Sunday, December 12, 2010

भ्रष्टाचार का पर्याय भारत

भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए सरकारी दबाव से मुक्त जांच एजेंसियों की जरूरत जता रहे हैं संजय गुप्त

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के कारण संसद के शीतकालीन सत्र को जिस तरह लगातार 21 दिन तक ठप किया गया वह अभूतपूर्व है। इसके पहले बोफोर्स तोप सौदे में दलाली को लेकर संसद की कार्यवाही 19 दिन तक बाधित रही थी। आशंका है कि पूरा शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ सकता है, क्योंकि अब इस सत्र की एक बैठक शेष है और सत्तापक्ष-विपक्ष की तकरार कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। विपक्ष ने सत्तापक्ष को चेताया है कि वह स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की मांग बजट सत्र में भी उठाएगा। इसका अर्थ है कि बजट सत्र में भी इसी तरह का गतिरोध देखने को मिल सकता है। विपक्ष और विशेष रूप से मुख्य विपक्षी दल भाजपा संसद के गतिरोध को अपनी जीत बता रही है, लेकिन तथ्य यह है कि ठप संसद में कुछ विधायी कामकाज भी होते रहे और सरकार पर दबाव नहीं बनाया जा सका। उल्टे सरकार ने राजग शासन के समय स्पेक्ट्रम आवंटन में अनियमितता का पता लगाने के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर भाजपा को दबाव में लेने की कोशिश की है। पता नहीं इस समिति के गठन से भाजपा दबाव में आएगी या नहीं, लेकिन जो स्पष्ट है वह यह कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद में कोई सार्थक बहस नहीं हो सकी। अतीत में किसी मामले पर गतिरोध की स्थिति में सत्तापक्ष और विपक्ष कुछ समय बाद कोई न कोई राह निकाल लेते थे, लेकिन इस बार ऐसा होता नजर नहीं आता। भ्रष्टाचार के सवाल पर राजनीतिक दल एक-दूसरे पर जो दोषारोपण कर रहे हैं उससे यह नहीं लगता कि वे इस समस्या के समाधान को लेकर सजग हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष मीडिया के जरिये एक-दूसरे को जवाब देने में लगे हुए हैं और इस दौरान गड़े मुर्दे उखाड़ने का काम कर रहे हैं। भ्रष्टाचार पर अरुचिकर आरोप-प्रत्यारोप के सत्तापक्ष-विपक्ष के सिलसिले के बीच ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल नामक संस्था की ओर से एक बार फिर यह उजागर किया गया कि भारत भ्रष्ट देशों की सूची में शीर्ष पर बना हुआ है। भ्रष्टाचार के मामले में भारत जिन देशों के साथ है उनमें अफगानिस्तान, नाइजीरिया, युगांडा सरीखे देश हैं जो अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों के लिए कुख्यात हैं। ऐसे देशों के साथ भारत की गिनती होने से भारतीयों का सिर शर्म से झुकना स्वाभाविक है। इस संस्था के अनुसार भारत में लगभग हर दूसरा व्यक्ति अपना काम कराने के लिए रिश्वत देने को विवश है। यह लज्जाजनक है कि भारत लगातार उन देशों के साथ अपनी गिनती करा रहा है जो भ्रष्टाचार के लिए जाने जाते हैं। अब तो ऐसा लगता है कि भारत भ्रष्टाचार के जाल से उबरने के बजाय उसमें फंसता चला जा रहा है। हालांकि हर कोई यह मानता है कि हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार विकास का सबसे बड़ा रोड़ा है, लेकिन कोई भी इस रोड़े को हटाने के लिए आगे आता नहीं दिखता। संप्रग सरकार ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए जो सूचना अधिकार कानून बनाया वह कुल मिलाकर निष्प्रभावी सिद्ध हो रहा है। इस कानून के जरिये छोटी-मोटी गड़बडि़यां ही उजागर हो पा रही हैं। ऐसा नहीं लगता कि शीर्ष पदों पर बैठे भ्रष्ट लोग इस कानून की परवाह कर रहे हैं। स्पेक्ट्रम घोटाला इसलिए विचलित करने वाला है, क्योंकि इसे नेताओं, नौकरशाहों और उद्यमियों ने मिलकर अंजाम दिया। कारपोरेट लाबिस्ट नीरा राडिया के टेप जब सार्वजनिक हुए तो अनेक दिग्गजों के चेहरे धूमिल हो गए और रतन टाटा तक को सफाई देनी पड़ी। उनकी सफाई को एक अन्य उद्योगपति एवं सांसद राजीव चंद्रशेखर ने खारिज करते हुए उन पर अनेक गंभीर आरोप जड़े। टाटा ने इन आरोपों का जवाब दिया, लेकिन इससे स्पेक्ट्रम आवंटन में अनियमितता का मामला और जटिल नजर आने लगा है। इन दोनों उद्योगपतियों के आरोप-प्रत्यारोप से तो यही अधिक सिद्ध हो रहा है कि लाबिंग के जरिये सरकार से अनुचित लाभ लेने का काम लंबे समय से जारी है। रतन टाटा ने राजग शासन के समय की स्पेक्ट्रम आवंटन की प्रक्रिया पर भी सवाल उठा दिए हैं, जिस पर उच्चतम न्यायालय भी सहमत नजर आ रहा है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि स्पेक्ट्रम आवंटन को लेकर जो बंदरबांट हुई उसका सही तरह से पर्दाफाश हो पाएगा, क्योंकि सरकार इस मामले की जांच को लेकर बिलकुल भी गंभीर नहीं नजर आती। वह सच्चाई का पता लगाने के बजाय उस पर पर्दा डालने की कोशिश में है। मौजूदा स्थितियों में यह स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार पर आसानी से रोक लगने वाली नहीं है। यह रोक तो तब लग सकती है जब ऐसी जांच एजेंसियां बनें जो सरकार के दबाव से मुक्त हों। वर्तमान में केंद्रीय जांच ब्यूरो हो या केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, दोनों सरकार के नियंत्रण में हैं। सीबीआइ ने स्पेक्ट्रम घोटाले में रिपोर्ट दर्ज होने के 13 माह बाद ए। राजा और उनके सहयोगियों के यहां छापे डाले। इस देरी से तो यही साबित हो रहा है कि उसे इस कार्रवाई के लिए सरकार की हरी झंडी नहीं मिल पा रही थी। संदिग्ध तत्वों के यहां 13 माह बाद छापे डालना तो खानापूरी करना है। यह आश्चर्यजनक है कि स्पेक्ट्रम घोटाले में अपनी किरकिरी कराने के बावजूद सरकार इसकी आवश्यकता नहीं समझ रही है कि सीबीआइ, सीवीसी को स्वायत्त बनाया जाना चाहिए। इसी तरह सत्तापक्ष और विपक्ष इस पर विचार करने के लिए तैयार नहीं कि राजनीतिक दलों का घपले-घोटालों से पीछा क्यों नहीं छूट रहा है? पता नहीं क्यों वे इस पर आत्ममंथन नहीं करना चाहते कि राजनीतिक दल धन की जरूरत अनुचित तरीकों से क्यों पूरी कर रहे हैं? यदि राजनीतिक दल धन की उगाही की जरूरत खत्म करने में सक्षम हो जाएं तो भ्रष्टाचार पर एक हद तक अंकुश लग सकता है। चूंकि शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं का एक वर्ग राजनीतिक मजबूरी की आड़ में कारपोरेट जगत से धन की उगाही कर रहा है इसलिए स्वार्थी नौकरशाह भी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। जब शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार का बोलबाला हो तो निचले स्तर पर उसका वर्चस्व कायम होना और आम लोगों को सुविधा शुल्क के रूप में रिश्वत देने के लिए विवश होना तय है। आज जोड़तोड़ अथवा कानून का उल्लंघन कर काम करना और कराना आम हो गया है। रिश्वत का लेन-देन लोगों की दिनचर्या का अंग बन गया है। स्थिति यह है कि लोगों को तब दिक्कत होने लगती है जब कोई काम न्यायसंगत तरीके से होने लगता है। इस खतरनाक स्थिति में बदलाव के लिए आम आदमी को भी अपनी आदत बदलनी होगी। यदि भ्रष्टाचार के खिलाफ नेताओं, नौकरशाहों के साथ-साथ आम नागरिकों की ओर से कोई सार्थक पहल नहीं होती तो बढ़ता भ्रष्टाचार भारत को और अधिक शर्मसार करेगा।
साभार:-दैनिक जागरण १२-१२-०१०

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