है कि वह अपने सहयोगी दल द्रमुक को नाराज नहीं करना चाहती। सरकार के सामने केवल स्पेक्ट्रम घोटाला ही मुंह बाए नहीं खड़ा, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला और आदर्श सोसायटी घोटाला भी उसके लिए सिरदर्द साबित हो रहा है। इन सबके साथ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर पीजे थॉमस की नियुक्ति भी उसे शर्मसार कर रही है। सरकार का सबसे बड़ा संकट यह है कि घोटालों की आंच साफ सुथरी छवि वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंच गई है। खुद उच्चतम न्यायालय ने उनकी निष्कि्रयता का सवाल उठाकर उन्हें एक तरह से कठघरे में खड़ा कर दिया है। थॉमस की नियुक्ति के मामले में भी उनकी ओर उंगलियां उठ रही हैं। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को पाक-साफ करार दिया है, लेकिन क्या यह एक विडंबना नहीं कि अब प्रधानमंत्री को ऐसे प्रमाणपत्र की आवश्यकता पड़ रही है? उनकी ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं कर सकता, लेकिन अब ऐसा लगता है कि उन्हें साझा सरकार चलाने की कीमत चुकानी पड़ रही है। केंद्र सरकार की छवि पर जो दाग लगा है वह तब तक दूर होने वाला नहीं जब तक वह प्रत्येक संदिग्ध मामले की तह तक जाने की इच्छाशक्ति नहीं प्रदर्शित करती। यदि उसने कोई गड़बड़ी नहीं की है तो फिर उसे जेपीसी की जांच पर आपत्ति क्यों है? कांग्रेस के जो रणनीतिकार सरकार को जेपीसी गठित न करने की सलाह दे रहे हैं वे एक प्रकार से उसकी मुसीबत बढ़ा रहे हैं। केंद्र सरकार को इसका अहसास हो जाना चाहिए कि स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर आम जनता में भी रोष है। सरकार को यह भी समझना होगा कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की प्रतिबद्धता न दिखाकर वह देश की नींव कमजोर कर रही है। अभी तक का अनुभव यह बताता है कि नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों में जांच के नाम पर लीपापोती होती है और कोई भी सरकारी एजेंसी वास्तव में स्वायत्त नहीं रह गई है। जनता का एक वर्ग इस नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश है कि नेताओं-नौकरशाहों को मनमानी करने की छूट मिल गई है। यह निराशाजनक है कि देश में जैसे-जैसे विकास दर बढ़ रही है वैसे-वैसे घपले-घोटाले भी बढ़ रहे हैं। इस मामले में जो स्थिति केंद्र सरकार की है वही राज्यों की भी। सत्तापक्ष हो या विपक्ष, दोनों ही ऐसी व्यवस्था करने के लिए तैयार नहीं जिससे घपले-घोटाले रुकें। बार-बार यह सामने आ रहा है कि जब जिस दल के नेताओं को मौका मिलता है वे मनमानी करते हैं। अगर राजनीतिक दल भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए ईमानदार हैं तो यह आवश्यक है कि सीबीआई को भी स्वायत्त एवं सक्षम बनाएं और सीवीसी को भी। अभी तो ये दोनों संस्थाएं केंद्र सरकार के इशारों पर काम करने के लिए विवश हैं। आदर्श स्थिति यह होगी कि सीवीसी इस बात की निगरानी कराने में सक्षम हो कि सीबीआई प्रत्येक मामले की निष्पक्ष जांच कर पा रही है या नहीं? अब इसमें संदेह नहीं कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण खुद राजनीतिक दल हैं। चूंकि वर्ष-दर वर्ष चुनाव महंगे होते जा रहे हैं इसलिए राजनीतिक दलों की पैसे की जरूरत भी बढ़ती जा रही है। आमतौर पर यह जरूरत काले धन से पूरी होती है। वैसे भी अब वोट खरीदने के चलन ने जोर पकड़ लिया है। यदि राजनीतिक दलों का चाल-चलन और चुनाव प्रक्रिया नहीं बदली तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने वाला नहीं। समय आ गया है कि चुनाव लड़ने के लिए सरकारी कोष से धन मुहैया कराने जैसी किसी व्यवस्था पर गंभीरता से विचार हो। यदि भ्रष्टाचार से लड़ने के नए तौर-तरीके नहीं बनाए जाते तो घपले-घोटालों का सिलसिला कायम रहना तय है।
साभार:-दैनिक जागरण ०५-१२-२०१०
Tuesday, December 7, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment