Wednesday, December 29, 2010

विलक्षण राजनीतिक विचारधारा

राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी के सकारात्मक तथा सर्वसमावेशी योगदान को रेखांकित कर रहे हैं तरुण विजय
भारत के सार्वजनिक जीवन में आज कलह और कलुष के काले बादल छाए हंै। राजनीति, पत्रकारिता, न्यायपालिका और प्रशासन के स्तंभ ढहते दिख रहे हैं। इस वातावरण का एक परिणाम चतुर्दिक अविश्वास तथा निम्नस्तरीय भाषा में उछलने वाले आरोपों के रूप में हुआ है। शालीनता और भद्रता का स्थान चुगलखोरी तथा मुहल्ला-स्तरीय आक्रामकता ने ले लिया है। जो देश दुनिया में अपने अध्यात्म एवं दर्शन के साथ वर्तमान युग में ज्ञान-विज्ञान की असीम प्रगति के लिए जाना जाता रहा है, उसे आज सबसे भ्रष्ट देश के नाते पहचाना जा रहा है। इस कलुषमय वातावरण में दो दिन पहले अटल बिहारी वाजपेयी का 86वां जन्मदिन सबको राजनीति के सकारात्मक तथा सर्व समावेशी रूप की सुगंध दे गया। इस दिन संसद के एनेक्सी में अटल के गत तीन दशकों में लिए गए सर्वश्रेष्ठ साक्षात्कारों की मेरी पुस्तक का लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर विभिन्न विचारधाराओं के श्रेष्ठ विचारकों के एक मंच पर आने का कारण बना अटलजी का अजातशत्रु व्यक्तित्व। उपस्थित लोगों ने एक ही बात कही-अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिक शत्रुता एवं अस्पृश्यता के प्रबल विरोधी थे। वह अपनी विचारनिष्ठा से समझौता किए बिना एकदम विपरीत राजनीतिक धु्रव के विरोधियों से भी मित्रता का हृदय रखते हैं। इसी कारण उनके प्रधानमंत्रित्व काल में न केवल अन्यथा शत्रु पड़ोसी देशों के साथ भारत के मैत्री संबंध पुष्ट हुए, बल्कि घरेलू आतंकवादी और विद्रोही गुटों के साथ समाधान के नए आयाम खुले। आज भारतीय सार्वजनिक जीवन में ऐसे अजातशत्रु एवं जनता में लोकप्रिय मान्यता रखने वाले लोगों की बेहद कमी है। नफरत, कटुता, विद्वेष तथा तेजाबी आक्रामकता का यह दौर हमारे लोकतंत्र के चारों स्तंभों के प्रति जनता में असम्मान और अविश्वास पैदा कर रहा है। इस संदर्भ में एक घटना का उल्लेख समीचीन होगा। जब डॉ. मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमंत्री बने तो मैं पांचजन्य का संपादक था, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचार नीति का समर्थक एवं पोषक साप्ताहिक माना जाता था। मैंने नए प्रधानमंत्री से भेंट का समय मांगा, उन्होंने तुरंत बुलाया और चर्चा में गरीबी निवारण के संदर्भ में नव-भारत निर्माण की विराट आर्थिक विकासोन्मुख योजना का मैंने सुझाव दिया, जो बाद में भारत निर्माण नाम से स्वीकार की गई। उस भेंट का वृत्त पांचजन्य में छपने पर मीडिया में तूफान मच गया कि कांग्रेस के प्रधानमंत्री ने संघ धारा के संपादक से कैसे मुलाकात की। डॉ. मनमोहन सिंह ने अत्यंत शालीनता और संयम का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उस भेंट का बचाव किया और वह मेरी दृष्टि में अधिक सम्मानित हो उठे। दुख इस बात है वर्तमान परिस्थिति में ऐसे सर्व समावेशी नेताओं को मीडिया भी आलोचना का शिकार बनाती है। प्रश्न उठता है कि क्या वैचारिक मतभेद शत्रुता एवं निजी वैमनस्य में परिणत होने चाहिए? क्या लोकतांत्रिक वैचारिक धाराओं का वैविध्य हमारे संविधान तथा सभ्यता की परंपरा के अनुरूप नहीं है? फिर क्यों हम अपेक्षा करें कि सारे देश में सिर्फ एक जैसी वैचारिक साम्यता हो। जैसा पूर्व सोवियत संघ में था या वर्तमान चीन में है? वैचारिक एकरूपता एवं भिन्न विचारों के प्रति विशेष लगाव भारत की विरासत और ज्ञान-धारा का कभी भी अंग नहीं रहा है। न ही राज्यसत्ता सिर्फ एक विचार को प्रोत्साहन देती है या एक मजहब को मानती है जैसे कि अरब देशों व पाकिस्तान में होता है। यह हमारे समाज को कभी मान्य रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी इस संदर्भ में बताते थे कि केवल सम्राट अशोक के समय बौद्ध पंथ को राज्य का धर्म माना गया और शेष इतिहास दुनिया का सबसे सेक्युलर या सर्वपंथ समभाव वाला रहा है। हम हिंदू राज्य के समर्थक नहीं हैं और हिंदू राष्ट्र की हमारी संकल्पना न केवल सांस्कृतिक है, बल्कि सर्व समावेशी एवं सर्व के प्रति समभाव वाली है। यही समभाव आज विलुप्त हो रहा है। ऐसे परिदृश्य में देश में पुन: उस वैचारिक धारा को मजबूत बनाने की जरूरत महसूस की जा रही है जो अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व और कृतित्व का अंग रही है। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ विचारनिष्ठ अधिकारियों यथा भाऊराव देवरस और रज्जू भैया से जो परिपक्वता का पाठ सीखा उसने उन्हें राजपुरुषों में अन्यतम बना दिया। वह पं. दीनदयाल उपाध्याय और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अनन्य प्रिय सहयोगी और शिष्य रहे। यद्यपि डॉ. मुखर्जी के साथ उनका सानिध्य कम रहा, पर उन्होंने युवा अटल में अपार संभावनाएं देखी थीं। यह अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रभक्ति और विचारनिष्ठा का ही प्रतिफल था कि यदि उन्होंने इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ सत्याग्रही संघर्ष किया तो बांग्लादेश युद्ध में भारत की विजय के लिए सदा उनकी प्रशंसा भी की। पोखरण-2 के बाद अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों की परवाह किए बिना अपनी नीतियां चलाना, सुपर कंप्यूटर के निर्माण को प्रोत्साहन, कारगिल-विजय, सैनिकों का योग्य एवं अभूतपूर्व सम्मान, दूरसंचार क्रांति और राष्ट्रीय राजमार्गो के जाल जैसे विराट विकास कार्यो को करते हुए राजनीतिक भ्रष्टाचार या कलुष को निकट न आने देना ही वाजपेयी-राजनीति का उजला रूप है। आज पुन: उसी भारत-निष्ठ नीति का अवलंबन सार्वजनिक जीवन में सौहार्द और विश्वास को कायम कर सकता है।
(लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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