Tuesday, December 14, 2010

आत्मघात की राह पर कांग्रेस

हाल में प्रणब मुखर्जी ने कहा कि राहुल गांधी अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं। ऐसा कहने-मानने वाले और बहुत से लोग हैं। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि वह राहुल के लिए अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार हैं। माना जाता है कि राहुल तभी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहेंगे जब कांगे्रस अपने बलबूते केंद्र की सत्ता पाने में सक्षम हो जाएगी। यद्यपि बिहार में उनकी एकला चलो की रणनीति विफल रही, लेकिन कोई इसकी जरूरत नहीं जता रहा कि उन्हें राज्यों में अपनी यह रणनीति छोड़ देनी चाहिए जहां कांगे्रस कमजोर है। दरअसल कांग्रेस हो या अन्य कोई दल, वे क्षेत्रीय दलों के सहारे अपना उत्थान नहीं कर सकते। वे जोड़-तोड़ से मिली-जुली सरकार तो बना सकते हैं, लेकिन ऐसी सरकारों को सहयोगी दलों की ब्लैकमेलिंग से बचाना मुश्किल है। यह न तो कांग्रेस के हित में होगा और न ही राहुल गांधी के कि वह ऐसी सरकार के मुखिया बनें जिसे घटक दलों के समक्ष नतमस्तक होना पड़े। दो माह पहले तक यह नजर आ रहा था कि यदि केंद्र सरकार इसी तरह काम करती रही तो 2014 के आम चुनावों में ऐसी स्थिति आ सकती है कि कांग्रेस अपने बलबूते 272 सीटों को आंकड़ा छू ले, लेकिन अब तो इसके भी आसार नहीं दिख रहे कि यह सरकार अपना शेष कार्यकाल पूरा कर सकेगी। यदि कमजोर विपक्ष के चलते ऐसा हो जाए तो आज के दिन कांग्रेस का कट्टर समर्थक भी यह नहीं कह सकता कि सोनिया-मनमोहन की जोड़ी पार्टी को फिर से सत्ता में लाने में सफल हो जाएगी, क्योंकि कांग्रेस और केंद्रीय सत्ता, दोनों की प्रतिष्ठा धूल में मिल चुकी है। जो मनमोहन सिंह संप्रग सरकार की प्रतिष्ठा के प्रतीक थे वह भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ निष्कि्रयता के पर्याय बन गए हैं। वह न राजा को मनमानी करने से रोक सके और न ही कलमाड़ी को। मनमोहन सिंह की प्रतिष्ठा को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई है सीवीसी के रूप में पीजे थॉमस की नियुक्ति ने। इस नियुक्ति को लेकर उनके पास यह तर्क भी नहीं कि उन्हें किसी ने आगाह नहीं किया। दागदार थॉमस को सीवीसी बनाकर मनमोहन सरकार ने जैसे अहंकार का प्रदर्शन किया वैसा अहंकार तो कभी राजीव गांधी सरकार ने भी प्रदर्शित नहीं किया था, जबकि उसके पास दो-तिहाई बहुमत था। कांग्रेस ने जेपीसी गठन की विपक्ष की मांग खारिज करने के लिए एक तरह से गोयबल्स की सेना ही उतार दी है। वह तरह-तरह के कुतर्क दे रही है, लेकिन यह नहीं बता पा रही कि जेपीसी गठित करने से कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? यदि राहुल गांधी कांग्रेस के इस रवैये के समर्थक हैं तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता। क्या राहुल गांधी ऐसी कांग्रेस के बलबूते मिशन 2014 पूरा कर सकते हैं? विपक्ष को कमजोर देखकर सत्तापक्ष का बेपरवाह होना स्वाभाविक है, लेकिन क्या कांग्रेस के लिए भारत की जनता भी एक कमजोर विपक्ष है? यदि 2014 में 2009 के मुकाबले कांग्रेस का प्रदर्शन कमजोर रहता है और इसके चलते राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने से इनकार करते हैं तो इसका श्रेय जाएगा मनमोहन सरकार को। मनमोहन सिंह ने संसद में गतिरोध के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराया है, लेकिन देश अच्छी तरह जानता है कि यह सरकार ही है, जो संयुक्त संसदीय समिति से भाग रही है। कभी चुनाव लड़ने का मन न बनाने और संसद सत्र के दौरान विदेश यात्रा करने वाले मनमोहन सिंह को शायद इससे फर्क न पड़ता हो कि संसद चल रही है या नहीं, लेकिन कांग्रेस को तो पड़ना ही चाहिए। यह विपक्ष से ज्यादा सत्तापक्ष की जिम्मेदारी है कि संसद चले। सत्तापक्ष अपनी जिद से विपक्ष को ऐसी स्थिति में ले जा रहा है कि उसके सांसदों के पास लोकसभा से त्यागपत्र देने के अलावा और कोई चारा न रहे। घोटालों और सरकार को शर्मिदा करने वाले खुलासों के चलते केंद्रीय सत्ता कुशासन का पर्याय बन गई है। खुद कांग्रेसी नेता पार्टी को शर्मिदा कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने हेमंत करकरे के बारे में जो हवाई बयान दिया उससे वह झूठों के स्वयंभू सरदार बन गए हैं। कांग्रेस ने उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन जनता जानती है कि कांग्रेस महासचिव की कुर्सी सलामत है। जनता यह भी जानती है कि दिग्विजय सिंह राहुल गांधी के विश्वास पात्र हैं। यदि वास्तव में ऐसा है तो यह राहुल गांधी के लिए दूसरी सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात है। राहुल और उनके शुभचिंतकों को इससे चिंतित होना चाहिए कि पार्टी और सरकार, दोनों उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं पर पलीता लगा रही हैं। यह संभव है कि राहुल गांधी 2014 में भी प्रधानमंत्री न बनना चाहें, लेकिन वह यह तो नहीं ही चाहेंगे कि उनकी पार्टी फिर वहीं पहुंच जाए जहां 1998-99 में थी। वर्तमान में राहुल के अलावा यदि अन्य कोई नेता प्रधानमंत्री पद का दावेदार नजर आ रहा है तो वह नीतीश कुमार हैं। बिगड़ी चीजों को ठीक करने और विशेष रूप से भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की उनकी इच्छाशक्ति के मुकाबले मनमोहन सिंह तो कहीं ठहरते ही नहीं। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण १४-१२-२०१०

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